Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 293-322 ; 12. Dharmanupreksha.

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अह णीरोओ होदि हु तह वि ण पावेदि जीवियं सुइरं
अह चिरकालं जीवदि तो सीलं णेव पावेदि ।।२९३।।
अथ नीरोगः भवति स्फु टं तथपि न प्राप्नोति जीवितं सुचिरम्
अथ चिरकालं जीवति तत् शीलं नैव प्राप्नोति ।।२९३।।

अर्थःअथवा कदचित् नीरोग पण थाय तो त्यां दीर्घ जीवन अथवा दीर्घायु न पामे; ए पामवुं दुर्लभ छे; अथवा कदचित् दीर्घ आयु पण पामे तो त्यां शील अर्थात् उत्तम प्रकृति-भद्र-परिणाम न पामे; तेथी सुष्ठु (उत्तमभद्रसरळ) स्वभाव पामवो दुर्लभ छे.

अह होदि सीलजुत्तो तह वि ण पावेइ साहुसंसग्गं
अह तं पि कह वि पावदि सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ।।२९४।।
अथ भवति शीलयुक्तः तथपि न प्राप्नोति साधुसंसर्गम्
अथ तमपि कथं अपि प्राप्नोति सम्यक्त्वं तथा अपि अतिदुर्लभम् ।।२९४।।

अर्थःकदचित् उत्तमस्वभाव पण पामे तो त्यां साधु पुरुषोनी संगति पामे नहि, अने ते पण कदचित् पामे तो त्यां सम्यग्दर्शन पामवुंसत्श्रद्धान थवुं अति दुर्लभ छे.

सम्मत्ते वि य लद्धे चरित्तं णेव गिह्णदे जीवो
अह कह वि तं पि गिह्णदि तो पालेदुं ण सक्केदि ।।२९५।।
सम्यक्त्वे अपि च लब्धे चरित्रं नैव गृह्णति जीवः
अथ कथमपि तत् अपि गृह्णति तत् पालयितुं न शक्नोति ।।२९५।।

अर्थःकदचित् सम्यक्त्व पण पामे तो त्यां आ जीव चरित्र ग्रहण करे नहीं, कदचित् चरित्र पण ग्रहण करे तो तेने निर्दोषपणे पालन करी शके नहि.

रयणत्तये वि लद्धे तिव्वकसायं करेदि जइ जीवो
तो दुग्गईसु गच्छदि पणट्ठरयणत्तओ होउं ।।२९६।।

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रत्नत्रये अपि लब्धे तीव्रकषायं करोति यदि जीवः
तहिं दुगरतिषु गच्छति प्रणष्टरत्नत्रयः भूत्वा ।।२९६।।

अर्थःआ जीव कदचित् रत्नत्रय पण पामे अने त्यां तीव्र कषाय करे तो, नाशने प्राप्त थयुं छे रत्नत्रय जेनुं एवो बनी, दुगरतिमां गमन करे छे.

एवुं मनुष्यपणुं दुर्लभ छे एटला माटे (जीवने) रत्नत्रयनी प्रप्ति थाओ! एम कहे छेः

रयणु व्व जलहिपडियं मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं
एवं सुणिच्छइत्ता मिच्छकसाए य वज्जेह ।।२९७।।
रत्नं इव जलधिपतितं मनुजत्वं तत् अपि भवति अतिदुर्ल्लभम्
एवं सुनिश्चित्य मिथ्यात्वकषायान् च वर्जयत ।।२९७।।

अर्थःजेम महान समुद्रमां पडी गयेलुं रत्न फरी पामवुं दुर्लभ छे तेम आ मनुष्यपणुं पामवुं दुर्लभ छे.एवो निश्चय करी हे भव्यजीवो! आ मिथ्यात्व अने कषायने छोडो. एवो श्रीगुरुओनो उपदेश छे.

हवे कहे छे केजो कदचित् एवुं दुर्लभ मनुष्यपणुं पामी जीव शुभभावोथी देवपणुं पामे तो त्यां चरित्र पामतो नथीः

अहवा देवो होदि हु तत्थ वि पावेदि कह वि सम्मत्तं
तो तवचरणं ण लहदि देसजमं सीललेसं पि ।।२९८।।
अथवा देवः भवति स्फु टं तत्र अपि प्राप्नोति कथमपि सम्यक्त्वम्
ततः तपश्चरणं न लभते देशयमं शीललेशं अपि ।।२९८।।

अर्थःअथवा मनुष्यपणामां कदचित् शुभपरिणामोथी देव पण थाय अने कदचित् त्यां सम्यक्त्व पण पामे तो त्यां तपश्चरण चरित्र पामतो नथी. देशव्रतश्रावकव्रत तथा शीलव्रत एटले ब्रह्मचर्य अथवा सप्तशीलनो लवलेश पण पामतो नथी.


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हवे कहे छे केआ मनुष्यगतिमां ज तपश्चरणदिक छे एवो नियम छेः

मणुवगईए वि तओ मणुवगईए महव्वदं सयलं
मणुवगदीए झाणं मणुवगदीए वि णिव्वाणं ।।२९९।।
मनुजगतौ अपि तपः मनुजगतौ महाव्रतं सक लम्
मनुजगतौ ध्यानं मनुजगतौ अपि निर्वाणम् ।।२९९।।

अर्थःहे भव्यजीव! आ मनुष्यगतिमां ज तपनुं आचरण होय छे, आ मनुष्यगतिमां ज सकल महाव्रत होय छे, आ मनुष्यगतिमां ज धर्मशुक्लध्यान होय छे तथा आ मनुष्यगतिमां ज निर्वाण अर्थात् मोक्षनी प्रप्ति होय छे.

इय दुलहं मणुयत्तं लहिऊणं जे रमंति विसएसु
ते लहिय दिव्वरयणं भूइणिमित्तं पजालंति ।।३००।।
इति दुर्लभं मनुजत्वं लब्ध्वा ये रमन्ते विषयेषु
ते लब्ध्वा दिव्यरत्नं भूतिनिमित्तं प्रज्वालयन्ति ।।३००।।

अर्थःएवुं आ मनुष्यपणुं पामी जे इन्द्रियविषयोमां रमे छे ते दिव्य अमूल्य रत्नने पामी, तेने भस्मने माटे दग्ध करे छे.

भावार्थःअति कठणताथी प्राप्त थवा योग्य एवो आ मनुष्यपर्याय एक अमूल्य रत्न तुल्य छे; तेने विषयकषायोमां रमी वृथा गुमाववो योग्य नथी.

हवे कहे छे केआ मनुष्यपणामां रत्नत्रयने पामी तेनो महान आदर करोः

इय सव्वदुलहदुलहं दंसणणाणं तहा चरित्तं च
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिह्णं पि ।।३०१।।

१-२ अहीं ‘अपि’ शब्द निश्चयार्थ माटे छे.


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इति सर्वदुर्ल्लभदुर्ल्लभं दर्शनज्ञानं तथा चरित्रं च
ज्ञात्वा च संसारे महादरं कुरुत त्रयाणां अपि ।।३०१।।

अर्थःआ बधुं दुर्लभमां पण दुर्लभ जाणी तथा दर्शन-ज्ञान -चरित्र संसारमां दुर्लभथी पण दुर्लभ जाणी, ए दर्शन-ज्ञान-चरित्रनो हे भव्यजीवो! तमे महान आदर करो!

भावार्थःनिगोदमांथी नीकळी उपर कहेल अनुक्रमथी सर्व दुर्लभथी पण दुर्लभ जाणो! वळी तेमां पण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्रनी प्रप्ति तो अत्यंत दुर्लभ समजो! तेने पामीने भव्यजीवोए तेनो महान आदर करवो योग्य छे.

इति बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा समाप्त.
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१२. धार्मानुप्रेक्षा

हवे धर्मानुप्रेक्षानुं निरूपण करे छे. त्यां ‘धर्मनुं मूळ सर्वज्ञदेव छे’एम प्रगट करे छेः

जो जाणदि पच्चक्खं तियालगुणपज्जएहिं संजुत्तं
लोयालोयं सयलं सो सव्वह्णू हवे देवो ।।३०२।।
यः जानति प्रत्यक्षं त्रिकालगुणपर्ययैः संयुक्तम्
लोकालोकं सकलं सः सर्वज्ञः भवेत् देवः ।।३०२।।

अर्थःत्रिकाल गोचर समस्त गुण-पर्यायो सहित संपूर्ण लोक -अलोकने जे प्रत्यक्ष जाणे छे ते सर्वज्ञदेव छे.

भावार्थःआ लोकमां जीवद्रव्य अनंतानंत छे, तेनाथी अनंतानंतगणां पुद्गलद्रव्यो छे, आकाश, धर्म अने अधर्मद्रव्य एक-एक छे तथा असंख्यात कालाणुद्रव्यो छे, लोकाकाशनी पार (आसपास) अनंतप्रदेशी आकाशद्रव्य छे ते अलोक छे. ते सर्व द्रव्योनो अनंत समयरूप भूतकाळ तथा तेनाथी अनंतगणा समयरूप भविष्यकाळ छे. ते काळना समय-समयवर्ती एक द्रव्यना अनंत अनंत पर्याय छे. ते बधांय द्रव्यपर्यायोने, युगपत् (एकसाथे) एक समयमां प्रत्यक्ष स्पष्ट भिन्न-भिन्न जेम छे तेम, जेनुं ज्ञान जाणे छे ते सर्वज्ञदेव छे. ए ज देव छे, बाकी बीजाने देव कहेवामां आवे छे ते कहेवामात्र छे. अहीं कहेवानुं तात्पर्य ए छे के धर्मनुं स्वरूप कहेवामां आवशे. ते धर्मनुं यथार्थ स्वरूप इन्द्रियगोचर नथी पण अतीन्द्रिय छे अने तेनुं फळ स्वर्ग-मोक्ष छे ते पण अतीन्द्रिय छे. छद्मस्थने इन्द्रियज्ञान छे ते परोक्ष तेने ज्ञानगोचर नथी. जे सर्व पदार्थोने प्रत्यक्ष देखे ते धर्मनुं स्वरूप पण प्रत्यक्ष देखे. एटला माटे ए धर्मनुं स्वरूप श्री सर्वज्ञदेवनां वचनथी १ जुओ पाछळ गाथा २२१


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ज प्रमाण छे, अन्य छद्मस्थनुं कहेलुं प्रमाण नथी. परंतु सर्वज्ञना वचननी परंपरापूर्वक छद्मस्थ कहे ते प्रमाण छे. तेथी धर्मना स्वरूपकथनमां मूळकारणरूप सर्वज्ञनुं अहीं स्थापन कर्युं.

हवे जे सर्वज्ञने मानतो नथी तेने कहे छेः

जदि ण हवदि सव्वह्णू ता को जाणदि अदिंदियं अत्थं
इंदियणाणं ण मुणदि थूलं पि असेसपज्जायं ।।३०३।।
यदि न भवति सर्वज्ञः ततः कः जानति अतीन्द्रियं अर्थम्
इन्द्रियज्ञानं न जानति स्थूलं अपि अशेषपर्यायम् ।।३०३।।

अर्थःहे सर्वज्ञना अभाववादी? जो सर्वज्ञ न होय तो अतीन्द्रिय पदार्थोइन्द्रियगोचर नथी एवा पदार्थोनेकोण जाणे? इन्द्रियज्ञान तो इन्द्रियोना संबंधमां आवेला वर्तमान स्थूल पदार्थोने जाणे छे. तेना पण समस्त पर्यायोने ते जाणतुं नथी.

भावार्थःसर्वज्ञनो अभाव मीमांसक तथा नस्तिक कहे छे. तेमने अहीं निषेध्या छे के जो सर्वज्ञ न होय तो अतीन्द्रिय पदार्थोने कोण जाणे? कारण के धर्मअधर्मनुं फळ तो अतीन्द्रिय छे, तेने सर्वज्ञ विना (यथार्थपूर्ण) कोई जाणी शकतुं नथी. एटला माटे धर्म-अधर्मना फळने चाहतो जे पुरुष छे ते तो सर्वज्ञने मान्य करी तेमना वचनानुसार धर्मना स्वरूपनो निश्चय करी अंगीकार करो!

तेणुवइट्ठो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं
पढमो बारहभेओ दहभेओ भसिओ बिदिओ ।।३०४।।
तेन उपदिष्टः धर्मः सङ्गासक्तानां तथा असङ्गानां
प्रथमः द्वादशभेदः दशभेदः भषित द्वितीयः ।।३०४।।

अर्थःए सर्वज्ञदेवथी उपदेशित धर्म बे प्रकारथी छेः एक तो संगथी आसक्त गृहस्थनो अने बीजो असंग मुनिनो. त्यां प्रथम गृहस्थनो धर्म तो बार भेदरूप छे तथा बीजो मुनिनो धर्म दश भेदरूप छे.


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हवे गृहस्थधर्मना बार भेदोनां नाम बे गाथामां कहे छेः

सम्मद्दंसणसुद्धो रहिओ मज्जाइथूलदोसेहिं
वयधारी सामाइउ पव्ववई पासुयाहारी ।।३०५।।
राईभोयणविरओ मेहुणसारंभसंगचत्तो य
कज्जाणुमोयविरओ उद्दिट्ठाहारविरदो य ।।३०६।।
सम्यग्दर्शनशुद्धः रहितः मद्यदिस्थूलदोषैः
व्रतधारी सामयिकः पर्वव्रती प्रासुकाहारी ।।३०५।।
रत्रिभोजनविरतः मैथुनसारम्भसङ्गत्त्यक्तः च
कार्यानुमोदविरतः उद्दिष्टाहारविरतः च ।।३०६।।

अर्थःसम्यग्दर्शन शुद्ध छे जेने एवा (१) मद्यदिक स्थूल दोषोथी रहित दर्शनप्रतिमा धारक, (२) पांच अणुव्रतत्रण गुणव्रत चार शिक्षाव्रत एवा बार व्रतो सहित व्रतप्रतिमाधारी, (३) सामयिक प्रतिमाधारी, (४) पर्वव्रती (पौषधोपवास प्रतिमाधारी), (५) प्रासुक -आहारी, (६) रत्रिभोजनत्यागी, (७) मैथुनत्यागी, (८) आरंभ- त्यागी, (९) परिग्रहत्यागी, (१०) कार्यानुमोदना रहित, (११) उदिष्टाहार-विरत. ए प्रमाणे (अगियार प्रतिमा अने एक शुद्ध सम्यग्दर्शन मूळ मळी) श्रावकधर्मना बार भेद छे. तेमां प्रथम भेद तो पच्चीस मळदोषरहित शुद्ध अविरतसम्यग्दर्शन छे तथा बाकीना अगियार भेद प्रतिमाओना व्रतो सहित होय ते व्रती श्रावक छे.

हवे ए बारे धर्मोनां स्वरूप वगेरेनुं व्याख्यान करे छे. त्यां प्रथम ज अविरतसम्यग्द्रष्टिनुं स्वरूप कहे छे. तेमां पण पहेलां सम्यक्त्व उत्पत्तिनी योग्यतानुं निरूपण करे छेः

चदुगदिभव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाणपज्जत्तो
संसारतडे णियडो णाणी पावेइ सम्मत्तं ।।३०७।।
चतुगरतिभव्यः संज्ञी सुविशुद्धः जाग्रत्पर्याप्तः
संसारतटे निकटः ज्ञानी प्राप्नोति सम्यक्त्वम् ।।३०७।।

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अर्थःआवो जीव सम्यक्त्वने पामे छे के जे प्रथम तो भव्यजीव होय, कारण के अभव्यने सम्यक्त्व थाय नहि. वळी चारे गतिमां सम्यक्त्व ऊपजे छे; त्यां पण मन सहित संज्ञीने ऊपजे छे पण असंज्ञीने ऊपजतुं नथी; तेमां पण विशुद्ध (शुभ) परिणामी अने शुभ लेश्या सहित होय; अशुभ लेश्यामां पण शुभ लेश्या समान कषायस्थानकोमां होय तेने पण उपचारथी विशुद्ध कहेवामां आवे छे, परंतु संक्लेश परिणामोमां सम्यक्त्व ऊपजतुं नथी; जाग्रतावस्थामां थाय पण निद्रावस्थामां थाय नहि. पूर्ण पयारप्तिवाळाने थाय पण अपर्याप्तअवस्थामां थाय नहि; संसारकिनारो जेने नजीक वर्ततो होय अर्थात् निकटभव्य होय, कारण

अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काळ पहेलां

सम्यक्त्व ऊपजतुं नथी; तथा ज्ञानी होय एटले साकार उपयोगवान होय, कारण के निराकार दर्शनोपयोगमां सम्यक्त्व ऊपजतुं नथी. आवा जीवने सम्यक्त्वनी उत्पत्ति थाय छे.

हवे, सम्यक्त्वना त्रण प्रकार छे तेमां, औपशमिक अने क्षयिक -सम्यक्त्वनी उत्पत्ति केवी रीते थाय छे ते कहे छेः

सत्तह्णं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं
खयदो य होदि खइयं केवलिमूले मणूसस्स ।।३०८।।
सप्तानां प्रकृतीनां उपशमतः भवति उपशमं सम्यक्त्वम्
क्षयतः च भवति क्षयिकं केवलिमूले मनुष्यस्य ।।३०८।।

अर्थःमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व, अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ ए सात मोहकर्मनी प्रकृतिओनो उपशम थतां औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न थाय छे तथा ए साते मोहकर्मनी प्रकृतिओनो क्षय थतां क्षयिक सम्यक्त्व उत्पन्न थाय छे. आ क्षयिक सम्यक्त्व केवळज्ञानी वा श्रुतकेवळीना निकटपणामां कर्मभूमिना मनुष्यने ज ऊपजे छे.

भावार्थःअहीं एम जाणवुं के क्षयिक सम्यक्त्वनो प्रारंभ तो


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केवली-श्रुतकेवलीनी निकटतामां कर्मभूमिना मनुष्यने ज थाय छे तथा तेनी निष्ठापना (पूर्णता) अन्य गतिमां (चारे गतिमांथी कोई एकमां) पण थाय छे.

हवे, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व केवी रीते थाय छे ते कहे छेः

अणउदयादो छह्णं सजाइरूवेण उदयमाणाणं
सम्मत्तकम्मुउदए खयउवसमियं हवे सम्मं ।।३०९।।
अनुदयात् षण्णां स्वजतिरूपेण उदयमानानाम्
सम्यक्त्वकर्मोदये क्षायोपशमिकं भवेत् सम्यक्त्वम् ।।३०९।।

अर्थःपूर्वोक्त सात प्रकृतिओमांथी छ प्रकृतिओनो उदय न होय, तथा सजतिरूपे एटले समानजातीय प्रकृतिरूपे उदय होय तथा सम्यक्कर्मप्रकृतिनो उदय थतां क्षायोपशमिक सम्यक्त्व थाय छे.

भावार्थःमिथ्यात्व अने सम्यग्मिथ्यात्वना उदयनो अभाव होय सम्यक्प्रकृतिनो उदय होय, अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभना उदयनो अभाव होय तथा विसंयोजन करी अप्रत्याख्यानावरणदिरूपथी उदयमान होय, ते वेळा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ऊपजे छे. आ त्रणे सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनुं विशेष कथन श्री गोम्मटसारलब्धिसारथी जाणवुं.

हवे औपशमिकक्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अनंतानुबंधीनुं विसंयोजन तथा देशव्रतए त्रणेनुं प्राप्त थवुं तथा छूटी जवुं उत्कृष्टताथी कहे छेेः जुओ गोम्मटसार जीव० गाथा ६४७ जे त्रण करण वडे अनंतानुबंधीना परमाणुओने अन्य चरित्रमोहनीयनी प्रकृतिरूप परिणमावी तेनी (अनंतानुबंधीनी) सत्तानो नाश करवामां आवे तेनुं नाम विसंयोजन छे.

(जुओ गुजराती मोक्षमार्गप्रकाशक अ० ९ पृष्ठ ३३६)

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गिह्णदि मुंचदि जीवो बे सम्मत्ते असंखवाराओ
पढमकसायविणासं देसवयं कुणइ उक्किट्ठं ।।३१०।।
गृह्णति मुञ्चति जीवः द्वे सम्यक्त्वे असंख्यवारान्
प्रथमकषायविनाशं देशव्रतं करोति उत्कृष्टम् ।।३१०।।

अर्थःऔपशमिक-क्षायोपशमिक ए बंने सम्यक्त्व तथा अनंतानुबंधीनो विनाश अर्थात् विसंयोजन (एटले तेने अप्रत्याख्यानदिरूप परिणमाववुं ) अने देशव्रत ए चारेने आ जीव उत्कृष्ट असंख्यात वार ग्रहण करे छे तथा छोडे छे.

भावार्थःपल्यना असंख्यातमा भागप्रमाण जे असंख्यात छे तेटली वार उत्कृष्टपणे (उपरनां चारेने) आ जीव ग्रहण करे तथा छोडे, ते पछी मुक्ति प्राप्त थाय छे.

ए प्रमाणे सात प्रकृतिना उपशम, क्षय अने क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेलुं सम्यक्त्व जेनाथी जाणी शकाय एवा तत्त्वार्थश्रद्धानने नव गाथासूत्रो द्वारा कहे छेः

जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं
लोयाण पह्णवसदो ववहारपवत्तणट्ठं च ।।३११।।
जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवदि णवविहं अत्थं
सुदणाणेण णएहिं य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ।।३१२।।
यः तत्त्वं अनेकान्तं नियमात् श्रद्दधति सप्तभङ्गैः
लोकानां प्रश्नवशतः व्यवहारप्रवर्त्तनार्थं च ।।३११।।
यः आदरेण मन्यते जीवाजीवदि नवविधं अर्थम्
श्रुतज्ञानेन नयैः च सः सदृष्टिः भवेत् शुद्धः ।।३१२।।

अर्थःजे पुरुष सप्त भंगो द्वारा अनेकान्ततत्त्वोनुं नियमथी श्रद्धान करे छे, [कारण के लोकोना प्रश्नवश विधिनिषेधथी वचनना सात ज भंग थाय छे. (यथा प्रश्नवशादेकस्मिन्वस्तुन्यविरोधेन


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विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगीः श्री राजवर्तिकसूत्र ५, करिका ५, पृष्ठ २४) तेथी व्यवहारप्रवर्तना अर्थे पण सात भंगोथी वचननी प्रवृत्ति थाय छे.] वळी जे जीवअजीवदि नव प्रकारना पदार्थोने श्रुतज्ञानप्रमाणथी अने तेना भेद जे नय तेनाथी पोताना आदर यत्न-उद्यमथी माने श्रद्धान करे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि छे.

भावार्थःवस्तुनुं स्वरूप अनेकान्त छे. जेमां अनेक अंत अर्थात् धर्म होय तेने अनेकान्त कहे छे. ते धर्म अस्तित्व, नस्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षात्व, दैवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व, हेतुसाध्यत्व, आगमसाध्यत्व, अंतरंगत्व, बहिरंगत्व इत्यदि तो सामान्य धर्म छे तथा द्रव्यत्व, पर्यायत्व, जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व, रसत्व, गन्धत्व, वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, संसरित्व, सिद्धत्व, अवगाहत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व इत्यदि विशेष धर्म छे.

हवे प्रश्नकारना प्रश्नवशात् विधि-निषेधरूप वचनना सात भंग थाय छे. तेने ‘स्यात्’ ए पद लगाववुं. स्यात् एटले ‘कथंचित्’‘कोई प्रकारथी’ एवा अर्थमां छे. ए वडे वस्तुने अनेकान्तरूप साधवी. त्यां (१) ‘वस्तु स्यात् अस्तिरूप छे’ ए प्रमाणे कोई प्रकारथीपोताना द्रव्य-क्षेत्र -काळ-भावथीवस्तुने अस्तित्वरूप कहे छे, (२) ‘वस्तु स्यात् नस्तित्वरूप छे’ ए प्रमाणे पर वस्तुना द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी नस्तित्वरूप कहे छे, (३) ‘वस्तु स्यात् अस्तित्वनस्तित्वरूप छे’ ए प्रमाणे वस्तुमां बंने धर्म होय छे अने वचन द्वारा क्रमथी कहेवामां आवे छे, (४) ‘वस्तु स्यात् अवक्तव्य छे’ ए प्रमाणे वस्तुमां बंने धर्म एक काळमां होय छे तोपण वचन द्वारा एक काळमां ते कह्या जता नथी तेथी ते कोई प्रकारथी अवक्तव्य छे, (५) ‘वस्तु स्यात् अस्तिअवक्तव्य छे’ ए प्रमाणे अस्तित्वथी कही जाय छे अने बंने धर्म एक काळमां छे तेथी कही जती नथी ए रीते वक्तव्य पण छे तथा अवक्तव्य पण छे, तेथी स्यात् अस्तिअवक्तव्य’ छे. (६) ए ज प्रमाणे ‘वस्तु स्यात् नस्ति-अवक्तव्य छे’ एम कहेवी, तथा (७) बंने धर्म क्रमपूर्वक कह्या जाय पण एक साथे कह्या


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न जाय माटे ‘वस्तु स्यात् अस्तिनस्ति-अवक्तव्य छे.’ ए प्रमाणे सात ज भंग कोई प्रकारथी संभवे छे. अने ए ज रीते एकत्व, अनेकत्व अदि सामान्य धर्मो उपर सात भंग विधिनिषेधपूर्वक लगाववा. ज्यां जेवी अपेक्षा संभवित होय त्यां तेवी लगाववी.

वळी ए ज प्रमाणे जीवत्व अदि विशेष धर्मोमां पण (सात सात भंग) लगाववा. जेम जीव नामनी वस्तु उपर ‘स्यात् जीवत्व, स्यात् अजीवत्व’ इत्यदि प्रकारे लगाववा. त्यां अपेक्षा आ प्रमाणे छे के पोतानो जीवत्वधर्म पोतानामां छे माटे जीवत्व छे, पण पर अजीवनो अजीवत्व धर्म तेमां नथी, तथा अन्य धर्मने मुख्य करी कहीए तो तेनी अपेक्षाए अजीवत्व छे इत्यदि प्रकारथी लगाववा. तथा जीव अनंत छे एनी अपेक्षाए पोतानुं जीवत्व पोतानामां छे अने परनुं जीवत्व तेमां नथी तेथी ए अपेक्षाए अजीवत्व छे एम पण साधी शकाय छे. इत्यदि अनदिनिधन अनंत जीवअजीव वस्तु छे, ते सर्वमां पोतपोताना द्रव्यत्वपर्यायत्व अदि अनंत धर्म छे, ते सर्व सहित सप्तभंग साधवा. वळी तेना स्थूल पर्याय छे ते पण चिरकाळस्थायी अनेक धर्मरूप होय छे, जेम के जीव संसारीसिद्ध. संसारीमां त्रस अने स्थावर, तेमां मनुष्य तिर्यंच अदि, पुद्गलमां पण अणु-स्कंध, घट-पट अदि. हवे तेमां पण कथंचित् वस्तुपणुं संभवे छे; ए पण उपर प्रमाणे सप्तभंगथी साधवा. वळी ए ज प्रमाणे जीव-पुद्गलना संयोगथी थयेला आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप अने मोक्ष अदि भावमां पण बहुधर्मपणानी अपेक्षाए तथा परस्पर विधिनिषेधथी अनेक धर्मरूप कथंचित् वस्तुपणुं संभवे छे. ए सर्व पण सप्तभंगथी साधवा.

जेम एक पुरुषमां पितापणुं, पुत्रपणुं, मामापणुं, भाणेजपणुं, काकापणुं अने भत्रिजापणुं अदि धर्म होय छे ते पोतपोतानी अपेक्षाए विधि-निषेधपूर्वक सात भंग द्वारा जाणवा. आ नियमथी जाणवुं के वस्तुमात्र अनेक धर्मस्वरूप छे. ते सर्वने जे अनेकान्त जाणी श्रद्धान करे तथा ए ज प्रमाणे लोकमां व्यवहार प्रवर्तावे ते सम्यग्द्रष्टि छे. जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए नव


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पदार्थ छे, तेमने उपर प्रमाणे ज सात भंगथी साधवा. तेनुं साधन श्रुतज्ञानप्रमाण छे, तेना भेद द्रव्यर्थिकपर्यायर्थिक छे अने तेना पण भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ॠजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनय छे. वळी तेना पण उत्तरोत्तर जेटला वचनना प्रकार छे तेटला भेद छे. तेने प्रमाणसप्तभंगी तथा नयसप्तभंगीना विधान द्वारा साधी शकाय छे. एनुं कथन प्रथम लोकभावनामां कर्युं छे, तथा तेनुं विशेष कथन श्री तत्त्वार्थसूत्रनी टीकाथी जाणवुं. ए प्रमाणे प्रमाणनय द्वारा जीवदि पदार्थोने जाणीने जे श्रद्धान करे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि थाय छे.

अहीं आ विशेष जाणवुं केनय, वस्तुना एक एक धर्मनो ग्राहक छे अने ते पोतपोताना विषयरूप धर्मने ग्रहण करवामां समान छे, तोपण पुरुष पोताना प्रयोजनवश तेने मुख्यगौण करीने कहे छे. जेम जीव नामनी वस्तुमां अनेक धर्म छे तोपण चेतनपणुं अदि प्राणधारणपणुं अजीवोथी असाधारण जोईए. अजीवोथी (जीवने) जुदो बताववा माटे प्रयोजनवश मुख्य करी चेतनवस्तुनुं ‘जीव’ नाम राख्युं. ए ज प्रमाणे सर्व धर्मोंने प्रयोजनवश मुख्यगौण करवानी विधि जाणवी.

अहीं ए ज आशयथी अध्यात्म कथनीमां मुख्यने तो निश्चय कह्यो छे तथा गौणने व्यवहार कह्यो छे. त्यां अभेदधर्मने तो प्रधानपणे निश्चयनो विषय कह्यो अने भेद-नयने गौण करी व्यवहार कह्यो. वळी द्रव्य तो अभेद छे तेथी निश्चयनो आश्रय द्रव्य छे, तथा पर्याय भेदरूप छे तेथी व्यवहारनो आश्रय पर्याय छे. त्यां प्रयोजन आ छे केवस्तुने भेदरूप तो सर्व लोक जाणे छेअने जे जाणे छे ते ज प्रसिद्ध छे, तेनाथी तो लोक पर्यायबुद्धि छे. जीवने नरनारकदिक पर्याय छे, रागद्वेषक्रोधमान मायालोभदि पर्याय छे तथा ज्ञानना भेदरूप मतिज्ञानदि पण पर्याय छे, ए सर्व पर्यायोने ज लोक जीव माने छे, तेथी ए पर्यायोमां अभेदरूप अनदि अनंत एकभावरूप चेतनाधर्मने ग्रहण करी तेने निश्चयनयनो विषय कही जीवद्रव्यनुं ज्ञान कराव्युं, अने पर्यायश्रित भेदनयने गौण कर्यो. अभेदद्रष्टिमां ते (भेदनय) देखातो नथी तेथी अभेदनयनुं द्रढश्रद्धान कराववा माटे कह्युं केपर्यायनय छे ते व्यवहार छेअभूतार्थ छेअसत्यार्थ


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छे. भेदबुद्धिना एकान्तनुं निराकरण करवा माटे आम कहेवामां आवे छे. परंतु त्यां एम नथी के आ भेद छे तेने असत्यार्थ कह्यो छेवस्तुनुं स्वरूप नथी. जो ए प्रमाणे कोई सर्वथारूप माने तो ते अनेकान्तमां समज्यो नथी पण सर्वथा एकान्तश्रद्धानथी मिथ्याद्रष्टि ज रहे छे. अध्यात्मशास्त्रमां ज्यां निश्चय-व्यवहारनय कह्या छे त्यां पण ए बंनेना परस्पर विधिनिषेधपूर्वक सप्तभंगथी वस्तुने साधवी. जो एकने सर्वथा सत्यार्थ मानवामां आवे अने एकने सर्वथा असत्यार्थ मानवामां आवे तो त्यां मिथ्याश्रद्धान थाय छे माटे त्यां पण ‘कथंचित्’ समजवुं.

वळी अन्य वस्तुने अन्यमां आरोपण करी प्रयोजन साधवामां आवे छे तेने उपचारनय कहेवामां आवे छे अने ते पण व्यवहारनयमां गर्भित छे एम कह्युं छे. ज्यां प्रयोजन के निमित्त होय त्यां उपचार प्रवर्ते छे. जेम ‘घीनो घडो’ कहीए त्यां माटीना घडाना आश्रये घी भर्युं होय त्यां व्यवहारीजनोने आधारआधेयभाव देखाय छे तेने प्रधान करीने कहेवामां आवे छे के ‘घीनो घडो छे’. लोक पण एम ज कहेवाथी समजे अने घीनो घडो मंगावे तो तेने लावे. तेथी उपचारमां पण प्रयोजन संभवे छे. ए ज प्रमाणे अभेदनयने मुख्य करवामां आवे त्यां अभेदद्रष्टिमां भेद देखातो नथी त्यारे तेमां ज भेद कहे ते असत्यार्थ छे एटले त्यां पण उपचार सिद्ध थाय छे. आ मुख्य गौणना भेदने (रहस्यने) सम्यग्द्रष्टि जाणे छे.

मिथ्याद्रष्टि अनेकान्तवस्तुने जाणतो नथी पण सर्वथा एक धर्म उपर द्रष्टि पडतां तेने ज सर्वथारूप वस्तु मानी अन्य धर्मोने कां तो सर्वथा गौण करी असत्यार्थ माने छे अने कां तो अन्य धर्मोनो सर्वथा अभाव ज माने छेमिथ्याश्रद्धानने द्रढ करे छे. अने ते मिथ्यात्व नामनी कर्म-प्रकृतिना उदयथी यथार्थ श्रद्धा थती नथी तेथी ए प्रकृतिना कार्यने पण मिथ्यात्व ज कहेवामां आवे छे. ए प्रकृतिनो अभाव थतां तत्त्वार्थोनुं यथार्थ श्रद्धान थाय छे ते आ अनेकान्तवस्तुमां प्रमाण नयथी सातभंग द्वारा साधवामां आवे ते सम्यक्त्वनुं कार्य छे. तेथी तेने पण सम्यक्त्व ज कहेवामां आवे छे एम जाणवुं.

जैनदर्शननी कथनी अनेक प्रकारथी छे तेने अनेकान्तरूप समजवी


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अने तेनुं फळ अज्ञाननो नाश थई उपादेयनी बुद्धि तथा वीतरागतानी प्रप्ति छे. आ कथननो मर्म (रहस्य) पामवो महाभाग्यथी बने छे. आ पंचम काळमां हाल आ कथनीना वक्ता गुरुनुं निमित्त सुलभ नथी. तेथी शास्त्रने समजवानो निरंतर उद्यम राखी (शास्त्रने यथार्थ) समजवुं योग्य छे; कारण के मुख्यपणे तेना आश्रये सम्यग्दर्शननी प्रप्ति थाय छे. जोके जिनेन्द्र-प्रतिमानां दर्शन तथा प्रभावनाअंगनुं देखवुं इत्यदि सम्यक्त्वनी प्रप्तिनां कारणो छे तो पण शास्त्रश्रवण करवुं, भणवुं, तेनुं चिंतवन करवुं, धारण करवुं तथा हेतु

युक्तिपूर्वक स्वमत-परमतना भेदने (तफावतने)

जाणी, नयविवक्षा समजी, वस्तुना अनेकान्तस्वरूपनो निश्चय करवो ए मुख्य कारण छे. तेथी भव्यजीवोए तेनो (आगमना अभ्यासनो) उपाय निरंतर राखवो योग्य छे.

हवे सम्यग्द्रष्टि थतां अनंतानुबंधीकषायनो अभाव थई तेना केवा परिणाम थाय छे ते कहे छेः

जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु
उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं ।।३१३।।
यः न च कुर्वते गर्वं पुत्रकलत्रदिसर्वार्थेषु
उपशमभावान् भावयति आत्मानं मन्यते तृणमात्रम् ।।३१३।।

अर्थःजे सम्यग्द्रष्टि छे ते पुत्र-कलत्र अदि सर्व परद्रव्यो तथा परद्रव्योना भावोमां गर्व करतो नथी, (जो परद्रव्योथी पोताने मोटो माने तो तेने सम्यक्त्व शानुं?) उपशमभावोने चिंतवे छे. अनंतानुबंधी संबंधी तीव्र राग-द्वेष परिणामोना अभावथी उपशमभावोनी निरंतर भावना राखे छे तथा पोताना आत्माने तृणसमान हलको माने छे, कारण के पोतानुं स्वरूप तो अनंत ज्ञानदिरूप छे एटले ज्यां सुधी तेनी प्रप्ति न थाय त्यां सुधी ते पोताने तृण बराबर माने छे, कोई पदार्थमां गर्व करतो नथी.

विसयासत्तो वि सया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि
मोहविलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेयं ।।३१४।।

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विषयासक्तः अपि सदा सर्वारम्भेषु वर्त्तमानः अपि
मोहविलासः एषः इति सर्वं मन्यते हेयम् ।।३१४।।

अर्थःजोके अविरतसम्यग्द्रष्टि इन्द्रियविषयोमां आसक्त छे, त्रसस्थावरजीवोनो घात जेमां थाय एवा सर्व आरंभमां वर्ती रह्यो छे, तथा अप्रत्याख्यानावरणदि कषायोना तीव्र उदयोथी विरक्त थयो नथी तो पण ते एम जाणे छे के आ मोहकर्मना उदयनो विलास छे, मारा स्वभावमां ते नथी, उपधि छेरोगवत् छेतजवा योग्य छे. वर्तमान कषायोनी पीडा सहन थती नथी तेथी असमर्थ बनी आ विषयोनुं सेवन तथा घणा आरंभमां प्रवर्तवुं थाय छे एम ते माने छे.

णो इन्दियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वपि
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ।।
(गोम्मटसार जी० गा० २९)
जीवा चोद्दसभेया इंदियविसया तहठ्ठवीसं तु
जे तेसु णेव विरया असंजदा ते मुणेदव्वा ।।
(गोम्मटसार जी० गा० ४७७)

अर्थःजे इन्द्रियोना विषयोथी तथा त्रस-स्थावरजीवोनी हिंसाथी विरक्त नथी, परंतु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचननुं श्रद्धान करे छे ते अविरतसम्यग्द्रष्टि छे. संयम बे प्रकारनो छेः एक इन्द्रियसंयम तथा बीजो प्राणसंयम. इन्द्रिय विषयोथी विरक्त थवाने इन्द्रियसंयम कहे छे तथा स्वपरजीवना प्राणोनी रक्षाने प्राणसंयम कहे छे. आ (चोथा) गुणस्थानमां ए बंने संयमोमांथी कोई पण संयम होतो नथी तेथी तेने अविरतसम्यग्द्रष्टि कहे छे. हा, एटलुं खरुं के प्रयोजन विना कोई पण हिंसामां ते प्रवृत्त पण थतो नथी.

अर्थःचौद प्रकारना जीवसमासमां अने अठ्ठावीस प्रकारना इन्द्रिय -विषयोमां जे विरक्त न थवुं तेने असंयम कहे छे. (गा० ४७७). पांच रस, पांच वर्ण, बे गंध, आठ स्पर्श, सात स्वर अने एक मन ए इन्द्रियोना अठ्ठावीस विषय छे. (जुओगो० जी० गा० ४७८)


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उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो
साहम्मियअणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो ।।३१५।।
उत्तमगुणग्रहणरतः उत्तमसाधूनां विनयसंयुक्तः
साधर्मिकानुरागी स सदृष्टिः भवेत् परमः ।।३१५।।

अर्थःवळी केवो छे ते सम्यग्द्रष्टि? उत्तम गुणो जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र-तप अदिनुं ग्रहण करवामां तो अनुरागी (भावनावंत) होय छे, ए गुणो धारक उत्तम साधुजनोना विनयथी युक्त होय छे तथा पोता समान सम्यग्द्रष्टि साधर्मी जनोमां अनुरागी वात्सल्यगुण सहित होय एवो ते उत्तम सम्यग्द्रष्टि होय छे. ए त्रणे भाव न होय तो जाणवुं के तेनामां सम्यक्त्वनुं यथार्थपणुं नथी.

देहमिलियं पि जीवं णियणाणगुणेण मुणदि जो भिण्णं
जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेइ ।।३१६।।
देहमिलितं अपि जीवं निजज्ञानगुणेन जानति यः भिन्नम्
जीवमिलितं अपि देहं कञ्चुकसदृशं विजानति ।।३१६।।

अर्थआ जीव, देहनी साथे मळी रह्यो छे तो पण, पोताना ज्ञानगुण वडे पोताने देहथी जुदो ज जाणे छे. वळी देह जीवनी साथे मळी रह्यो छे तो पण, तेने (देहने) ते कंचुक एटले कपडाना जामा जेवो जाणे छे. जेम देहथी जामो जुदो छे तेम जीवथी देह जुदो छे, एम ते जाणे छे.

णिज्जियदोसं देवं सव्वजिवाणं दयावरं धम्मं
वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ।।३१७।।
निर्जितदोषं देवं सर्वजीवानां दयापरं धर्मम्
वर्जितग्रन्थं च गुरुं यः मन्यते सः स्फु टं सद्दृष्टिः ।।३१७।।
साधर्मीथी अधिक जस, परिजन उपर प्रेम;
तास न समकित मानीए, आगम नीति एम.

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अर्थःजे जीव दोषरहितने देव माने छे, सर्व जीवोनी दयाने श्रेष्ठ धर्म माने छे तथा निर्ग्रन्थगुरुने गुरु माने छे ते प्रगटपणे सम्यग्द्रष्टि छे.

भावार्थःसर्वज्ञ वीतराग अढार दोषोथी रहित देवने देव माने छे, पण अन्य दोषरहित देव छे तेने ‘आ संसारी छे, पण मोक्षमार्गी नथी’ एम जाणी वंदतोपूजतो नथी, अहिंसामय धर्मने धर्म जाणे छे. वळी देवताओने अर्थे यज्ञदिमां पशुने घात करी चढाववामां (लोको) धर्म माने छे पण तेमां पाप ज जाणी पोते तेमां प्रवर्ततो नथी तथा ग्रंथी (बाह्यअंतरंग परिग्रहनी मूर्छापकड) सहित अनेक अन्यमती वेषधारीओ छे वा काळदोषथी जैनमतमां पण वेषधारी निपज्या छे ते सर्वने वेषधारीपाखंडी जाणे पण तेने वंदेपूजे नहि, परंतु सर्वपरिग्रहरहित होय तेमने ज गुरु मानी वंदनपूजन करे; कारण के देव-गुरु-धर्मना आश्रयथी तो मिथ्या के सम्यक् उपदेश प्रवर्ते छे. ए कुदेव -कुगुरु-कुधर्मनुं वंदनपूजन तो दूर रहो तेना संसर्गमात्रथी पण श्रद्धान बगडी जाय छे माटे सम्यग्द्रष्टि तो तेओनी संगति पण करतो नथी. स्वामी समंतभद्रआचार्ये रत्नकरंडश्रावकाचारमां एम कह्युं छे केभयथी, आशाथी, स्नेहथी के लोभथी ए कुदेव, कुआगम तथा कुलिंगीवेषधारीने प्रणाम के तेमनो विनय जे सम्यग्द्रष्टि छे ते करतो नथी, तेओना संसर्गथी पण श्रद्धान बगडे छेधर्मनी प्रप्ति तो दूर ज रही एम जाणवुं.

हवे मिथ्याद्रष्टि केवो होय छे ते कहे छेः

दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइसंजुदं धम्मं
गंथासत्तं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ।।३१८।।
दोषसहितं अपि देवं जीवहिंसदिसंयुतं धर्मम्
ग्रन्थासक्तं च गुरुं यः मन्यते सः स्फु टं कुदृष्टिः ।।३१८।।
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम्
प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ।। (श्लोक ३०)

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अर्थःजे जीव दोषोसहित देवोने तो देव माने छे, जीवहिंसा सहितमां धर्म माने छे तथा परिग्रहासक्तने गुरु माने छे ते प्रगटपणे मिथ्याद्रष्टि छे.

भावार्थःभावमिथ्याद्रष्टि तो अद्रष्टछुपो मिथ्याद्रष्टि छे, परंतु जे राग-द्वेष-मोह अदि अढार दोषोसहित कुदेवोने देव मानी वंदेपूजे छे, हिंसाजीवघातदिमां धर्म माने छे तथा परिग्रहमां आसक्त एवा वेषधारीने गुरु माने छे ते तो प्रगटप्रसिद्ध मिथ्याद्रष्टि छे.

हवे कोई कहे छे के ‘‘व्यंतरदि देव लक्ष्मी आपे छेउपकार करे छे, तो तेओनुं पूजनवंदन करवुं के नहि?’ तेनो उत्तर कहे छेः

ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं
उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ।।३१९।।
न च कोऽपि ददति लक्ष्मीं न कः अपि जीवस्य करोति उपकारम्
उपकारं अपकारं कर्म अपि शुभाशुभं करोति ।।३१९।।

अर्थःआ जीवने कोई व्यंतरदि देव लक्ष्मी आपतो नथी, कोई अन्य उपकार पण करतो नथी, परंतु मात्र जीवनां पूर्वसंचित शुभाशुभ कर्मो ज उपकार के अपकार करे छे.

भावार्थःकोई एम माने छे के‘‘व्यंतरदि देव अमने लक्ष्मी आपे छेअमारो उपकार करे छे तेथी तेओनुं अमे पूजनवंदन करीए छीए,’’ पण ए ज मिथ्याबुद्धि छे. प्रथम तो आ काळमां ‘कोई व्यंतरदि आपतो होय’ एवुं प्रत्यक्ष पोते देख्युं नथीउपकार करतो देखातो नथी. जो एम होय तो तेने पूजवावाळा ज दरिद्री-दुःखीरोगी शा माटे रहे? माटे ते व्यर्थ कल्पना करे छे. वळी परोक्षरूप पण एवो नियमरूप संबंध देखातो नथी के जे पूजे तेमने अवश्य उपकारदि थाय ज छे; मात्र आ मोही जीव निरर्थक ज विकल्प उपजावे छे. पूर्वसंचित शुभाशुभकर्मो छे ते ज आ जीवने सुख, दुःख, धन, दरिद्रता, जीवन, मरण करे छे.


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भत्तीए पुज्जमाणो विंतरदेवो वि देदि जदि लच्छी
तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी ।।३२०।।
भक्त्या पूज्यमानः व्यन्तरदेवः अपि ददति यदि लक्ष्मीम्
तत् किं धर्मः क्रियते एवं चिन्तयति सद्दृष्टिः ।।३२०।।

अर्थःव्यंतरदेवने ज भक्तिपूर्वक पूजतां जो ते लक्ष्मी आपे छे तो धर्म करवानुं प्रयोजन शुं? एम सम्यग्द्रष्टि विचारे छे.

भावार्थःप्रयोजन तो लक्ष्मीनुं छे. व्यंतरदेवने ज पूजतां ते लक्ष्मी आपे छे तो धर्म शा माटे सेववो? वळी मोक्षमार्गना प्रकरणमां संसारनी लक्ष्मीनो अधिकार पण नथी अने सम्यग्द्रष्टि तो मोक्षमार्गी छेसंसारनी लक्ष्मीने हेय (छोडवा योग्य) जाणे छे, तेनी वांच्छा ज करतो नथी. जो पुण्योदयथी मळे तो भले मळो, न मळे तो न मळो! ते तो मात्र मोक्ष साधवानी ज भावना भावे छे. तेथी ते संसारीदेवदिने शा माटे पूजेवंदे? कदी पण तेमने वंदेपूजे नहि.

हवे सम्यग्द्रष्टिनो विचार कहे छेः

जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ।।३२१।।
तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि
को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणिंदो वा ।।३२२।।
यत् यस्य यस्मिन् देशे येन विधानेन यस्मिन् काले
ज्ञातं जिनेन नियतं जन्म वा अथवा मरणं वा ।।३२१।।
तत् तस्य तस्मिन् देशे तेन विधानेन तस्मिन् काले
कः शक्नोति वारयितुं इन्द्रः वा तथा जिनेन्द्रः वा ।।३२२।।

अर्थःजे जीवने जे देशमां, जे काळमां, जे विधानथी जे जन्म मरण उपलक्षणथी दुःखसुखरोगदरिद्रता अदि थवुं सर्वज्ञदेवे जाण्युं छे, ते ए ज प्रमाणे नियमथी थवानुं छे अने ते जे प्रमाणे थवा योग्य