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अर्थः — पर्यंकासन बांधी अथवा ऊभा खडगासने रहीने, काळनुं प्रमाण करी, विषयोमां इन्द्रिओनो व्यापार नहि थवा अर्थे जिनवचनमां एकाग्रचित्त करी, कायाने संकोची, हाथनी अंजलि जोडी, पोताना स्वरूपमां लीन थयो थको अथवा सामयिक – वंदनाना पाठना अर्थने चिंतवतो थको, क्षेत्रनुं परिमाण करी सर्व सावद्ययोग जे घर – व्यापारदि पापयोग तेनो त्याग करी, पापयोगरहित बनी सामयिकमां प्रवतरे ते श्रावक ते काळमां मुनि जेवो छे.
भावार्थः — आ शिक्षाव्रत छे. त्यां ए अर्थ सूचित छे के जे सामयिक छे तेमां सर्व राग-द्वेषरहित बनी, बहारनी सर्व पापयोगक्रियाथी रहित थई, पोताना आत्मस्वरूपमां तल्लीन बनी मुनि प्रवर्ते छे. आ सामयिकचरित्र मुनिनो धर्म छे. ए ज शिक्षा श्रावकने पण आपवामां आवे छे के सामयिकना काळनी मर्यादा करी ते काळमां मुनिनी माफक प्रवर्ते छे; कारण के मुनि थया पछी आ प्रमाणे सदा रहेवुं थशे. ए अपेक्षाथी श्रावकने ते काळमां मुनि जेवो कह्यो छे.
हवे प्रोषधोपवास नामनुं बीजुं शिक्षाव्रत कहे छेः —
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अर्थः — जे ज्ञानी श्रावक एक पक्षनां आठम – चौदश बंने पर्वोमां स्नान, विलेपन, आभूषण, स्त्रीसंसर्ग, सुगंध, धूप, दीप अदि भोगोपभोगनी वस्तुने छोडी वैराग्यभावनारूप आभरणथी आत्माने शोभायमान करी उपवास वा एकभुक्ति वा नीरस आहार करे अथवा अदिशब्दथी कांजी करे वा मात्र भात – पाणी ज ले तेने प्रोषधोपवास नामनुं शिक्षाव्रत होय छे.
भावार्थः — जेम सामयिक करवाना काळनो नियम करी सर्व पापयोगथी निवृत्त थई एकान्तस्थानमां धर्मध्यानपूर्वक बेसे छे, ते ज प्रमाणे सर्व घरकार्यनो त्याग करी समस्त भोगोपभोगसामग्री छोडी सातम अने तेरसना बे पहोर दिवस पछी एकान्तस्थानमां बेसी धर्मध्यान करतो थको सोळ पहोर सुधी मुनिनी माफक रहे, तथा नोम अने पूर्णिमा – अमासना बे पहोर वीत्या पछी प्रतिज्ञा पूर्ण थाय त्यारे घरकार्यमां जोडाय तेने पौषधव्रत होय छे. वळी आठम – चौदशना दिवसोमां उपवासनुं सामर्थ्य न होय तो एकवार भोजन करे वा नीरस कांजी अदि अल्प आहार करी धर्मध्यानमां समय वीतावे. ए प्रमाणे आगळ प्रोषधप्रतिमामां सोळ पहोर कह्युं छे तेम करे. परंतु अहीं गाथामां कह्युं नथी तेथी सोळ पहोरनो नियम न जाणवो. आ पण मुनिव्रतनी शिक्षा ज छे.
हवे अतिथिसंविभाग नामनुं त्रीजुं शिक्षाव्रत कहे छेः —
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अर्थः — जे ज्ञानीश्रावक, उत्तम – मध्यम – जघन्य ए त्रण प्रकारना पात्रोने अर्थे दातारना श्रद्धाअदि गुणोथी युक्त बनी पोताना हाथथी नवधाभक्तिसहित थईने दररोज दान आपे छे ते श्रावकनुं त्रीजुं अतिथिसंविभागशिक्षाव्रत होय छे. ए दान केवुं छे? आहार, अभय, औषध अने शास्त्रदानना भेदथी चार प्रकारनुं छे. वळी अन्य जे लौकिक धनदिकना दान करतां आ दान अतिशय साररूप उत्तम छे. सर्व सिद्धिसुखनुं उपजाववावाळुं छे.
भावार्थः — त्रण प्रकारना पात्रोमां उत्कृष्ट तो मुनि, मध्यम अणुव्रतीश्रावक तथा जघन्य अविरतसम्यग्द्रष्टि छे. वळी दातारना श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा अने शक्ति ए सात गुणो छे. वळी अन्य प्रकार आ प्रमाणे पण छे — आ लोकना फळनी वांच्छा विनानो, क्षमावान, कपटरहित, अन्यदातानी इर्षारहित, आप्या पछी ते संबंधी विषादविनानो, आप्याना हर्षवाळो, अने गवरविनानो ए प्रमाणे पण सात गुणो कह्या छे. वळी प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि तथा आहारशुद्धि ए प्रमाणे नवधाभक्ति छे. ए रीते दातारना गुणोसहित नवधाभक्तिपूर्वक१ पात्रने रोज चार प्रकारनां दान जे आपे छे तेने त्रीजुं शिक्षाव्रत होय छे. आ पण मुनिपणानी शिक्षा माटे — के आपवानुं शीखे ते प्रमाणे १. आ दातारना सात गुणो तथा नवधाभक्ति संबंधी विशेष वर्णन माटे जुओ
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पोताने मुनि थया पछी लेवानुं थशे.
हवे आहारदि दाननुं माहात्म्य कहे छेः —
अर्थः — भोजनना दानथी सर्वने सुख थाय छे. औषधदानपूर्वक शास्त्रदान अने जीवोने अभयदान छे ते सर्व दानोमां दुर्लभताथी पमाय एवुं उत्तमदान छे.
भावार्थः — अहीं अभयदानने सर्वथी श्रेष्ठ कह्युं छे.
हवे बे गाथामां आहारदाननुं माहात्म्य कहे छेः —
अर्थः — भोजनदान आपतां त्रणे दान आपवा बराबर थाय छे, कारण के प्राणीओने क्षुधा – तृषा नामनो रोग दररोज लाग्या ज करे छे. भोजनना बळथी साधुपुरुष रत्रि-दिवस शास्त्रोनो अभ्यास करे छे, भोजन आपवाथी प्राणरक्षा पण थाय छे, ए प्रमाणे भोजनदानथी
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औषध – शास्त्र – अभय ए त्रणे दान आप्यां एम समजवुं.
भावार्थः — भूख – तरसरोग मटवाथी आहारदान ज औषधदान तुल्य थयुं, आहारना बळथी सुखपूर्वक शास्त्राभ्यास थवाथी ज्ञानदान पण ए ज (भोजनदान) थयुं, तथा आहारथी ज प्राणोनी रक्षा थाय छे माटे ए ज अभयदान थयुं. ए प्रमाणे एक भोजनदानमां त्रणे दान गर्भित थाय छे.
हवे फरीथी दाननुं माहात्म्य कहे छेः —
अर्थः — जे पुरुष (श्रावक) आलोक – परलोकना फळनी वांच्छा- रहित बनी परमभक्तिपूर्वक संघना अर्थे दान आपे छे ते पुरुष सर्व संघने रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चरित्रमां स्थाप्यो. वळी उत्तमपात्रविशेषना अर्थे उत्तमभक्तिपूर्वक एक दिवस पण आपेलुं उत्तमदान उत्कृष्ट इन्द्रपदनां सुखने आपे छे.
भावार्थः — दान आपवाथी चतुर्विध संघनी स्थिरता थाय छे एटले दान आपवावाळाए मोक्षमार्ग ज चलाव्यो कहीए छीए. वळी उत्तमपात्र, दातानी उत्तमभक्ति अने उत्तमदान ए बधी विधि मळी जतां तेनुं उत्तम ज फळ थाय छे – इन्द्रदिपदनुं सुख प्राप्त थाय छे.
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हवे चोथुं देशावकशिक शिक्षाव्रत कहे छेः —
अर्थः — श्रावके पहेलां सर्व दिशाओनुं प्रमाण कर्युं हतुं तेमां संवरण करे – संकोच करे तथा पहेलां इन्द्रियोना विषयो संबंधी भोगोपभोगपरिमाण कर्युं हतुं तेमां पण संकोच करे. केवी रीते? ते कहे छे – वर्ष अदि, तथा दिवस – दिवस प्रत्ये काळनी मर्यादा सहित करे. तेनुं प्रयोजन कहे छे – अंतरंगमां तो लोभ तथा काम – इच्छाना शमन एटले घटाडवा अर्थे तथा बाह्य पाप – हिंसदिकने छोडवा अर्थे करे ते श्रावकने आ चोथुं देशावकशिक नामनुं शिक्षाव्रत होय छे.
भावार्थः — पहेलां दिग्व्रतमां जे मर्यादा करी हती ते तो नियमरूप हती अने हवे अहीं तेमां पण काळनी मर्यादापूर्वक घर – हाट – गाम वगेरे सुधीनी गमनागमननी मर्यादा करे, तथा भोगोपभोगव्रतमां पण पहेलां यमरूप इन्द्रियविषयोनी मर्यादा करी हती तेमां पण काळनी मर्यादापूर्वक नियम करे. अहीं सत्तर नियम कह्या छे तेनुं पालन करे, प्रतिदिन मर्यादा कर्या करे. आथी लोभ – तृष्णा – वांच्छानो संकोच (हनि) थाय छे तथा बाह्य हिंसदि पापोनी पण हनि थाय छे. ए प्रमाणे चार शिक्षाव्रत कह्यां. आ चारे व्रत श्रावकने यत्नथी अणुव्रत तथा महाव्रत पालन करवानी शिक्षारूप छे
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हवे अंत संल्लेखना संक्षेपमां कहे छेः —
अर्थः — जे श्रावक, बार व्रतो सहित अंत समये उपशमभावोथी युक्त थई संलेखना करे छे ते स्वर्गनां सुख पामी अनुक्रमथी उत्कृष्ट सुख जे मोक्षसुख तेने प्राप्त थाय छे.
भावार्थः — कषायो अने कायानी क्षीणता करवी तेने संलेखना कहे छे. त्यां श्रावक, बार व्रतोना पालन सहित पाछळथी मरण समय जाणतां प्रथम सावधान थई, सर्व वस्तु प्रत्येनुं ममत्व छोडी कषायोने क्षीण करी उपशमभावरूप मंदकषायी थाय तथा कायाने अनुक्रमथी अनशन – ऊणोदर – नीरसदि तपोथी क्षीण करे. प्रथम ए प्रमाणे कायाने क्षीण करे तो शरीरमां मळ – मूत्रना निमित्तथी जे रोग थाय छे ते न थाय, अंतसमयमां असावधानता न थाय. ए प्रमाणे संलेखना करे. अंतसमये सावधान बनी पोताना स्वरूपमां वा अरहंत – सिद्धपरमेष्ठिना स्वरूपचिंत्वनमां लीन थई व्रतरूप – संवररूप परिणाम सहित बन्यो थको पर्यायने छोडे, तो ते स्वर्गसुखने प्राप्त थाय छे अने त्यां पण आ ज वांच्छा रहे छे के ‘मनुष्य थई व्रत पालन करुं’. ए प्रमाणे अनुक्रमथी मोक्षसुखनी प्रप्ति थाय छे.
अर्थः — सम्यग्द्रष्टिजीव द्रढचित्त बनी एक पण व्रत अतिचार
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रहित निर्मळ पालन करे तो ते नाना प्रकारनी ॠद्धिओथी युक्त इन्द्रपणाने नियमथी प्राप्त थाय.
भावार्थः — अहीं एक पण व्रत अतिचार रहित पाळवानुं फळ इन्द्रपणुं नियमथी कह्युं. त्या एवो आशय जणाय छे के सर्व व्रतोना पालनना परिणाम समानजतिना छे; ज्यां एक व्रत द्रढचित्तथी पालन करे त्यां तेना अन्य समानजातीय व्रत पालननुं अविनाभविपणुं एटले ‘बधांय व्रत पाळ्यां’ कहे छे. वळी आम पण छे के — जो एक त्यागनी आखडीने अंतसमये द्रढचित्तथी पकडी तेमां परिणाम लीन थतां पर्याय छूटे तो ते काळमां अन्य उपयोगना अभावथी महान धर्मध्यान सहित अन्य गतिमां गमन थाय तो उच्चगतिमां ज थाय एवो नियम छे. एवा आशयथी एक व्रतनुं माहात्म्य कह्युं छे, पण अहीं एम न जाणवुं के एक व्रत तो पालन करे अने अन्य पाप सेव्या करे तो तेनुं पण उच्चफळ थाय छे. ए प्रमाणे तो चोरी छोडे अने परस्त्री सेव्या करे
परंतु एम नथी. ए प्रमाणे बीजी व्रतप्रतिमानुं निरूपण कर्युं. बार भेदोनी अपेक्षाए आ त्रीजो भेद थयो.
हवे त्रीजी सामयिकप्रतिमानुं निरूपण करे छे.ः —
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अर्थः — जे सम्यग्द्रष्टि श्रावक बार आवर्त सहित, चार प्रणाम सहित, बे नमस्कार करतो थको प्रसन्न छे. आत्मा जेनो एवो धीर – द्रढचित्त बनीने कायोत्सर्ग करे छे अने त्यां पोताना चैतन्यमात्र शुद्धस्वरूपने ध्यावतो – चिंतवतो रहे छे, वा जिनबिंबने चिंतवतो रहे छे वा परमेष्ठिवाचक पांच नमोकारने चिंतवतो रहे छे, वा कर्मोदयना रसनी जतिने चिंतवतो रहे छे तेने सामयिकव्रत होय छे.
भावार्थः — सामयिकनुं वर्णन पहेलां शिक्षाव्रतमां कर्युं हतुं के ‘रागद्वेष छोडी समभावपूर्वक क्षेत्र – काळ – आसन – ध्यान – मनशुद्धि – वचनशुद्धि – कायशुद्धि सहित काळनी मर्यादा करी एकान्तस्थानमां बेसी सर्वे सावद्ययोगनो त्याग करी धर्मध्यानरूप प्रवर्ते; एम कह्युं हतुं. अहीं विशेष ए कह्युं के ‘कायाथी ममत्व छोडी कायोत्सर्ग करे त्यां अदि – अंतमां बे नमस्कार करे, चार दिशा सन्मुख थई चार शिरोनति करे, एक एक शिरोनतिमां मन-वचन-कायनी शुद्धतानी सूचनारूप त्रण त्रण एम बार आवर्त करे. ए प्रमाणे करी कायाथी ममत्व छोडी निजस्वरूपमां लीन थाय, वा जिनप्रतिमामां उपयोगने लीन करे, वा पंचपरमेष्ठिवाचक अक्षरोनुं ध्यान करे तथा (एम करतां) उपयोग कोई हरकत तरफ जाय तो त्यां कर्मोदयनी जतिने चिंतवे के आ शातावेदनीयनुं फळ छे, वा आ अशातावेदनीयनी जति छे, वा आ अंतरायना उदयनी जति छे इत्यदि कर्मना उदयने चिंतवे? आटलुं विशेष कह्युं. वळी आ प्रमाणे पण विशेष जाणवुं के — शिक्षाव्रतमां तो मन-वचन-काय संबंधी कोई अतिचार पण लागे छे, वा काळनी मर्यादा अदि क्रियामां हीन-अधिक पण थाय छे, अने अहीं प्रतिमानी प्रतिज्ञा छे ते तो अतिचार रहित शुद्ध पळाय छे, उपसगारदिना निमित्तथी प्रतिज्ञाथी चळतो नथी एम जाणवुं. आना पांच अतिचार छे. मन-वचन-कायनुं अस्थिर थवुं, अनादर करवो, भूली जवुं ए (पांच) अतिचार न लगावे. ए प्रमाणे बार भेदनी अपेक्षाए आ सामयिकप्रतिमा चोथो भेद थयो.
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हवे प्रोषधप्रतिमानो भेद कहे छेः —
अर्थः — सातम अने तेरसना दिवसे बे पहोर पछी जिन- चैत्यालयमां जइ सायंकाळमां सामयिकदि क्रियाकर्म करी चार प्रकारना आहारनो त्याग करी उपवास ग्रहण करे, घरनो समस्त व्यापार छोडी धर्मध्यानपूर्वक सातम अने तेरशनी रत्रि व्यतीत करे, आठम अने चतुर्दशीना प्रभातमां ऊठी सामयिक क्रियाकर्म करे अने ते दिवस शास्त्राभ्यासदि करी धर्मध्यानमां वितावे. सायंकाळमां सामयिकदि क्रियाकर्म करी रत्रि पण ए ज प्रमाणे धर्मध्यानमां गाळे, नोम अने
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पूर्णिमाना प्रभातकाळमां सामयिक, वंदनदि करी – जिनपूजनविधान करी, त्रण प्रकारना पात्रोनुं पडगाहन करी तेमने भोजन करावी पछी पोते भोजन करे तेने प्रोषधप्रतिमा होय छे.
भावार्थः — पहेलां शिक्षाव्रतमां प्रोषधनी विधि कही हती ते अहीं पण जाणवी. गृहव्यापार – भोगउपभोगनी समस्त सामग्रीनो त्याग करी एकान्तमां जई सोळ पहोर धर्मध्यानमां व्यतीत करे, अने अहीं वधारामां आटलुं समजवुं के त्यां सोळ पहोरना वखतनो नियम कह्यो नहोतो – अतिचारदि दोष पण लागता हता, परंतु अहीं तो प्रतिमानी प्रतिज्ञा छे तेथी सोळ पहोरना उपवासनो नियम करी अतिचार रहित प्रोषध करे छे. आ प्रोषधप्रतिमाना पांच अतिचार छे ः जे वस्तु जे स्थानमां राखी होय तेने उठाववी – मूकवी, सूवा – बेसवानुं संस्तरण करवुं, ए बधुं वगर देखे जाणे यत्नरहित करवुं, आ प्रमाणे त्रण अतिचार तो आ, तथा उपवासमां अनादर – अप्रीति करवी अने क्रियाकर्मनुं विस्मरण करवुं आ पांच अतिचार लागवा दे नहि. (ते निरतिचार प्रोषधोपवासप्रतिमा छे.)
हवे प्रोषधनुं माहात्म्य कहे छे.ः —
अर्थः — जे ज्ञानी सम्यग्द्रष्टि, आरंभनो त्याग करी उपशमभाव-मंदकषायरूप थईने एक पण उपवास करे छे ते घणा भवोनां संचित करेलां – बांधेलां कर्मोने लीलामात्रमां क्षय करे छे.
भावार्थः — कषाय, विषय अने आहारनो त्याग करी, आलोक -परलोकना भोगोनी वांच्छा छोडी जो एक उपवास करे तो ते घणा कर्मोनी निर्जरा करे छे, तो पछी जे प्रोषधप्रतिमा अंगीकार करी एक
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पक्षमां बे उपवास करे तेना संबंधमां शुं कहेवुं! ते स्वर्गसुख भोगवी मोक्षने प्राप्त थाय छे.
हवे आरंभदिना त्याग विना उपवास करे तेने कमरनिर्जरा थती नथी, एम कहे छेः —
अर्थः — जे उपवास करीने घरकार्यना मोहथी घर संबंधी आरंभ करे छे ते पोताना देहने (मात्र) सूकवे छे, पण तेने लेशमात्र कमरनिर्जरा थती नथी.
भावार्थः — जे विषय – कषाय छोड्या विना केवळ आहारमात्र ज त्याग करे छे अने समस्त घरकार्य करे छे ते पुरुष मात्र देहने ज सूकवे छे, तेने लेशमात्र पण कमरनिर्जरा थती नथी.
हवे सचित्तत्यागप्रतिमा कहे छेः —
अर्थः — जे ज्ञानी सम्यग्द्रष्टिश्रावक पत्र, फळ, छाल, मूळ, कुंपळ अने बीज ए सचित्तने भक्षण करतो नथी, तेने सचित्तविरतिश्रावक कहे छे.
भावार्थः — जीवोथी सहित होय तेने सचित्त कहे छे. पत्र, फळ, छाल, मूळ, बीज अने कुंपळ इत्यदि लीली सचित्त वनस्पतिने न खाय
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तो ते सचित्तविरतप्रतिमा धारक श्रावक छे.*
अर्थः — वळी जे वस्तु पोते खातो नथी ते अन्यने आपवी पण योग्य नथी, कारण के खावावाळा अने खवडाववावाळामां कांई विशेष (भेद) नथी. कृत तथा करितनुं फळ एकसरखुं छे तेथी जे वस्तु पोते न खाय ते अन्यने पण नहि खवडावतां ज सचित्तत्यागव्रतनुं पालन थाय छे.
अर्थः — जे श्रावक सचित्तनो त्याग करे छे तेणे, जेने जीतवी
अर्थ :—सूकावेली, पकावेली, खटाश वा लवणथी मेळवेली, यंत्रथी छिन्न-भिन्न करेली तथा शोधेली एवी बधीय लीलोतरी (हरितकाय) प्रासुक एटले जीवरहित अचित्त थाय छे – कहेवाय छे.
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कठण छे एवी जीह्वाइन्द्रियने जीती, दयाभाव प्रगट कर्यो तथा जिनेश्वरदेवना वचननुं पालन कर्युं.
भावार्थः — सचित्तना त्यागमां मोटो गुण छे, तेनाथी जीह्वाइन्द्रियनुं जीतवुं थाय छे, प्राणीओनी दया पळाय छे तथा भगवाननां वचननुं पालन थाय छे; कारण के हरितकायदि सचित्तमां भगवाने जीव कह्या छे ए आज्ञा पालन थई. सचित्तमां मळेली वा सचित्तथी बंध – संबंधरूप वस्तु इत्यदिक तेना अतिचार छे. ए अतिचार लगावे नहि तो शुद्ध त्याग थाय अने त्यारे ज प्रतिमानुं पालन थाय छे. भोगोपभोगव्रत अने देशावकशिकव्रतमां पण सचित्तनो त्याग कह्यो छे, परंतु त्यां निरतिचार – नियमरूप (त्याग) नथी अने अहीं नियमरूप निरतिचार त्याग होय छे. ए प्रमाणे सचित्तत्याग नामनी पांचमी प्रतिमानुं वा बार भेदोमां छठ्ठा भेदनुं वर्णन कर्युं.
हवे रत्रिभोजनत्याग नामनी छठ्ठी प्रतिमा कहे छेः —
अर्थः — जे ज्ञानी सम्यग्द्रष्टिश्रावक रत्रि विषे चार प्रकारना अशन, पान, खाद्य अने स्वाद्य आहारने भोगवतो नथी-खातो नथी तथा बीजाने तेवुं भोजन करावतो नथी ते श्रावक रत्रिभोजननो त्यागी होय छे.
भावार्थः — मांसभक्षणदोष तथा बहुआरंभी त्रसघातदोषनी अपेक्षाए रत्रिभोजननो त्याग तो पहेली – बीजी प्रतिमामां कराव्यो छे. परंतु त्यां तो कृत-करित-अनुमोदना तथा मन-वचन-कायाना कोई दोष लागे छे, तेथी शुद्ध त्याग नथी अने अहीं तो (ए बधा दोषो टाळी) शुद्ध त्याग थाय छे, माटे तेने प्रतिमा कही छे.
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संवत्सरस्य मध्ये आरम्भं त्यजति रजन्याम् ।।३८३।।
अर्थः — जे पुरुष रत्रिभोजन छोडे छे ते एक वरसदहाडे छ मासना उपवास करे छे, रत्रिभोजनना त्यागथी भोजनसंबंधी आरंभ पण त्यागे छे तथा व्यापारदि संबंधी आरंभ पण छोडे छे. तेथी महान दयापालन करे छे.
भावार्थः — जे रत्रिभोजन त्यागे छे ते वरसदहाडे छ मासना उपवास करे छे तथा अन्य आरंभनो पण रत्रिमां त्याग करे छे. वळी अन्य ग्रन्थोमां आ प्रतिमामां दिवामैथुनत्याग एटले दिवसमां मन -वचन-काय, कृत-करित-अनुमोदना पूर्वक स्त्रीसेवननो त्याग पण कह्यो छे. ए प्रमाणे रत्रिभोजनत्याग प्रतिमानुं निरूपण कर्युं. आ प्रतिमा छठ्ठी छे तथा बार भेदोमां सातमो भेद छे.
हवे ब्रह्मचर्यप्रतिमानुं निरूपण करे छे.ः —
अर्थः — जे ज्ञानी सम्यग्द्रष्टिश्रावक देवांगना, मनुष्यणी, तिर्यंचणी अने चित्रामणनी इत्यदि चारे प्रकारनी बधीय स्त्रीओनो मन
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-वचन-कायाथी अभिलाष न करे ते ब्रह्मचर्यव्रतनो धारक थाय छे. केवो छे ते? दायनो पालन करवावाळो छे
भावार्थः — सर्व स्त्रीओनो मन-वचन-काय तथा कृत-करित -अनुमोदनाथी सर्वथा त्याग करे ते ब्रह्मचर्यप्रतिमा छे.
हवे आरंभविरतिप्रतिमा कहे छेः —
अर्थः — जे श्रावक गृहकार्यसंबंधी कांई पण आरंभ करतो नथी, अन्य पासे करावतो नथी तथा कोई करतो होय तेने भलो जाणतो नथी ते निश्चयथी आरंभत्यागी होय छे. केवो छे ते? हिंसाथी भयभीत छे मन जेनुं एवो छे.
भावार्थः — मन-वचन-कायाथी तथा कृत-करित-अनुमोदनाथी गृहकार्यना आरंभनो त्याग करे छे ते आरंभत्याग प्रतिमाधारी श्रावक होय छे. आ प्रतिमा आठमी छे अने बार भेदोमां आ नवमो भेद छे.
हवे परिग्रहत्यागप्रतिमा कहे छेः —
अर्थः — जे ज्ञानी सम्यग्द्रष्टिश्रावक अभ्यंतर तथा बाह्य एवा बे प्रकारना परिग्रह, के जे पापना कारणरूप छे एम मानतो थको, आनंदपूर्वक छोडे छे ते परिग्रहत्यागी श्रावक होय छे.
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भावार्थः — आभ्यंतरपरिग्रहमां मिथ्यात्व, अनंतानुबंधीकषाय तथा अप्रत्याख्यानावरणकषाय तो पहेलां छूटी गया छे, हवे प्रत्याख्यानावरण अने तेनी साथे लागेल हास्यदिक तथा वेदने घटाडे छे, वळी बाह्यथी धन-धान्यदि सर्वनो त्याग करे छे, परिग्रहत्यागमां घणो आनंद माने छे, कारण के जेने साचो वैराग्य होय छे ते परिग्रहने पापरूप तथा मोटी आपदारूप देखे छे अने तेना त्यागमां घणुं सुख माने छे.
अर्थः — बाह्यपरिग्रहरहित तो दरिद्रमनुष्य स्वभावथी ज होय छे एटले एवा त्यागमां आश्चर्य नथी पण आभ्यंतरपरिग्रहने छोडवा माटे कोई पण समर्थ थतुं नथी.
भावार्थः — जे आभ्यंतरपरिग्रहने छोडे छे तेनी ज महत्ता छे. सामान्यपणे आभ्यंतरपरिग्रह ममत्वभाव छे, एने जे छोडे छे तेने परिग्रहनो त्यागी कहीए छीए. ए प्रमाणे परिग्रहत्याग प्रतिमानुं स्वरूप कह्युं. आ प्रतिमा नवमी छे तथा बार भेदोमां आ दशमो भेद छे.
हवे अनुमोदनविरतिप्रतिमा कहे छेः —
अर्थः — जे श्रावक, पापना मूळ जे गृहस्थनां कार्यो तेमां, अनुमोदना न करे – केवी रीते? ‘जे भवितव्य छे तेम ज थाय छे’ एवी भावना करतो थको — ते अनुमोदनविरतिप्रतिमाधारी श्रावक छे.
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भावार्थः — आहारना अर्थे गृहस्थकार्यना आरंभदिकनी पण अनुमोदना न करे, उदासीन थई घरमां पण रहे वा बाह्य चैत्यालय – मठ-मंडपमां पण वसे, भोजन माटे पोताने घरे वा अन्य श्रावक बोलावे तो त्यां भोजन करी आवे. वळी एम पण न कहे के ‘अमारा माटे फलाणी वस्तु तैयार करजो’. गृहस्थ जे कांई जमाडे ते ज जमी आवे. ते दशमी प्रतिमाधारी श्रावक होय छे.
अर्थः — जे प्रयोजन विना राग-द्वेष सहित बनी शुभ -अशुभकार्योनुं चिंतवन करे छे ते पुरुष विना कार्य पाप उपजावे छे.
भावार्थः — पोते तो त्यागी बन्यो छे छतां विना प्रयोजन पुत्रजन्मप्रप्ति – विवाहदिक शुभकार्यो तथा कोईने पीडा आपवी, मारवो, बांधवो इत्यदिक अशुभकार्यो — एम शुभाशुभ कार्योनुं चिंतवन करी जे राग-द्वेष परिणाम वडे निरर्थक पाप उपजावे छे तेने दशमी प्रतिमा केम होय? तेने तो एवी बुद्धि ज रहे के ‘जे प्रकारनुं भवितव्य छे तेम ज थशे, जेम आहारदि मळवां हशे तेम ज मळी रहेशे’. एवा परिणाम रहे तो अनुमतित्यागनुं पालन थाय छे. ए प्रमाणे बार भेदमां अगियारमो भेद कह्यो.
हवे उद्दिष्टविरति नामनी अगियारमी प्रतिमानुं स्वरूप कहे छेः —
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अर्थः — जे श्रावक मन-वचन-काया तथा कृत-करित -अनुमोदनाजन्य नव प्रकारना दोषरहित अर्थात् नव कोटिए शुद्ध आहार भिक्षाचरणपूर्वक ग्रहण करे, तेमां पण याचनारहित ग्रहण करे पण याचना पूर्वक न ग्रहण करे, तेमां पण योग्य (निर्दोष) ग्रहण करे पण सचित्तदि दोषसहित अयोग्य होय तो न ग्रहण करे, ते उद्दिष्टआहारनो त्यागी छे.
भावार्थः — जे घर छोडी मठ – मंडपमां रहेतो होय, भिक्षाचरणथी आहार लेतो होय, पण पोताना निमित्ते कोईए आहार बनाव्यो होय तो ते आहार न ले, याचनापूर्वक न ले तथा मांसदिक वा सचित्त एवो अयोग्य आहार न ले, ते उद्दिष्टविरति श्रावक छे.
हवे ‘अंतसमयमां श्रावक आराधना करे’ एम कहे छेः —
अर्थः — जे श्रावक व्रतोथी शुद्ध छे तथा अंतसमये दर्शन, ज्ञान, चरित्र अने तपरूपी उत्कृष्ट आराधना आराधे छे ते अच्युत स्वर्गमां देवोथी सेवनीय इन्द्र थाय छे.
भावार्थः — जे सम्यग्द्रष्टिश्रावक निरतिचारपणे अगियार प्रतिमारूप शुद्ध व्रतनुं पालन करे छे अने अंतसमये मरणकाळमां दर्शन – ज्ञान – चरित्र – तप (ए चार) आराधनाने आराधे छे ते अच्युतस्वर्गमां इन्द्र थाय छे. आ, उत्कृष्ट श्रावकना व्रतोनुं उत्कृष्ट फळ छे. ए प्रमाणे अगियार प्रतिमाओनुं स्वरूप कह्युं. अन्य ग्रंथोमां तेना बे भेद कह्या छे. प्रथम भेदवाळो तो एक वस्त्र राखे, केशोने कातरथी वा अस्तराथी सोरावे (क्षौर करावे), पोताना हाथथी प्रतिलेखन करे, बेसीने भोजन करे, पोताना हाथमां भोजन करे वा पात्रमां पण करे,
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त्यारे बीजा भेदवाळो केशोनो लोच करे. प्रति-लेखन पाछळथी करे, पोताना हाथमां ज भोजन करे तथा कोपिन धारण करे इत्यदिक. तेनी विधि अन्य ग्रंथोथी समजवी. ए प्रमाणे प्रतिमा तो अगियार थई तथा बार भेद कह्या हता तेमां आ श्रावकनो बारमो भेद थयो.
हवे अहीं संस्कृत टीकाकारे अन्य ग्रंथानुसार श्रावकसंबंधी थोडुंक कथन लख्युं छे, ते संक्षेपमां लखीए छीएः —
छठ्ठी प्रतिमा सुधी तो जघन्य श्रावक कह्यो छे, सातमी, आठमी अने नवमी प्रतिमाधारकने मध्यम श्रावक कह्यो छे, तथा दशमी – अगियारमी प्रतिमाधारकने उत्कृष्ट श्रावक कह्यो छे. वळी कह्युं छे के समिति सहित प्रवर्ते तो अणुव्रत सफळ छे. पण समिति रहित प्रवर्ते तो व्रतपालन करतो होवा छतां अव्रती छे.
प्रश्नः — गृहस्थने असि, मसि, कृषि, वणिज्यना आरंभमां त्रस – स्थावर जीवोनी हिंसा थाय छे, तो त्रसहिंसानो त्याग तेनाथी केवी रीते बने? तेनुं समाधानः —
पक्ष, चर्या अने साधकता एम श्रावकनी त्रण प्रवृत्ति कही छे. त्यां पक्षनो धारक छे तेने पक्षिक श्रावक कहे छे. चर्याना धारकने नैष्ठिक श्रावक कहे छे, तथा साधकताना धारकने साधक श्रावक कहे छे. त्यां पक्ष तो आ प्रमाणे छे के — जैनमार्गमां त्रसहिंसाना त्यागीने श्रावक कह्यो छे तेथी हुं मारा प्रयोजनने माटे वा परना प्रयोजनने माटे त्रसजीवोने हणुं नहि, धर्मने माटे, देवताने माटे, मंत्रसाधनने माटे, औषधने माटे, आहारने माटे तथा अन्य भोगोने माटे हणुं नहि एवो पक्ष जेने होय ते पक्षिक छे. असि – मसि – कृषि अने वणिज्यदि कार्योमां तेनाथी हिंसा तो थाय छे तोपण मारवानो अभिप्राय नथी, मात्र पोताना कार्यनो अभिप्राय छे, त्यां जीवघात थाय छे तेनी आत्मनिंदा करे छे. ए प्रमाणे त्रसहिंसा नहि करवाना पक्षमात्रथी तेने पक्षिक कहीए छीए. अहीं अप्रत्याख्यानावरणकषायना मंदउदयना परिणाम छे माटे ते अव्रती ज छे, व्रतपालननी इच्छा छे