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छे ते प्राणीने ते ज देशमां, ते ज काळमां, ते ज विधानथी नियमथी थाय छे, तेने इन्द्र के जिनेन्द्र – तीर्थंकरदेव कोई पण अटकावी शकता नथी.
भावार्थः — सर्वज्ञदेव सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनी अवस्थाने जाणे छे अने सर्वज्ञना ज्ञानमां जे प्रतिभास्युं छे ते ज नियमथी थाय छे, पण तेमां हीनधिक कांई थतुं नथी एम सम्यग्द्रष्टि विचारे छे.
हवे ‘एवो तो सम्यग्द्रष्टि छे पण तेमां संशय करे छे ते मिथ्याद्रष्टि छे’ एम कहे छेः —
अर्थः — ए प्रमाणे निश्चयथी सर्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ए छ द्रव्योने तथा ते द्रव्योनी सर्व पर्यायोने सर्वज्ञना आगम अनुसार जे जाणे छे – श्रद्धान करे छे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि छे तथा जे ए प्रमाणे श्रद्धान नथी करतो पण तेमां शंका – संदेह करे छे ते सर्वज्ञना आगमथी प्रतिकूल छे – प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे.
हवे कहे छे के जे विशेष तत्त्वने न जाणतो होय पण जिन-वचनमां आज्ञामात्र श्रद्धान करे छे तेने पण श्रद्धावान कहीए छीएः —
अर्थः — जे जीव ज्ञानावरणना विशिष्ट क्षयोपशम विना तथा विशिष्ट गुरुना संयोग विना तत्त्वार्थने जाणी शकतो नथी ते जीव जिनवचनमां आ प्रमाणे श्रद्धान करे छे के – ‘जिनेन्द्रदेवे जे तत्त्व कह्युं छे
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ते बधुंय भला प्रकारथी हुं इष्ट करुं छुं’. ए प्रमाणे पण ते श्रद्धावान थाय छे.
भावार्थः — जे जिनेश्वरना वचनोनी श्रद्धा करे छे के ‘सर्वज्ञदेवे कह्युं छे ते सर्व मने इष्ट छे’, एवी सामान्य श्रद्धाथी पण तेने आज्ञासम्यक्त्वी कह्यो छे.
हवे त्रण गाथामां सम्यक्त्वनुं माहात्म्य कहे छेः —
अर्थः — सर्व रत्नोमां पण महारत्न सम्यक्त्व छे, वस्तुनी सिद्धि करवाना उपायरूप सर्व योग, मंत्र, ध्यान अदिमां (सम्यक्त्व) उत्तम योग छे; कारण के – सम्यक्त्वथी मोक्ष सधाय छे. अणिमदि ॠद्धिओमां पण (सम्यक्त्व) महान ॠद्धि छे. घणुं शुं कहीए? सर्व सिद्धि करवावाळुं आ सम्यक्त्व ज छे.
अर्थः — सम्यक्त्वगुण सहित जे पुरुष प्रधान (श्रेष्ठ) छे ते देवोना इन्द्रोथी, मनुष्योना इन्द्र चक्रवर्ती अदिथी वंदनीय थाय छे, अने व्रतरहित होय तोपण नाना प्रकारना उत्तम स्वगारदिकनां सुख पामे छे.
भावार्थः — जेनामां सम्यग्दर्शन गुण छे ते प्रधानपुरुष छे. ते इन्द्रदि देवोथी पूज्य थाय छे. सम्यक्त्वसहित (जीव) देवनुं ज आयु बांधे छे, तेथी व्रतरहितने पण स्वर्गगतिमां जवुं मुख्य कह्युं छे. वळी
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सम्यक्त्वगुणप्रधाननो आवो पण अर्थ थाय छे के – पच्चीस मळदोष रहित होय, पोताना निःशंकितदि अने संवेगदि गुणो सहित होय एवा सम्यक्त्वना गुणोथी जे प्रधानपुरुष होय ते देवेन्द्रदि द्वारा पूजनीय थाय छे – स्वर्गने प्राप्त थाय छे.
अर्थः — सम्यग्द्रष्टिजीव दुगरतिना कारणरूप अशुभकर्मोने बांधतो नथी, परंतु पूर्वे घणा भवोमां बांधेलां पापकर्मोनो पण नाश करे छे.
भावार्थः – सम्यग्द्रष्टि मरण करीने प्रथम नरक विनानां बाकीनां नरकोमां जतो नथी, ज्योतिष, व्यंतर अने भवनवासी देव थतो नथी, स्त्रीपर्यायमां ऊपजतो नथी, पांच स्थावर, त्रण विकलेन्द्रिय (बे – त्रण – चार इन्द्रियधारी), असंज्ञी, निगोद, म्लेच्छ तथा कुभोगभूमिमां ऊपजतो नथी; कारण के तेने अनंतानुबंधीकषायना उदयना अभावथी दुगरतिना कारणरूप कषायोना स्थानकरूप परिणामो थता नथी. अहीं तात्पर्य ए जाणवुं के – त्रण काळ अने त्रण लोकमां सम्यग्दर्शन समान कल्याणरूप अन्य कोई पदार्थ नथी अने मिथ्यादर्शन समान कोई शत्रु नथी, एटला माटे श्री गुरुनो उपदेश छे के पोताना सर्वस्व उपाय - उद्यम-यत्नथी पण एक मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्व अंगीकार करवुं. ए प्रमाणे गृहस्थ-धर्मना बार भेदोमां सम्यक्त्व – सहितपणारूप प्रथम भेदनुं निरूपण कर्युं.
हवे प्रतिमाना अगियार भेद छे तेनुं स्वरूप कहे छे. त्यां प्रथम ज दाशरनिक श्रावकनुं स्वरूप कहे छेः —
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अर्थः — घणा त्रसजीवोना घातथी उत्पन्न तथा ए सहित मदिराने तथा अतिनिंद्य एवां मांसदि पदार्थो छे तेने जे नियमथी सेवतो नथी – भक्षण करतो नथी ते दाशरनिक श्रावक छे.
भावार्थः — मदिरा – मांस तथा अदि शब्दथी मधु अने पांच उदंबरफळ के जे त्रसजीवोना घात सहित छे ते वस्तुओने पण जे दाशरनिक श्रावक छे ते भक्षण करतो नथी. मद्य तो मनने मूर्च्छित करे छे – धर्मने भुलावे छे. मांस त्रसघात विना थतुं ज नथी. मधुनी उत्पत्ति प्रसिद्ध त्रसघातनुं स्थान ज छे. पीपळ – वड – पीलु अदि फळोमां त्रसजीवो ऊडता प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे, अन्य ग्रंथोमां पण कह्युं छे के तेमनो त्याग ए श्रावकना आठ मूळगुणो छे. वळी एमने त्रसहिंसानां उपलक्षण कह्या छे. एटला माटे जे वस्तुओमां त्रसहिंसा घणी होय ते, श्रावकने अभक्ष्य छे – भक्षण योग्य नथी. वळी अन्यायप्रवृत्तिना मूळरूप छे एवां सात व्यसननो त्याग पण अहीं कह्यो छे. जुगार, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी अने परस्त्री ए सात व्यसन छे, ‘व्यसन’ नाम आपदा वा कष्टनुं छे. एनुं सेवन करनारने आपदा आवे छे, राजा वा पंचोना दंडने योग्य थाय छे तथा एनुं सेवन पण आपदा वा कष्टरूप छे. तेथी श्रावक एवां अन्यायरूप कार्यो करतो नथी. अहीं ‘दर्शन’ नाम सम्यक्त्वनुं छे तथा जे वडे ‘धर्मनी मूर्ति छे’ एम सर्वना जोवामां आवे तेनुं नाम पण दर्शन छे. जे सम्यग्द्रष्टि होय
तो सम्यक्त्वने मलिन करे तथा जिनमतने लजावे; माटे एने नियमथी छोडतां ज दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक थाय छे.
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अर्थः — निदान अर्थात् आलोक – परलोकना भोगनी वांच्छा रहित बनी उपर प्रमाणे (व्रतमां) द्रढचित्त थयो थको वैराग्यथी भवित (आर्द्र – कोमळ) थयुं छे चित्त जेनुं एवो थयो थको जे सम्यग्द्रष्टिपुरुष व्रत करे छे तेने दाशरनिकश्रावक कहे छे.
भावार्थः — प्रथमनी गाथामां श्रावक कह्या तेनां आ त्रण विशेष विशेषण जाणवां. प्रथम तो द्रढचित्त होय अर्थात् परिषहदि कष्ट आववा छतां पण व्रतनी प्रतिज्ञाथी डगे नहि, बीजुं निदानरहित होय अर्थात् आ लोकसंबंधी यश – सुख – संपत्ति वा परलोकसंबंधी शुभगति अदिनी वांच्छा रहित होय तथा त्रीजुं वैराग्यभावनाथी जेनुं चित्त आर्द्र अर्थात् सिंचायेलुं होय. अभक्ष अने अन्यायने अत्यन्त अनर्थरूप जाणी त्याग करे छे पण एम जाणीने नहि के ‘शास्त्रमां तेने त्यागवा योग्य कह्यां छे माटे त्यागवां’. पण परिणाममां तो राग मट्यो नथी. (त्यां शुं त्याग्युं?) त्यागना अनेक आशय होय छे. आ दाशरनिकश्रावकने तो अन्य कोई आशय नथी, मात्र तीव्र कषायना निमित्तरूप महापाप जाणी त्यागे छे अने एने त्यागवाथी ज आगळनी (व्रतदि) प्रतिमाओना उपदेशने लायक थाय छे. निःशल्यने व्रती कह्यो छे तेथी शल्यरहित त्याग होय छे. ए प्रमाणे दर्शनप्रतिमाधारी श्रावकनुं स्वरूप कह्युं.
हवे बीजी व्रतप्रतिमानुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जे पांच अणुव्रतनो धारक होय, त्रण गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत सहित होय, द्रढचित्तवान होय, शमभावथी युक्त होय तथा
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ज्ञानवान होय ते व्रतप्रतिमाधारक श्रावक छे.
भावार्थः — अहीं ‘अणु’ शब्द अल्पता वाचक छे. पांच पापमां अहीं स्थूळ पापोनो त्याग छे, तेथी तेनी ‘अणुव्रत’ संज्ञा छे. गुणव्रत – शिक्षाव्रत छे ते आ अणुव्रतोनी रक्षा करवावाळां छे तेथी अणुव्रती तेमने पण धारण करे छे. आ जीव व्रतनी प्रतिज्ञामां द्रढचित्त छे. कष्ट – उपसर्ग – परिषह आववा छतां पण शिथिल थतो नथी. अप्रत्याख्यानावरणकषायना अभावथी तथा प्रत्याख्यानावरणकषायना मंदउदयथी आ व्रत थाय छे, तेथी ‘उपशमभावसहितपणुं’ एवुं विशेषण आप्युं छे. जोके दर्शनप्रतिमाधारीने पण अप्रत्याख्यानावरणनो अभाव तो थयो छे, परंतु प्रत्याख्यानावरणकषायना तीव्र स्थानकोना उदयथी तेने अतिचाररहित पांच अणुव्रत होतां नथी तेथी त्यां ‘अणुव्रत’ संज्ञा नथी, पण स्थूल अपेक्षाए तेने पण त्रसघात ने अभक्ष-भक्षणना त्यागथी अणुव्रत-अणुत्व छे. व्यसनोमां चोरीनो त्याग छे एटले असत्य पण तेमां गर्भित छे, परस्त्रीनो त्याग छे, अने वैराग्यभावना छे एटले परिग्रहनी मूर्छानां स्थानक पण घटतां छे – तेमां प्रमाण पण ते करे छे, परंतु निरतिचार बनतुं नथी तेथी ते ‘व्रतप्रतिमा’ नाम पामतुं नथी. वळी ‘ज्ञानी’ विशेषण छे ते पण योग्य ज छे, कारण के – सम्यग्द्रष्टि बनी व्रतनुं स्वरूप जाणी श्रीगुरुनी आपेली प्रतिमाने धारण करे छे माटे ते ज्ञानी ज कहेवाय छे एम जाणवुं.
हवे पांच अणुव्रतोमां प्रथम अणुव्रत कहे छेः —
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अर्थः — जे श्रावक बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अने पंचेन्द्रियरूप त्रसजीवोनो मन-वचन-काया द्वारा पोते घात करे नहि, बीजानी पासे करावे नहि तथा कोई बीजो करतो होय तो तेने भलो माने नहि तेने प्रथम अहिंसाणुव्रत होय छे. ते श्रावक केवो छे? व्यापारदि कार्योमां दया सहित प्रवर्ते छे, प्राणीमात्रने पोता समान माने छे, व्यापारदि कार्योमां हिंसा थाय छे ते बदल पोताना दिलमां पोतानी निंदा करे छे, गर्हापूर्वक गुरुनी आगळ पोतानुं पाप कहे छे, जे पाप लागे छे तेनुं गुरुनी आज्ञा प्रमाणे आलोचन, प्रतिक्रमण अने प्रायश्चित्तदिक ले छे तथा जेमां घणी हिंसा थती होय एवां महाआरंभयुक्त मोटा व्यापारदि कार्योने छोडतो थको प्रवर्ते छे.
भावार्थः — त्रसजीवनो घात पोते करे नहि. बीजा पासे करावे नहि अने एम करनारने भलो जाणे नहि. परजीवोने पोता समान जाणे एटले परघात करतो नथी. जेमां त्रसजीवनो घात घणो थाय एवा मोटा आरंभने छोडे अने अल्प आरंभमां त्रसघात थाय तेमां पण पोतानी निंदा – गर्हापूर्वक आलोचन – प्रतिक्रमण – प्रायश्चित्तदि करे. अन्य ग्रंथोमां तेना अतिचारो कह्या छे ते टाळे. अहीं गाथामां अन्य जीवोने पोतासमान कह्या छे तेमां अतिचार टाळवाना पण आवी गया, कारण के परजीवने वध, बंधन, अतिभारआरोपण, अन्नपाननिरोधनमां दुःख थाय छे, हवे परजीवोने जो पोतासमान जाणे तो ते एम शा माटे करे? (न ज करे)
हवे बीजुं सत्याणुव्रत कहे छेः —
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अर्थः — जे हिंसानुं वचन न कहे, कर्कशवाक्य न कहे, निष्ठुरवचन न कहे तथा परनां गुह्यवचन न कहे; (तो केवां वचन कहे?) स्व – परने हितरूप, प्रमाणरूप, सर्व जीवोने संतोषदायक अने सद्धर्मने प्रकाशवावाळां वचन कहे ते पुरुष बीजा सत्याणुव्रतनो धारक थाय छे.
भावार्थः — असत्यवचन अनेक प्रकारनां छे. तेमनो सर्वथा त्याग तो सकलचरित्रधारक मुनिने होय छे अने अणुव्रतमां तो स्थूल (असत्य)नो ज त्याग होय छे. जे वचनथी बीजा जीवोनो घात थाय एवां हिंसानां वचन न कहे, जे वचन बीजाने कडवुं लागे – सांभळतां ज क्रोधदि उत्पन्न थाय एवां कर्कशवचन न कहे, बीजाने उद्वेग, भय, शोक अने कलह ऊपजी आवे एवां निष्ठुरवचन न कहे, अन्यना गुप्तकर्मना प्रकाशक वचन न कहे तथा उपलक्षणथी अन्य एवां के जेमां अन्यनुं अहित थाय एवां वचन न कहे. त्यारे केवां वचन कहे? कहे तो हित – मित वचन कहे, सर्व जीवोने संतोष ऊपजे, तथा जेनाथी सद्धर्मनो प्रकाश थाय एवां कहे, वळी मिथ्याउपदेश, रहोभ्याख्यान, कुटलेखक्रिया, न्यासापहार अने साकारमंत्र- भेद ए पांचे अतिचारो गाथामां विशेषण कह्यां तेमां आवी जाय छे.* अहीं तात्पर्य ए छे के — जेथी अन्य जीवोनुं बूरुं थाय, पोताना उपर आपदा आवी पडे तथा वृथा प्रलापवाक्योथी पोताने पण प्रमाद वधे एवां स्थूल असत्यवचन अणुव्रती श्रावक कहे नहि, बीजा पासे कहेवरावे नहि तथा कहेवावाळाने भलो जाणे नहि. तेने आ बीजुं अणुव्रत होय छे. * १. स्वर्गमोक्षना साधक क्रियविशेषमां अन्य जीवोने अन्यथा प्रवर्तन कराववुं,
२. स्त्री – पुरुषना एकांतमां थयेला क्रिया – आचरणनो बहार प्रकाश करवो ते
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हवे त्रीजुं अचौर्याणुव्रत कहे छेेः —
अर्थः — जे श्रावक बहुमूल्य वस्तु अल्पमूल्यमां न ले, कपटथी – लोभथी – क्रोधथी – मानथी परनुं द्रव्य न ले, ते त्रीजा अणुव्रतधारी श्रावक छे. केवो छे ते? द्रढ छे चित्त जेनुं, कारण पामवा छतां प्रतिज्ञा बगाडतो नथी तथा शुद्ध छे – उज्ज्वळ छे बुद्धि जेनी (एवो छे).
भावार्थः — सात व्यसनना त्यागमां चोरीनो त्याग तो कर्यो ज छे. तेमां आ विशेष छे के – बहुमूल्यनी वस्तु अल्पमूल्यमां लेवाथी झगडो उत्पन्न थाय छे. कोण जाणे शुं कारणथी सामो माणस अल्प मूल्यमां आपे छे? वळी परनी भूली गयेली वस्तु तथा मार्गमां पडेली वस्तु पण न ले, एम न जाणे के पेलो नथी जाणतो पछी तेनो डर ३. परने ठगवा माटे अछता – जूठा लेख लखवा, एवो एवो बधो, कुटलेखक्रिया
४. कोई रूपिया – महोर – आभरणदि पोताने सोपीं गयो होय अने पाछळथी
आ छे ते लई जाओ’ एम कहेवुं ते न्यासापहार – अतिचार छे.
५. अंगविकार भृकुटीक्षेपदिकथी अन्यनो अभिप्राय जाणी इर्षाभावथी लोकमां
अतिचारदोष छे ते छोडवा योग्य छे. (अर्थप्रकशिका टीका, पा. २८५)
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शो? व्यापारमां थोडा ज नफाथी संतोष धारण करे, कारण घणां लालच -लोभथी अनर्थ उत्पन्न थाय छे, कपट – प्रपंचथी कोईनुं धन ले नहि, कोईने पोतानी पासे (जमा) धर्युं होय तो तेने न आपवाना भाव राखे नहि, लोभथी – क्रोधथी परनुं धन खूंचवी ले नहि, मानथी कहे के ‘अमे मोटा जोरावर छीए, लीधुं तो शुं थई गयुं?’ ए प्रमाणे परनुं धन ले नहि. ए ज प्रमाणे परनी पासे लेवरावे नहि तथा कोई लेनारने भलो जाणे नहि. वळी अन्य ग्रंथोमां तेना पांच अतिचार कह्या छे ते आ प्रमाणेः (१) चोरने चोरी माटे प्रेरणा करवी, (२) तेनुं लावेलुं धन लेवुं, (३) राज्यविरुद्ध कार्य करवुं, (४) वेपारमां तोल – बाट ओछां अधिकां राखवा, (५) अल्पमूल्यनी वस्तु बहुमूल्यवान बतावी तेनो व्यवहार करवो. ए पांच अतिचार छे. ए गाथामां कहेलां विशेषणोमां आवी जाय छे. ए प्रमाणे निरतिचाररूपे स्तेय (चोरी) – त्यागव्रतने जे पाळे छे ते त्रीजा अणुव्रतधारी श्रावक होय छे.
हवे ब्रह्मचर्याणुव्रतनुं व्याख्यान करे छेः —
अर्थः — जे श्रावक स्त्रीना देहने अशुचिमय – दुर्गंध जाणतो थको तेना रूप – लावण्यने पण (मात्र) मनने मोह उपजाववाना कारणरूप जाणे छे अने तेथी तेनाथी विरक्त थई प्रवर्ते छे, जे परस्त्री मोटी होय १ विरज्जमाणो एवो पण पाठ छे.
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तेने माता बराबर, बराबर उंमरवाळी होय तेने बहेन बराबर तथा नानी होय तेने दीकरी तुल्य मन – वचन – कायथी जाणे छे ते स्थूल ब्रह्मचर्याणुव्रतधारी श्रावक छे. परस्त्रीने तो मन – वचन – काय, कृत – करित – अनुमोदनाथी त्याग करे, स्वस्त्रीमां संतोष धरे, तीव्रकामवश विनोद – क्रिडारूप न प्रवर्ते, स्त्रीना शरीरने अपवित्र – दुर्गंध जाणी वैराग्यभावनारूप भाव राखे तथा कामनी तीव्रवेदना आ स्त्रीना निमित्तथी थाय छे तेथी तेनी रूप – लावण्यदि चेष्टाने मनने मोहित करवामां ज्ञानने भुलाववामां अने कामने उपजाववामां कारणरूप जाणी तेनाथी विरक्त रहे ते चोथा अणुव्रतधारी होय छे. (१) परना विवाह करवा, (२ – ३) परनी परिणीत – अपरिणीत स्त्रीनो संसर्ग राखवो, (४) कामक्रीडा, (५) कामनो तीव्र अभिप्राय — ए तेना पांच अतिचार* छे. ते, ‘स्त्रीना देहथी विरक्त रहेवुं’ ए विशेषणमां आवी जाय छे. परस्त्रीनो त्याग तो पहेली प्रतिमामां सात व्यसनना त्यागमां आवी गयो छे, अहीं तो अति तीव्र कामवासनानो पण त्याग छे, तेथी अतिचार रहित व्रत पळाय छे, पोतानी स्त्रीमां पण तीव्रपणुं होतुं नथी. ए प्रमाणे ब्रह्मचर्याणुव्रतनुं कथन कर्युं.
हवे परिग्रहपरिमाण नामना पांचमा अणुव्रतनुं कथन करे छेः —
* परविवाहकरण, अपरिगृहितइत्वरिकागमन, परिगृहितइत्वरिकागमन,
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अर्थः — जे पुरुष लोभकषायने अल्प करी संतोषरूप रसायणथी संतुष्ट थतो थको सर्व धन – धान्यदिक परिग्रहने विनाशी मानी दुष्ट तृष्णाने अतिशय हणे छे, तथा धन – धान्य – सुवर्ण – क्षेत्रदि परिग्रहनुं, पोताना उपयोगसामर्थ्यने अने कायरविशेषने जाणी तेना अनुसार, परिमाण करे छे तेने आ पांचमुं अणुव्रत होय छे. अंतरंगपरिग्रह तो लोभ – तृष्णा छे तेने क्षीण करे छे तथा बाह्यपरिग्रहनुं परिमाण करे छे. द्रढचित्तथी प्रतिज्ञाभंग न करे ते अतिचार* रहित पंचमअणुव्रती छे. ए प्रमाणे पांच अणुव्रत निरतिचार पालन करे छे ते व्रतप्रतिमाधारी श्रावक छे. ए प्रमाणे पांच अणुव्रतनुं व्याख्यान कर्युं.
हवे ते व्रतोनी रक्षा करवावाळां सात शील छे. तेनुं व्याख्यान करे छे. तेमां प्रथम त्रण गुणव्रतमां पहेलुं गुणव्रत कहे छेः —
अर्थः — लोभनो नाश करवा अर्थे जीवने परिग्रहनुं परिमाण * क्षेत्रवास्तु, हिरण्यसुवर्ण, धनधान्य, दासीदास अने कुप्यभांड आ वस्तुओना
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होय छे; तेमां पण सर्व दिशाओमां परिमाण करीने पण नियमथी लोभनो नाश करे छे. तेथी पूर्व वगेरे प्रसिद्ध दश दिशाओ छे तेमनुं पोताना प्रयोजनभूत कार्यथी जरूरियात जाणी, प्रमाण करे ते पहेलुं गुणव्रत छे. पहेलां कहेलां पांचे अणुव्रतनुं उपकारी आ गुणव्रत छे. अहीं ‘गुण’ शब्द उपकारवाचक समजवो. जेम लोभनो नाश करवा माटे परिग्रहनुं परिमाण करे छे तेम लोभनो नाश करवा माटे दिशाओनुं पण परिमाण करे छे. ज्यां सुधीनुं परिमाण कर्युं होय ते उपरांतनी पेली बाजु द्रव्यदिनी प्रप्ति थती होय तो पण त्यां जाय नहि. ए प्रमाणे लोभने घटाड्यो, तथा परिमाणथी पेली बाजु न जवाथी ए बाजु संबंधीनुं हिंसानुं पाप पण लागतुं नथी तेथी ए बाजु संबंधी (गुणव्रत पण) महाव्रत बराबर थयां.
हवे बीजुं अनर्थदंडविरति गुणव्रत कहे छेः —
कार्यं किमपि न साधयति नित्यं पापं करोति यः अर्थः ।
सः खलु भवेत् अनर्थः पंचप्रकारः अपि सः विविधः ।।३४३।।
अर्थः — जे कार्यथी पोतानुं प्रयोजन तो कांई सधाय नहि पण मात्र पाप ज उत्पन्न करे एवुं होय तेने अनर्थ कहे छे. ते पांच वा अनेक प्रकारना होय छे.
भावार्थः — प्रयोजन विना पाप उपजावे ते अनर्थदंड छे. तेना अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसाप्रदान तथा दुःश्रुतिश्रवण ए पांच प्रकार वा अनेक प्रकार पण छे.
तेमां प्रथम भेद कहे छेः —
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अर्थः — बीजाना दोष ग्रहण करवा, अन्यनी लक्ष्मी – धन – संपदानी वांच्छा करवी, परनी स्त्रीने राग सहित निरखवी (ताकी ताकीने जोवी) तथा परना कलह जोवा इत्यदि कार्यो करवां ते प्रथम अनर्थदंड छे.
भावार्थः — परना दोष ग्रहण करवामां पोताना भाव तो बगडे छे पण पोतानुं प्रयोजन कांई पण सिद्ध थतुं नथी, परनुं बूरुं थाय अने पोतानुं दुष्टपणुं मात्र ठरे छे. बीजानी संपदा देखी पोते तेनी वांच्छा करे तो तेथी कांई पोतानी पासे ते आवी जती नथी एटले एथी पण निष्प्रयोजन भाव ज बगडे छे. बीजानी स्त्रीने रागरहित (ताकी ताकीने) जोवामां पण पोते त्यागी थईने निष्प्रयोजन भाव शा माटे बगाडे? वळी परना कलह जोवामां पण कांई पोतानुं कार्य सिद्ध थतुं नथी, परंतु ऊलटी कदचित् पोताना उपर आफत आवी पडे छे. ए प्रमाणे ए अदिथी मांडी जे जे कार्योमां पोताना भाव बगडे ते ते बधो अपध्यान नामनो प्रथम अनर्थदंड छे अने ते अणुव्रतभंगना कारणरूप छे. तेने छोडतां ज व्रत द्रढ टके छे.
हवे बीजो पापोपदेश नामनो अनर्थदंड कहे छेः —
अर्थः — खेती करवी, पशुपालन, वणिज्य करवुं तथा स्त्री – पुरुषनो संयोग जेम थाय तेम बताववो इत्यदि पापसहित कार्योनो बीजाने उपदेश आपवो, तेनुं विधान (रीत) बताववुं के जेमां पोतानुं प्रयोजन तो कांई सधाय नहि पण मात्र पाप ज उत्पन्न थाय ते बीजो
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पापोपदेश नामनो अनर्थदंड छे. बीजाने पापनो उपदेश करवामां पोताने केवळ पापबंध ज थाय छे अने तेथी व्रतभंग थाय छे, एने छोडतां व्रतनी रक्षा थाय छे. व्रत उपर गुण करे छे – उपकार करे छे, तेथी तेनुं नाम गुणव्रत छे.
हवे त्रीजो प्रमादचर्या नामनो अनर्थदंड कहे छेः —
अर्थः — अफळ – निष्प्रयोजन एवा पृथ्वी, जळ, अग्नि अने पवनना व्यापारमां प्रवृत्ति करवी तथा निष्प्रयोजन हरित (लीलोतरी) वनस्पतिकायनुं छेदन-भेदन करवुं ते त्रीजो प्रमादचर्या नामनो अनर्थदंड छे.
भावार्थः — प्रमादवश बनी पृथ्वी – जळ – अग्नि – वायु अने हरितकायनी विना प्रयोजन विराधना करे त्यां त्रस – स्थावरजीवोनो घात तो थाय छे ज अने पोतानुं कार्य कांई पण सधातुं नथी, तेथी ए करवामां व्रतभंग थाय छे; एने छोडतां ज व्रतनी रक्षा थाय छे.
हवे हिंसादान नामनो चोथो अनर्थदंड कहे छेः —
अर्थः — बिलाडां वगेरे हिंसक जीवोने पालन करवा, लोखंडनो वा लोखंड अदिना आयुधोनो व्यापार करवो – लेण देण करवी, लाख – खला अदि शब्दथी झेरी वस्तु अदिनी लेण – देण, वणज – व्यापार करवो, ए हिंसादान नामनो चोथो अनर्थदंड छे.
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भावार्थः — हिंसक जीवोनुं पालन तो निष्प्रयोजन अने पापरूप प्रगट ज छे तथा हिंसाना कारणरूप शस्त्र – लोह – लाख अदिनो वणजव्यापार – लेणदेण करवां; तेमां पण फळ तो अल्प छे – पाप घणुं छे माटे ते पण अनर्थदंड ज छे. एमां प्रवर्ततां व्रतभंग थाय छे अने एने छोडतां व्रतनी रक्षा थाय छे.
हवे दुःश्रुति नामनो पांचमो अनर्थदंड कहे छेः —
अर्थः — जे सर्वथा एकान्तवादीओनां कहेलां शास्त्रो के जे शास्त्र जेवां देखाय छे एवां कुशास्त्रो, भांडक्रिया – हास्य – कुतूहल – कथननां शास्त्रो, वशीकरण – मंत्रप्रयोगनां शास्त्रो, स्त्रीओनी चेष्टाना वर्णनरूप कामशास्त्रो ए बधानुं सांभळवुं उपलक्षणथी वांचवुं – शीखवुं – संभळाववुं तथा परना दोषोनी कथा करवी – सांभळवी ते दुःश्रुतिश्रवण नामनो छेल्लो पांचमो अनर्थदंड छे.
भावार्थः — खोटां शास्त्रो सांभळवां – वांचवां – संभळाववां – रचवां एमां आपणुं कांई प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी, मात्र पाप ज थाय छे. वळी आजीविका अर्थे पण एनो व्यवहार करवो श्रावकने उचित नथी. मात्र व्यापारदि वडे योग्य आजीविका ज श्रेष्ठ छे. जेमां व्रतभंग थाय तेवुं ते शा माटे करे? व्रतनी रक्षा करवी योग्य छे.
हवे अनर्थदंडना कथनने संकोचे छेः —
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अर्थः — जे ज्ञानी श्रावक आ प्रमाणे अनर्थदंडने निरंतर दुःखनां उपजाववावाळां जाणीने छोडे छे ते बीजा गुणव्रतनो धारवावाळो श्रावक थाय छे.
भावार्थः — आ अनर्थदंडत्याग नामनुं गुणव्रत, अणुव्रतोनुं घणुं उपकारी छे तेथी श्रावकोए तेनुं अवश्य पालन करवुं योग्य छे.
हवे भोगोपभोगपरिमाण नामनुं त्रीजुं गुणव्रत कहे छेः —
अर्थः — जे पोतानी संपदा अने सामर्थ्य जाणी (विचारी) भोजन – तांबूल – वस्त्र अदिनुं परिमाण – मर्यादा करे ते श्रावकने भोगोपभोगपरिमाण नामनुं गुणव्रत होय छे.
भावार्थः — भोजन – तांबूल अदि जे एक वार भोगववामां आवे तेने भोग कहे छे. तथा वस्त्र – घरेणां वगेरे वारंवार भोगववामां आवे तेने उपभोग कहे छे. तेमनुं परिमाण यमरूप (जावजीव) पण होय छे तथा हररोजना नियमरूप पण होय छे. त्यां यथाशक्ति पोतानां साधन – सामग्रीनो विचार करी तेमनो यमरूप वा नियमरूप पण त्याग करे छे. तेमां हररोज जरूरियात जाणी ते अनुसार (नियमरूप) त्याग कर्या करे, ते अणुव्रतने घणो उपकारक छे.
हवे छती (मोजूद) भोगोपभोगनी वस्तुने छोडे छे तेनी प्रशंसा करे छेः —
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अर्थः — जे पुरुष छती (प्राप्त – मोजूद) वस्तुनो त्याग करे छे तेना व्रतने देवोना इन्द्रो पण अभिनंदे छे – प्रशंसे छे, तथा अप्राप्त वस्तुनो त्याग तो एवो छे के जेम लाडु तो होय नहि अने मनमां संकल्पमात्र लाडुनी कल्पना करी लाडु खाय तेवो छे. अहीं अणछती वस्तु संकल्पमात्र छोडवी ए व्रत तो छे, परंतु अल्प सिद्धिदाता छे अर्थात् तेनुं फळ अल्प छे.
प्रश्नः — भोगोपभोगपरिमाणने अहीं त्रीजा गुणव्रतमां गण्युं पण तत्त्वार्थसूत्रमां त्रीजुं गुणव्रत, तो देशव्रत कह्युं छे अने भोगोपभोगपरिमाणव्रतने त्रीजा शिक्षाव्रतमां गण्युं छे तेनुं शुं कारण? तेनुं समाधानः —
ए आचार्योनी विवक्षानुं विचित्रपणुं छे. स्वामी समंतभद्राचार्ये रत्नकरंडश्रावकाचारमां पण अहीं कह्युं छे तेम ज कह्युं छे – एमां विरोध नथी. अहीं तो अणुव्रतना उपकारकनी अपेक्षा लीधी छे अने त्यां (तत्त्वार्थसूत्रमां) सचित्तदि भोग छोडवानी अपेक्षा – मुनिव्रतनी शिक्षा आपवानी अपेक्षा लीधी छे एटले एमां कांई विरोध नथी, ए प्रमाणे गुणव्रतनुं व्याख्यान कर्युं.*
अनुबृंहणाद्गुणानामाख्यन्ति गुणव्रतान्यार्याः ।।६७।।
दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत ए त्रण व्रतो अणुव्रतोने वधारवाना हेतुरूप होवाथी तेने गुणव्रत कहे छे (रत्नकरंडश्रावकाचार)
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हवे शिक्षाव्रतनुं व्याख्यान करे छे. त्यां प्रथम सामयिकशिक्षाव्रत कहे छेः —
अर्थः — प्रथम सामयिक करवामां क्षेत्र, काळ, आसन, लय, मनशुद्धता, वचनशुद्धता अने कायशुद्धता ए सात सामग्री जाणवा योग्य छे.
हवे सामयिकनुं क्षेत्र कहे छेः —
अर्थः — ज्यां कलकलाट शब्द होय नहि, ज्यां घणा लोकोनुं संघट्टन – आवरोजावरो न होय, ज्यां डांस – मच्छर – कीडी – भ्रमरदि शरीरने
दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदंडविरत ए त्रण तथा सामयिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण अने अतिथिसंविभाग ए सात व्रतो सहित गृहस्थ व्रती होय छे.(तत्त्वार्थसूत्र अ० ७ सूत्र २१)
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बाधाकारक जीवो न होय, एवुं क्षेत्र सामयिक करवा माटे योग्य छे.
भावार्थः — ज्यां चित्तमां क्षोभ उपजाववावाळां कोई कारणो न होय त्यां सामयिक करवी.
हवे सामयिकनो काळ कहे छेः —
अर्थः — पूर्वाह्न एटले प्रभातकाळ, मध्याह्न एटले दिवसनो मध्य वखत अने अपराह्न एटले दिवसनो पाछलो वखत (संध्यासमय) ए त्रणे काळमां छ छ घडीनो काळ सामयिकनो छे एम विनयसहित निःस्व एटले परिग्रहरहितना इश्वर गणधरदेवे कह्युं छे.
भावार्थः — त्रण घडी पाछली रत्रिनो तथा त्रण घडी दिवस ऊग्या पछीनो एम छ घडीनो काळ पूर्वाह्नकाळ छे, बीजा पहोरनी पाछळनी त्रण घडीथी मांडी त्रीजा पहोरनी शरूआतनी त्रण घडी सुधी छ घडीनो मध्याह्नकाळ छे तथा दिवसनी छेल्ली त्रण घडीथी मांडी रत्रिनी त्रण घडी सुधीनो छ घडीनो अपराह्नकाळ छे. ए सामयिकनो उत्कृष्ट काळ छे. वळी (प्रातःकाळ, मध्याह्नकाळ अने संध्याकाळ) एम त्रणे काळमां बब्बे घडीनुं सामयिक पण कह्युं छे. ए प्रमाणे त्रण काळमां छ घडी थाय छे.
हवे आसन, लय, तथा मन – वचन – कायानी शुद्धता कहे छेः —