Page 137 of 297
PDF/HTML Page 161 of 321
single page version
अर्थः — ज्ञान छे ते ज्ञेयमां जतुं नथी तथा ज्ञेय पण ज्ञानना प्रदेशोमां आवतां नथी; पोतपोताना प्रदेशोमां रहे छे, तो पण ज्ञान तथा ज्ञेयमां ज्ञेय-ज्ञायक व्यवहार छे.
भावार्थः — जेम दर्पण पोताना ठेकाणे छे अने घटदिक वस्तु पोताना ठेकाणे छे, छतां दर्पणनी स्वच्छता एवी छे के जाणे घट दर्पणमां आवीने ज बेठो होय! ए ज प्रमाणे ज्ञान-ज्ञेयनो व्यवहार जाणवो.
हवे मनःपर्यय-अवधिज्ञान तथा मति-श्रुतज्ञाननुं सामर्थ्य कहे छेः —
अर्थः — मनःपर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान ए बंने तो देशप्रत्यक्ष छे; मतिज्ञान छे ते विशद एटले प्रत्यक्ष पण छे तथा परोक्ष पण छे, तथा श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे.
भावार्थः — मनःपर्ययज्ञान – अवधिज्ञान छे ते एकदेशप्रत्यक्ष छे, कारण के जेटलो पोतानो विषय छे तेटलाने तो विशद – स्पष्ट जाणे छे; सर्वने जाणतुं नथी माटे तेने एकदेश कहीए छीए. मतिज्ञान छे ते इन्द्रिय-मनथी ऊपजे छे माटे व्यवहारथी इन्द्रियना संबंधथी तेने विशद पण कहीए छीए; ए प्रमाणे ते प्रत्यक्ष पण छे; परंतु परमार्थथी तो ते परोक्ष ज छे. तथा श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे, कारण के ते विशद – स्पष्ट जाणतुं नथी.
हवे इन्द्रियज्ञान योग्य विषयने जाणे छे एम कहे छेः —
Page 138 of 297
PDF/HTML Page 162 of 321
single page version
अर्थः — इन्द्रियोथी उत्पन्न जे मतिज्ञान छे ते पोताने योग्य विषय जे पुद्गलद्रव्य तेने जाणे छे. जे इन्द्रियनो जेवो विषय छे तेवो ज जाणे छे. मनसंबंधी ज्ञान छे ते श्रुतविषय (अर्थात् शास्त्र-वचनने सांभळे छे, तेना अर्थने जाणे छे) तथा इन्द्रियथी जाणवामां आवे तेने पण जाणे छे.
हवे इन्द्रियज्ञानना उपयोगनी प्रवृत्ति अनुक्रमथी छे एम कहे छेः —
अर्थः — पांचे इन्द्रियोथी ज्ञान थाय छे पण तेमांथी कोई एक इन्द्रियद्वारथी ज्ञान उपयुक्त (जोडावुं) थाय छे, परंतु पांचे एकसाथ -एककाळमां उपयुक्त थतां नथी. वळी मनोज्ञानथी उपयुक्त थाय त्यारे इन्द्रियज्ञान ऊपजतुं नथी.
भावार्थः — इन्द्रिय-मन संबंधी ज्ञाननी प्रवृत्ति युगपत् (एकसाथ) थती नथी पण एक काळमां एक ज ज्ञानथी उपयुक्त थाय छे. ज्यारे आ जीव घटने जाणतो होय त्यारे ते काळमां पटने जाणतो नथी. ए प्रमाणे ए ज्ञान क्रमरूप छे.
हवे, इन्द्रिय-मनसंबंधी ज्ञाननी क्रमथी प्रवृत्ति कही तो त्यां आशंका थाय छे के – इन्द्रियोनुं ज्ञान एक काळमां छे के नहि? ए आशंकाने दूर करवा कहे छेः —
Page 139 of 297
PDF/HTML Page 163 of 321
single page version
अर्थः — जीवने एक काळमां एक ज ज्ञान उपयुक्त अर्थात् उपयोगनी प्रवृत्ति थाय छे; अने लब्धिस्वभावथी एक काळमां नाना ज्ञान कह्यां छे.
भावार्थः — भावइन्द्रिय बे प्रकारनी कही छेः एक लब्धिरूप तथा बीजी उपयोगरूप. त्यां ज्ञानावरणकर्मना क्षयोपशमथी आत्मामां जाणवानी शक्ति थाय तेने लब्धि कहे छे अने ते तो पांच इन्द्रिय तथा मन द्वारा जाणवानी शक्ति एक काळमां ज रहे छे, परंतु तेमां उपयोगनी व्यक्तिरूप प्रवृत्ति छे ते ज्ञेय प्रत्ये उपयुक्त थाय छे त्यारे एक काळमां एकथी ज थाय छे. एवी ज क्षयोपशमज्ञाननी योग्यता छे.
हवे, वस्तुने अनेकात्मपणुं छे तो पण अपेक्षाथी एकात्मपणुं पण छे एम कहे छेः —
अर्थः — जे वस्तु अनेकान्त छे ते अपेक्षासहित एकान्त पण छे. त्यां श्रुतज्ञानप्रमाणथी साधवामां आवे तो वस्तु अनेकान्त ज छे तथा श्रुतज्ञानप्रमाणना अंशरूप नयथी साधवामां आवे तो वस्तु एकान्त पण छे अने ते अपेक्षारहित नथी. कारण के, निरपेक्ष नय मिथ्या छे अर्थात् निरपेक्षताथी वस्तुनुं स्वरूप जोवामां आवतुं नथी.
भावार्थः — वस्तुना सर्व धर्मोने एक काळमां साधे ते प्रमाण छे तथा तेना एक एक धर्मोने ज ग्रहण करे ते नय छे. तेथी एक नय बीजा नयनी सापेक्षता होय तो वस्तु साधी शकाय पण अपेक्षारहित
Page 140 of 297
PDF/HTML Page 164 of 321
single page version
नय वस्तुने साधतो नथी. एटला माटे अपेक्षाथी वस्तु अनेकान्त पण छे, एम जाणवुं ए ज सम्यक्ज्ञान छे.
हवे ‘श्रुतज्ञान परोक्षपणे सर्व वस्तुने प्रकाशे छे’ एम कहे छेः —
अर्थः — जे ज्ञान सर्व वस्तुने अनेकान्तस्वरूप परोक्षरूपे प्रकाशे – जाणे – कहे ते श्रुतज्ञान छे. ते श्रुतज्ञान संशय, विपरीतता अने अनध्यवसायथी रहित छे एम सिद्धान्तमां कह्युं छे.
भावार्थः — जे सर्व वस्तुने अनेकान्तरूप परोक्षरूपे प्रकाशे ते श्रुतज्ञान छे. शास्त्रनां वचन सांभळवाथी अर्थने जाणे ते परोक्ष ज जाणे छे; तथा शास्त्रमां बधीय वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्तात्मक कह्युं छे एम सर्व वस्तुने जाणे वा गुरुजनोना उपदेशपूर्वक जाणे तो संशयदिक पण रहे नहि.
हवे श्रुतज्ञानना विकल्प (भेद) छे ते नय छे. तेमनुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — वस्तुना एक धर्मनी विवक्षाथी जे लोकोना व्यवहारने साधे ते नय छे अने ते श्रुतज्ञाननो विकल्प (भेद) छे. वळी ते, लिंग (चिह्न)थी ऊपज्यो छे.
Page 141 of 297
PDF/HTML Page 165 of 321
single page version
भावार्थः — वस्तुना एक धर्मनी विवक्षा लई जे लोकव्यवहारने साधे ते श्रुतज्ञाननो अंश नय छे, अने ते साध्यधर्मने हेतुपूर्वक साधे छे. जेम वस्तुना ‘सत्’ धर्मने ग्रहण करी तेने हेतुथी साधवामां आवे के ‘पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी वस्तु सत्रूप छे’. ए प्रमाणे नय, हेतुथी उपजे छे.
हवे, एक धर्मने नय केवी रीते ग्रहण करे छे ते कहे छेः —
अर्थः — पदार्थ नाना धर्मथी युक्त छे तोपण तेने कोई एक धर्मरूप कहेवामां आवे छे, कारण के एक धर्मनी ज्यां विवक्षा करवामां आवे त्यां ते ज धर्मने कहेवामां आवे छे पण बाकीना सर्व धर्मनी विवक्षा करवामां आवती नथी.
भावार्थः — जेम जीववस्तुमां अस्तित्व, नस्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, चेतनत्व, अमूर्तत्व अदि अनेक धर्म छे; ते बधामांथी कोई एक धर्मनी विवक्षाथी कहेवामां आवे के ‘जीव चेतनस्वरूप ज छे’ इत्यदि. त्यां अन्य धर्मनी विवक्षा नथी करी पण तेथी एम न जाणवुं के अन्य धर्मोनो अभाव छे. परंतु अहीं तो प्रयोजनना आश्रयथी तेना कोई एक धर्मने मुख्य करी कहे छे – अन्यनी अहीं विवक्षा नथी (एम समजवुं).
हवे वस्तुना धर्मने, तेना वाचक शब्दने तथा तेना ज्ञानने नय कहे छेः —
Page 142 of 297
PDF/HTML Page 166 of 321
single page version
अर्थः — वस्तुनो (कोई) एक धर्म, ते धर्मनो वाचक शब्द तथा ते धर्मने जाणवावाळुं ज्ञान ए त्रणेय नयना विशेष (भेद) छे.
भावार्थः — वस्तुनुं ग्रहण करवावाळुं ज्ञान, तेनो वाचक शब्द तथा वस्तु, एने (ए त्रणेने) जेम प्रमाणस्वरूप कहेवामां आवे छे तेम नय पण कहेवामां आवे छे.
हवे वस्तुना एक ज धर्मने ग्रहण करे एवा एक नय (ज्ञान)ने मिथ्यात्व शा माटे कहेवामां आवे छे? तेनो उत्तर कहे छेः —
अर्थः — प्रथम कहेला त्रण प्रकारना नय ते जो परस्पर अपेक्षासहित होय तो ते सुनय छे; परंतु ए ज ज्यारे अपेक्षा रहित सर्वथा एक एक ग्रहण करवामां आवे त्यारे ते दुर्नय (मिथ्यानय) छे. सुनयोथी सर्व व्यवहारनी (वस्तुना स्वरूपनी) सिद्धि थाय छे.
भावार्थः — नय छे ते बधाय सापेक्ष होय तो सुनय छे अने निरपेक्ष होय तो कुनय छे. सापेक्षताथी सर्व वस्तुव्यवहारनी सिद्धि छे – सम्यक्ज्ञान स्वरूप छे तथा कुनयोथी सर्व लोकव्यवहारनो लोप थाय छे – मिथ्याज्ञानरूप छे.
हवे, परोक्षज्ञानमां अनुमानप्रमाण पण छे, तेनुं द्रष्टांतपूर्वक स्वरूप कहे छेः —
Page 143 of 297
PDF/HTML Page 167 of 321
single page version
अर्थः — इन्द्रियोना व्यापार अने कायनी चेष्टाओथी शरीरमां जीवने जे जाणे छे तेने अनुमानप्रमाण कहे छे. ते अनुमानज्ञान पण नय छे अने ते अनेक प्रकारना छे.
भावार्थः — पहेलां श्रुतज्ञानना विकल्पोने नय कह्या हता, अहीं अनुमाननुं स्वरूप कह्युं के, शरीरमां रहेलो जीव प्रत्यक्ष ग्रहणमां आवतो नथी. तेथी स्पर्शन, स्वादन, वाणी, सूंघवुं, सांभळवुं, देखवुं वगेरे (इन्द्रियोना व्यापार) तथा गमन-आगमनदि कायानी चेष्टाओथी जाणवामां आवे छे के ‘शरीरमां जीव छे’. आ अनुमानज्ञान छे, कारण के साधनथी साध्यनुं ज्ञान थाय तेने अनुमान कहे छे अने ते पण नय ज छे. तेने परोक्षप्रमाणना भेदोमां कह्युं छे पण ते परमार्थथी नय ज छे. ते अनुमान स्वार्थ-परमार्थना भेदथी तथा हेतु-चिह्नना भेदथी अनेक प्रकारनुं कह्युं छे.
हवे नयोना भेदोने कहे छेः —
अर्थः — ते नय संग्रहपणाथी अर्थात् सामान्यपणे तो एक छे. द्रव्यर्थिक अने पर्यायर्थिक भेदथी बे प्रकारना छे. तथा विशेषताथी ए बंनेना भेदोथी नैगमनय अदिथी लईने छे ते नय छे, अने ते ज्ञान ज छे.
हवे द्रव्यर्थिकनयनुं स्वरूप कहे छेः —
Page 144 of 297
PDF/HTML Page 168 of 321
single page version
अर्थः — जे नय वस्तुने तेना विशेषरूपथी अविनाभूत सामान्यस्वरूपने नाना प्रकारनी युक्तिना बळथी साधे ते द्रव्यर्थिकनय छे.
भावार्थः — वस्तुनुं स्वरूप सामान्य-विशेषात्मक छे. विशेष विना सामान्य होतुं नथी. ए प्रमाणे युक्तिना बळथी सामान्यने साधे ते द्रव्यर्थिकनय छे.
हवे पर्यायर्थिकनयनुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जे नय अनेक प्रकारे सामान्यसहित सर्व विशेषने तेना साधननुं जे लिंग (चिह्न) तेना वशथी साधे ते पर्यायर्थिकनय छे.
भावार्थः — सामान्य सहित तेना विशेषोने हेतुपूर्वक साधे ते पर्यायर्थिकनय छे. जेम सत् सामान्यपणा सहित चेतन-अचेतनपणुं तेनुं विशेष छे, चित् सामान्यपणा सहित संसारी-सिद्ध जीवपणुं तेनुं विशेष छे, संसारीपणा सामान्य सहित त्रस-स्थावर जीवपणुं तेनुं विशेष छे, इत्यदि. वळी अचेतन सामान्यपणा सहित पुद्गलदि पांच द्रव्य तेनां विशेष छे तथा पुद्गल सामान्यपणा सहित अणु -स्कंध-घट-पट अदि तेनां विशेष छे. इत्यदि पर्यायर्थिकनय हेतुपूर्वक साधवामां आवे छे.
हवे द्रव्यर्थिकनयना भेदो कहे छे; त्यां पहेलां नैगमनय कहे छेः —
Page 145 of 297
PDF/HTML Page 169 of 321
single page version
अर्थः — जे नय भूत, भविष्य तथा वर्तमानरूप विकल्पथी संकल्पमात्र (पदार्थने) साधे ते नैगमनय छे.
भावार्थः — त्रण काळना पर्यायोमां अन्वयरूप छे ते द्रव्य छे. तेने पोताना विषयथी भूतकाळनी पर्यायने पण वर्तमानवत् संकल्पमां ले, भविकाळनी पर्यायने पण वर्तमानवत् संकल्पमां ले तथा वर्तमानकाळनी पर्यायने ते किंचित् निष्पन्न१ होय वा अनिष्पन्न२ होय तो पण निष्पन्नरूप संकल्पमां ले एवा ज्ञान तथा वचनने नैगमनय कहे छे. तेना अनेक भेद छे. सर्व नयना विषयने मुख्यता-गौणताथी पोताना संकल्परूपे विषय करे छे. जेम के – मनुष्य नामना जीवद्रव्यने संसारपर्याय छे, सिद्धपर्याय छे तथा आ मनुष्यपर्याय छे एम कहे तो त्यां संसारपर्याय तो अतीत-अनागत-वर्तमान त्रण काळ संबंधी पण छे, सिद्धपणुं अनागत ज छे तथा मनुष्यपणुं वर्तमान ज छे, छतां आ नयना वचनथी अभिप्रायमां वर्तमान-विद्यमानवत् संकल्पथी परोक्षरूप अनुभवमां लईने कहे के ‘आ द्रव्यमां, मारा ज्ञानमां, हाल आ पर्याय भासे छे’ एवा संकल्पने नैगमनयनो विषय कहे छे. एमांथी कोईने मुख्य तथा कोईने गौणरूप कहे छे.
हवे संग्रहनय कहे छेः —
१ निष्पन्न = प्राप्त वा प्रगट. २ अनिष्पन्न = अप्राप्त वा अप्रगट.
Page 146 of 297
PDF/HTML Page 170 of 321
single page version
अर्थः — जे नय सर्व वस्तुने वा तेना देशने अर्थात् एक वस्तुना सर्व भेदोने अनेक प्रकार द्रव्य-पर्यायसहित अन्वयलिंग-विशिष्ट संग्रह करे – एकरूप कहे ते संग्रहनय छे.
भावार्थः — सर्व वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षण सत्थी — द्रव्य – पर्यायोथी अन्वयरूप ‘एक सत्मात्र छे’ एम कहे, वा सामान्य सत्स्वरूप द्रव्यमात्र छे वा विशेष सत्रूप पर्यायमात्र छे, वा जीववस्तु चित्सामान्यथी एक छे वा सिद्धत्वसामान्यथी सर्व सिद्धो एक छे, वा संसारीत्वसामान्यथी सर्व संसारीजीव एक छे, इत्यदि. तथा अजीवसामान्यथी पुद्गलदि पांचे द्रव्य एक अजीवद्रव्य छे वा पुद्गलत्वसामान्यथी अणु – स्कंध – घट – पटदि एक पुद्गलद्रव्य छे, इत्यदि संग्रहरूप कहे ते संग्रहनय छे.
आगळ व्यवहारनय कहे छेः —
अर्थः — संग्रहनय द्वारा वस्तुने विशेषरहित ग्रहण करी हती तेने परमाणु पर्यंत निरंतर जे नय भेदे ते व्यवहारनय छे.
भावार्थः — संग्रहनये सर्वने सत् कह्युं, त्यां व्यवहारनय भेद करे छे के – द्रव्यसत् छे, पर्यायसत् छे. संग्रहनय द्रव्यसामान्यने ग्रहे छे त्यां व्यवहारनय भेद करे छे के द्रव्य जीव-अजीव बे भेदरूप छे. संग्रहनय जीवसामान्यने ग्रहे छे त्यां व्यवहारनय भेद करे छे के – जीव संसारी ने सिद्ध बे भेदरूप छे; इत्यदि. वळी संग्रहनय पर्यायसामान्यने संग्रहण करे छे, त्यां व्यवहारनय भेद करे छे के पर्याय अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्यायरूप बे भेदथी छे. ए ज प्रमाणे संग्रहनय अजीवसामान्यने ग्रहण करे छे, त्यां व्यवहारनय भेद करी अजीव एवां पुद्गलदि पांचे
Page 147 of 297
PDF/HTML Page 171 of 321
single page version
द्रव्यो भेदरूप छे. संग्रहनय पुद्गलसामान्यने ग्रहण करे छे, त्यां व्यवहारनय अणु-स्कंध-घट-पटदि भेदरूप कहे छे. ए प्रमाणे जेने संग्रहनय ग्रहण करे तेमां व्यवहारनय भेद करतो जाय छे अने ते त्यां सुधी के फरी बीजो भेद थई शके नहि, त्यां सुधी संग्रह – व्यवहारनयनो विषय छे. ए प्रमाणे द्रव्यर्थिकनयना त्रण भेद कह्या.
हवे पर्यायर्थिकनयना भेद कहे छे. त्यां प्रथम ॠजुसूत्रनय कहे छेः —
अर्थः — वर्तमानकाळमां अर्थपर्यायरूप परिणमेला अर्थने सर्वने सत्रूप साधे (ग्रहण करे) ते ॠजुसूत्रनय छे.
भावार्थः — वस्तु समये समये परिणमे छे. वर्तमान एक समयनी पर्यायने अर्थपर्याय कहे छे अने ते ॠजुसूत्रनयनो विषय छे; ते वस्तुने पर्यायमात्र ज कहे छे. वळी घडी, मुहूर्त अदि काळने पण व्यवहारमां वर्तमान कहीए छीए. ते वर्तमानकाळस्थायी पर्यायने पण ॠजुसूत्रनय साधे छे तेथी तेनी स्थूल ॠजुसूत्र संज्ञा छे. ए प्रमाणे प्रथम कहेला द्रव्यर्थिक त्रण नय अने एक आ ॠजुसूत्रनय मळी चारे नयोने अर्थनय कहेवामां आवे छे.
हवे त्रण प्रकारना शब्दनयो कहे छे. त्यां पहेलां शब्दनय कहे छेः —
Page 148 of 297
PDF/HTML Page 172 of 321
single page version
अर्थः — जे नय सर्व वस्तुओना, संख्या-लिंग अदि घणा प्रकारे, नानापणाने साधे तेने शब्दनय जाणो.
भावार्थः — संख्या — एकवचन-द्विवचन-बहुवचन, लिंग – स्त्री -पुरुष-नपुंसकदर्शक वचन, अदि शब्दथी काळ, कारक, पुरुष, उपसर्ग लेवो. ए वडे व्याकरणना प्रयोजित पदार्थने भेदरूपथी कहे ते शब्दनय छे. जेम के — पुष्य-तारका-नक्षत्ररूप एक ज्योतिषीना विमानना त्रणे लिंग कहे, त्यां व्यवहारमां तो विरोध जणाय छे, कारण के ए ज पुरुष, ए ज स्त्री – नपुंसक शी रीते होय? तो पण शब्दनयनो आ ज विषय छे के जेवो शब्द कहे तेवो ज अर्थने भेदरूप मानवो.
हवे समभिरूढनयने कहे छेः —
अर्थः — जे नय वस्तुने परिणामना भेदथी एक एक जुदा जुदा भेदरूप साधे अथवा तेमांना मुख्य अर्थने ग्रहण करी साधे तेने समभिरूढनय जाणवो.
भावार्थः — शब्दनय वस्तुना पर्यायनामथी भेद करतो नथी, त्यारे आ समभिरूढनय छे ते एक वस्तुनां पर्यायनाम छे तेने भेदरूप जुदा जुदा पदार्थपणे ग्रहण करे छे; त्यां जेने मुख्य करी पकडे तेने सदा तेवो ज कहे छे. जेम – ‘गौ’ शब्दना घणा अर्थ छे तथा ‘गौ’ पदार्थना घणां नाम छे तेने आ नय जुदा जुदा पदार्थ माने छे. तेमांथी मुख्यपणे ‘गौ’ पदार्थ पकड्यो तेने चालतां-बेसतां-सूतां ‘गौ’ ज कह्या करे छे ते समभिरूढनय छे.
हवे एवंभूतनय कहे छेः —
Page 149 of 297
PDF/HTML Page 173 of 321
single page version
अर्थः — वस्तु जे काळे जे स्वभावे परिणमनरूप होय छे ते काळे ते परिणामथी तन्मय होय छे; तेथी ते ज परिणामरूप (वस्तुने) साधे – कहे ते एवंभूतनय छे. आ नय परमार्थरूप छे.
भावार्थः — जे धर्मनी मुख्यताथी वस्तुनुं जे नाम होय ते ज अर्थना परिणमनरूप जे काळे (वस्तु) परिणमे तेने ते ज नामथी कहे ते एवंभूतनय छे, तेने निश्चय (नय) पण कहेवामां आवे छे. जेम ‘गौ’ने चाले त्यारे ज गाय कहे पण अन्य काळे न कहे.
हवे नयोना कथनने संकोचे छेः —
अर्थः — जे पुरुष आ प्रमाणे नयोथी वस्तुने व्यवहाररूप कहे छे – साधे छे – प्रवर्तावे छे ते पुरुष दर्शन-ज्ञान-चरित्रने साधे छे तथा स्वर्ग-मोक्षने साधे छे.
भावार्थः — प्रमाण-नयथी वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ सधाय छे. जे पुरुष प्रमाण-नयोनुं स्वरूप जाणी वस्तुने यथार्थ व्यवहाररूप प्रवर्तावे छे तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्रनी तथा तेना फळरूप स्वर्ग-मोक्षनी सिद्धि थाय छे.
हवे कहे छे के तत्त्वार्थनुं श्रवण, ज्ञान, धारण अने भावना करवावाळा विरला छेः —
Page 150 of 297
PDF/HTML Page 174 of 321
single page version
अर्थः — जगतमां तत्त्वने कोई विरला पुरुष सांभळे छे, सांभळीने पण तत्त्वने यथार्थरूपे विरला ज जाणे छे, जाणीने पण तत्त्वनी भावना अर्थात् पुनः पुनः अभ्यास विरला ज करे छे तथा अभ्यास करीने पण तत्त्वनी धारणा तो विरलाओने ज होय छे.
भावार्थः — तत्त्वार्थनुं यथार्थ स्वरूप सांभळवुं, जाणवुं, भाववुं अने धारवुं उत्तरोत्तर दुर्लभ छे. आ पंचम काळमां तत्त्वना यथार्थ वक्ता दुर्लभ छे तथा तेने धारण करवावाळा पण दुर्लभ छे.
हवे कहे छे के उपर कहेला तत्त्वने सांभळी तेने निश्चलभावथी जे भावे छे ते तत्त्वने जाणे छेः —
अर्थः — जे पुरुष गुरुजनो द्वारा कहेलुं जे तत्त्वनुं स्वरूप तेने निश्चलभावथी ग्रहण करे छे – तेने अन्य भावना छोडी निरंतर भावे छे ते पुरुष तत्त्वने जाणे छे.
हवे कहे छे के तत्त्वनी भावना नथी करतो एवो क्यो पुरुष छे के जे स्त्री अदिने वश नथी? अर्थात् सर्व लोक छेः —
Page 151 of 297
PDF/HTML Page 175 of 321
single page version
अर्थः — आ लोकमां स्त्रीजनने वश कोण नथी? कामथी जेनुं अंतःकरण खंडित नथी थयुं एवो कोण छे? इन्द्रियोथी जे नथी जिताई गयो एवो कोण छे? तथा कषायोथी जे नथी तप्तायमान थयो एवो कोण छे?
भावार्थः — विषय-कषायने वश सर्व लोक छे पण तत्त्वनी भावना करवावाळा कोई विरला छे.
हवे कहे छे के – जे तत्त्वज्ञानी सर्व परिग्रहनो त्यागी थाय छे ते स्त्री अदिने वश थतो नथीः —
अर्थः — जे पुरुष तत्त्वनुं स्वरूप जाणी बाह्य-अभ्यंतर सर्व परिग्रहने ग्रहण करतो नथी ते पुरुष स्त्रीजनने वश थतो नथी, ते ज पुरुष इन्द्रियोथी जिताई जतो नथी तथा ते ज पुरुष मोहकर्म जे मिथ्यात्वकर्म तेनाथी जितातो नथी.
भावार्थः — संसारनुं बंधन परिग्रह छे. जे सर्व परिग्रहने छोडे ते ज स्त्री-इन्द्रिय-कषायदिने वशीभूत थतो नथी. सर्वत्यागी थई शरीरनुं पण ममत्व न राखे तो ते निजस्वरूपमां ज लीन थाय छे.
हवे लोकानुप्रेक्षाना चिंतवननुं माहात्म्य प्रगट करे छेः —
Page 152 of 297
PDF/HTML Page 176 of 321
single page version
अर्थः — जे पुरुष उपशम करी एक स्वभावरूप थयो थको आ प्रमाणे लोकस्वरूपने ध्यावे छे – चिंतवन करे छे ते पुरुष क्षपित – नाश कर्यो छे. कर्मपुंज जेणे एवो, ए लोकनो ज शिखामणि (चूडामणि) थाय छे.
भावार्थः — ए प्रमाणे (जे पुरुष) साम्यभाव करी लोकानुप्रेक्षानुं चिंतवन करे छे ते पुरुष कर्मनो नाश करी लोकना शिखरे जई विराजमान थाय छे. अने त्यां अनंत, अनुपम, बाधारहित, स्वाधीन, ज्ञानानंदस्वरूप सुखने अनुभवे छे. अहीं लोकभावनानुं कथन विस्तारपूर्वक करवानो आशय एवो छे के अन्यमती लोकनुं स्वरूप, जीवनुं स्वरूप तथा हितहितनुं स्वरूप अनेक प्रकारथी अन्यथा, असत्यार्थ अने प्रमाणविरुद्ध कहे छे. तेने सांभळी कोई जीव तो विपरीत श्रद्धान करे छे, कोई संशयरूप थाय छे तथा कोई अनध्यवसायरूप थाय छे. अने एवा विपरीतदि श्रद्धानथी चित्त स्थिरता पामतुं नथी, चित्त स्थिर थया विना यथार्थ ध्याननी सिद्धि थती नथी अने ध्यान विना कर्मोनो नाश थतो नथी. तेथी ए विपरीतदि श्रद्धान दूर थवा माटे लोकनुं अने जीवदि पदार्थोनुं यथार्थ स्वरूप जाणवा अर्थे अहीं विस्तारपूर्वक कथन कर्युं छे. तेने जाणी जीवदिनुं स्वरूप ओळखी पोताना स्वरूपमां चित्तने निश्चल स्थिर करी, कर्मकलंक नाश करी, भव्यजीव मोक्षने प्राप्त थाओ! एवो श्रीगुरुओनो उपदेश छे.
रागविरोध विडारीने, आतमरूप संभाळ.
आतमरूप संभाळ, मोक्षपुर वसो सदाही;
अधिव्यधिजरमरण, अदि दुःख ह्वै न कदा ही.
श्रीगुरु शिक्षा धारी, टाळी अभिमान कुशोक;
मनस्थिर कारण आ विचार, ‘निजरूप सुलोक’.
Page 153 of 297
PDF/HTML Page 177 of 321
single page version
अर्थः — आ जीव, संसारमां अनदिकाळथी मांडी अनंतकाळ तो निगोदमां रहे छे अने त्यांथी नीकळी पृथ्वीकायदि पर्यायने धारण करे छे. अनदिथी अनंतकाळ सुधी नित्यनिगोदमां जीवनो वास छे. त्यां एक शरीरमां अनंतानंत जीवोना आहार, श्वासोश्वास, जीवन-मरण समान छे. एक श्वासना अढारमा भाग जेटलुं आयुष्य छे. त्यांथी नीकळी कदचित् पृथ्वी-अप-तेज-वायुकायपर्याय पामे छे. ए पर्यायो पामवी दुर्लभ छे.
हवे कहे छे के – त्यांथी नीकळी त्रसपर्याय पामवी दुर्लभ छेः —
अर्थः — त्यां पृथ्वीकाय अदि सूक्ष्म तथा बादरकायोमां असंख्यात काळ भ्रमण करे छे. त्यांथी नीकळी त्रसपणुं पामवुं घणा कष्टे पण दुर्लभ छे; जेम चिंतामणि पामवो दुर्लभ छे तेम.
१ ‘आउ परिहीणो’ एवो पण पाठ छे तेनो एवो अर्थ छे के आयुथी परिहीन श्वासना अढारमा भागे जेनुं आयु छे.
Page 154 of 297
PDF/HTML Page 178 of 321
single page version
भावार्थः — पृथ्वी अदि स्थावरकायथी नीकळी चिंतामणिरत्ननी माफक त्रसपर्याय पामवी दुर्लभ छे.
हवे कहे छे के – त्रसपणुं पण पामे तो त्यां पंचेन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छेः —
अर्थः — स्थावरमांथी नीकळी त्रस थाय त्यां पण बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रियरूप विकलत्रयपणाने पामे. त्यां (उत्कृष्ट) करोडो पूर्व रहे छे. त्यांथी नीकळी महाकष्टेथी पंचेन्द्रियपणुं पामे छे.
भावार्थः — विकलत्रयमांथी नीकळी पंचेन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे. जो विकलत्रयमांथी फरी स्थावरकायमां जई उत्पन्न थाय तो त्यां फरी घणो काळ भोगवे; एटला माटे पंचेन्द्रियपणुं पामवुं अतिशय दुर्लभ छे.
अर्थः — विकलत्रयमांथी नीकळी पंचेन्द्रिय कदी थाय तो असंज्ञी – मनरहित थाय छे. त्यां स्व तथा परनो भेद जाणतो नथी. कदचित् मनसहित संज्ञी पण थाय तो रुद्र तिर्यंच थाय छे अर्थात् बिल्ली, घुवड, सर्प, सिंह अने मच्छदि क्रूर तिर्यंच थाय छे.
भावार्थः — कदचित् पंचेन्द्रिय थाय तो असंज्ञी थाय छे पण
Page 155 of 297
PDF/HTML Page 179 of 321
single page version
संज्ञीपणुं दुर्लभ छे. वळी संज्ञी पण थाय तो त्यां क्रूर तिर्यंच थाय के जेना परिणाम निरंतर पापरूप ज रहे छे.
हवे क्रूर परिणामीओनो नरकवास थाय छे एम कहे छेः —
अर्थः — क्रूर तिर्यंच थाय तो ते तीव्र अशुभपरिणामथी अशुभ लेश्या सहित मरी नरकमां पडे छे. केवुं छे नरक? महा दुःखदायक अने भयानक छे. त्यां शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी प्रचुर (घणां तीव्र – आकरां) दुःख भोगवे छे.
हवे कहे छे के – ए नरकमांथी नीकळी तिर्यंच थाय तो त्यां पण दुःख सहे छेः —
अर्थः — ए नरकमांथी नीकळी फरी तिर्यंचगतिमां ऊपजे छे; त्यां पण जेम पापरूप थाय तेम आ जीव अनेक प्रकारनां अनंत दुःख विशेषता पूर्वक सहे छे.
हवे कहे छे के – मनुष्यपणुं पामवुं महादुर्लभ छे. त्यां पण मिथ्याद्रष्टि बनी पाप उपजावे छेः —
Page 156 of 297
PDF/HTML Page 180 of 321
single page version
अर्थः — तिर्यंचमांथी नीकळी मनुष्यगति पामवी अति दुर्लभ छे. जेम चार पंथ वच्चे रत्न पडी गयुं होय तो ते महाभाग्य होय तो ज हाथमां आवे छे तेम (मानवपणुं) दुर्लभ छे. वळी आवो दुर्लभ मनुष्यदेह पामीने पण जीव मिथ्याद्रष्टि बनी पाप उपजावे छे.
भावार्थः — मनुष्य पण कदचित् थाय तो त्यां म्लेच्छखंड अदिमां वा मिथ्याद्रष्टिओनी संगतिमां ऊपजी पाप ज उपजावे छे.
हवे कहे छे के – मनुष्य पण थाय अने ते आर्यखंडमां पण ऊपजे तोपण त्यां उत्तम कुळदि पामवां अति दुर्लभ छेः —
अर्थः — मनुष्यपर्याय पामी कदचित् आर्यखंडमां पण जन्म पामे तो त्यां उच्च कुळ पामवुं दुर्लभ छे. कदचित् उच्च कुळमां पण जन्म पामे तो त्यां धनहीन दरिद्री थाय अने तेनाथी कांई सुकृत्य नहि बनतां पापमां ज लीन रहे छे.
अर्थः — वळी जो धनवानपणुं पण पामे तो त्यां इन्द्रियोनी परिपूर्णता पामवी अति दुर्लभ छे. कदचित् इन्द्रियोनी संपूर्णता पण पामे तो त्यां रोगसहित देह पामे, पण नीरोग होवुं दुर्लभ छे.