Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 257-292 ; 11. Bodhidurlabhanupreksha.

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अर्थःज्ञान छे ते ज्ञेयमां जतुं नथी तथा ज्ञेय पण ज्ञानना प्रदेशोमां आवतां नथी; पोतपोताना प्रदेशोमां रहे छे, तो पण ज्ञान तथा ज्ञेयमां ज्ञेय-ज्ञायक व्यवहार छे.

भावार्थःजेम दर्पण पोताना ठेकाणे छे अने घटदिक वस्तु पोताना ठेकाणे छे, छतां दर्पणनी स्वच्छता एवी छे के जाणे घट दर्पणमां आवीने ज बेठो होय! ए ज प्रमाणे ज्ञान-ज्ञेयनो व्यवहार जाणवो.

हवे मनःपर्यय-अवधिज्ञान तथा मति-श्रुतज्ञाननुं सामर्थ्य कहे छेः

मणपज्जयविण्णाणं ओहीणाणं च देसपच्चक्खं
मइसुयाणाणं कमसो विसदपरोक्खं परोक्खं च ।।२५७।।
मनःपर्ययविज्ञानं अवधिज्ञानं च देशप्रत्यक्षम्
मतिश्रुतज्ञानं क्रमशः विशदपरोक्षं परोक्षं च ।।२५७।।

अर्थःमनःपर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान ए बंने तो देशप्रत्यक्ष छे; मतिज्ञान छे ते विशद एटले प्रत्यक्ष पण छे तथा परोक्ष पण छे, तथा श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे.

भावार्थःमनःपर्ययज्ञानअवधिज्ञान छे ते एकदेशप्रत्यक्ष छे, कारण के जेटलो पोतानो विषय छे तेटलाने तो विशदस्पष्ट जाणे छे; सर्वने जाणतुं नथी माटे तेने एकदेश कहीए छीए. मतिज्ञान छे ते इन्द्रिय-मनथी ऊपजे छे माटे व्यवहारथी इन्द्रियना संबंधथी तेने विशद पण कहीए छीए; ए प्रमाणे ते प्रत्यक्ष पण छे; परंतु परमार्थथी तो ते परोक्ष ज छे. तथा श्रुतज्ञान छे ते परोक्ष ज छे, कारण के ते विशदस्पष्ट जाणतुं नथी.

हवे इन्द्रियज्ञान योग्य विषयने जाणे छे एम कहे छेः

इंदियजं मदिणाणं जोग्गं जाणेदि पुग्गलं दव्वं
माणसणाणं च पुणो सुयविसयं अक्खविसयं च ।।२५८।।

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इन्द्रियजं मतिज्ञानं योग्यं जानति पुद्गलं द्रव्यं
मानसज्ञानं च पुनः श्रुतविषयं अक्षविषयं च ।।२५८।।

अर्थःइन्द्रियोथी उत्पन्न जे मतिज्ञान छे ते पोताने योग्य विषय जे पुद्गलद्रव्य तेने जाणे छे. जे इन्द्रियनो जेवो विषय छे तेवो ज जाणे छे. मनसंबंधी ज्ञान छे ते श्रुतविषय (अर्थात् शास्त्र-वचनने सांभळे छे, तेना अर्थने जाणे छे) तथा इन्द्रियथी जाणवामां आवे तेने पण जाणे छे.

हवे इन्द्रियज्ञानना उपयोगनी प्रवृत्ति अनुक्रमथी छे एम कहे छेः

पंचेंदियणाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुत्तं
मणणाणे उवजुत्ते इंदियणाण ण जाएदि ।।२५९।।
पञ्चेन्द्रियज्ञानानां मध्ये एकं च भवति उपयुक्तम्
मनोज्ञाने उपयुक्ते इन्द्रियज्ञानं न जायते ।।२५९।।

अर्थःपांचे इन्द्रियोथी ज्ञान थाय छे पण तेमांथी कोई एक इन्द्रियद्वारथी ज्ञान उपयुक्त (जोडावुं) थाय छे, परंतु पांचे एकसाथ -एककाळमां उपयुक्त थतां नथी. वळी मनोज्ञानथी उपयुक्त थाय त्यारे इन्द्रियज्ञान ऊपजतुं नथी.

भावार्थःइन्द्रिय-मन संबंधी ज्ञाननी प्रवृत्ति युगपत् (एकसाथ) थती नथी पण एक काळमां एक ज ज्ञानथी उपयुक्त थाय छे. ज्यारे आ जीव घटने जाणतो होय त्यारे ते काळमां पटने जाणतो नथी. ए प्रमाणे ए ज्ञान क्रमरूप छे.

हवे, इन्द्रिय-मनसंबंधी ज्ञाननी क्रमथी प्रवृत्ति कही तो त्यां आशंका थाय छे केइन्द्रियोनुं ज्ञान एक काळमां छे के नहि? ए आशंकाने दूर करवा कहे छेः

एक्के काले एगं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं
णाणाणाणणि पुणो लद्धिसहावेण वुच्चंति ।।२६०।।

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एकस्मिन् काले एकं ज्ञानं जीवस्य भवति उपयुक्तम्
नानाज्ञाननि पुनः लब्धिस्वभावेन उच्यन्ते ।।२६०।।

अर्थःजीवने एक काळमां एक ज ज्ञान उपयुक्त अर्थात् उपयोगनी प्रवृत्ति थाय छे; अने लब्धिस्वभावथी एक काळमां नाना ज्ञान कह्यां छे.

भावार्थःभावइन्द्रिय बे प्रकारनी कही छेः एक लब्धिरूप तथा बीजी उपयोगरूप. त्यां ज्ञानावरणकर्मना क्षयोपशमथी आत्मामां जाणवानी शक्ति थाय तेने लब्धि कहे छे अने ते तो पांच इन्द्रिय तथा मन द्वारा जाणवानी शक्ति एक काळमां ज रहे छे, परंतु तेमां उपयोगनी व्यक्तिरूप प्रवृत्ति छे ते ज्ञेय प्रत्ये उपयुक्त थाय छे त्यारे एक काळमां एकथी ज थाय छे. एवी ज क्षयोपशमज्ञाननी योग्यता छे.

हवे, वस्तुने अनेकात्मपणुं छे तो पण अपेक्षाथी एकात्मपणुं पण छे एम कहे छेः

जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं
सुयणाणेण णएहिं य णिरवेक्खं दीसदे णेव ।।२६१।।
यत् वस्तु अनेकान्तं एकान्तं तदपि भवति सव्यपेक्षम्
श्रुतज्ञानेन नयैः च निरपेक्षं दृश्यते नैव ।।२६१।।

अर्थःजे वस्तु अनेकान्त छे ते अपेक्षासहित एकान्त पण छे. त्यां श्रुतज्ञानप्रमाणथी साधवामां आवे तो वस्तु अनेकान्त ज छे तथा श्रुतज्ञानप्रमाणना अंशरूप नयथी साधवामां आवे तो वस्तु एकान्त पण छे अने ते अपेक्षारहित नथी. कारण के, निरपेक्ष नय मिथ्या छे अर्थात् निरपेक्षताथी वस्तुनुं स्वरूप जोवामां आवतुं नथी.

भावार्थःवस्तुना सर्व धर्मोने एक काळमां साधे ते प्रमाण छे तथा तेना एक एक धर्मोने ज ग्रहण करे ते नय छे. तेथी एक नय बीजा नयनी सापेक्षता होय तो वस्तु साधी शकाय पण अपेक्षारहित


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नय वस्तुने साधतो नथी. एटला माटे अपेक्षाथी वस्तु अनेकान्त पण छे, एम जाणवुं ए ज सम्यक्ज्ञान छे.

हवे ‘श्रुतज्ञान परोक्षपणे सर्व वस्तुने प्रकाशे छे’ एम कहे छेः

सव्वं पि अणेयंतं परोक्खरूवेण जं पयासेदि
तं सुयणाणं भण्णदि संसयपहुदीहिं परिचत्तं ।।२६२।।
सर्वं अपि अनेकान्तं परोक्षरूपेण यत् प्रकाशयति
तत् श्रुतज्ञानं भण्यते संशयप्रभृतिभिः परित्यक्तम् ।।२६२।।

अर्थःजे ज्ञान सर्व वस्तुने अनेकान्तस्वरूप परोक्षरूपे प्रकाशे जाणेकहे ते श्रुतज्ञान छे. ते श्रुतज्ञान संशय, विपरीतता अने अनध्यवसायथी रहित छे एम सिद्धान्तमां कह्युं छे.

भावार्थःजे सर्व वस्तुने अनेकान्तरूप परोक्षरूपे प्रकाशे ते श्रुतज्ञान छे. शास्त्रनां वचन सांभळवाथी अर्थने जाणे ते परोक्ष ज जाणे छे; तथा शास्त्रमां बधीय वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्तात्मक कह्युं छे एम सर्व वस्तुने जाणे वा गुरुजनोना उपदेशपूर्वक जाणे तो संशयदिक पण रहे नहि.

हवे श्रुतज्ञानना विकल्प (भेद) छे ते नय छे. तेमनुं स्वरूप कहे छेः

लोयाणं ववहारं धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि
सुयणाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंगसंभूदो ।।२६३।।
लोकानां व्यवहारं धमरविवक्षया यः प्रसाधयति
श्रुतज्ञानस्य विकल्पः सः अपि नयः लिङ्गसम्भूतः ।।२६३।।

अर्थःवस्तुना एक धर्मनी विवक्षाथी जे लोकोना व्यवहारने साधे ते नय छे अने ते श्रुतज्ञाननो विकल्प (भेद) छे. वळी ते, लिंग (चिह्न)थी ऊपज्यो छे.


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भावार्थःवस्तुना एक धर्मनी विवक्षा लई जे लोकव्यवहारने साधे ते श्रुतज्ञाननो अंश नय छे, अने ते साध्यधर्मने हेतुपूर्वक साधे छे. जेम वस्तुना ‘सत्’ धर्मने ग्रहण करी तेने हेतुथी साधवामां आवे के ‘पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावथी वस्तु सत्रूप छे’. ए प्रमाणे नय, हेतुथी उपजे छे.

हवे, एक धर्मने नय केवी रीते ग्रहण करे छे ते कहे छेः

णाणाधम्मजुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं
तस्सेयविवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ।।२६४।।
नानाधर्मयुतः अपि च एकं धर्मं अपि उच्यते अर्थः
तस्यैकविवक्षातः नस्ति विवक्षा स्फु टं शेषाणाम् ।।२६४।।

अर्थःपदार्थ नाना धर्मथी युक्त छे तोपण तेने कोई एक धर्मरूप कहेवामां आवे छे, कारण के एक धर्मनी ज्यां विवक्षा करवामां आवे त्यां ते ज धर्मने कहेवामां आवे छे पण बाकीना सर्व धर्मनी विवक्षा करवामां आवती नथी.

भावार्थःजेम जीववस्तुमां अस्तित्व, नस्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, चेतनत्व, अमूर्तत्व अदि अनेक धर्म छे; ते बधामांथी कोई एक धर्मनी विवक्षाथी कहेवामां आवे के ‘जीव चेतनस्वरूप ज छे’ इत्यदि. त्यां अन्य धर्मनी विवक्षा नथी करी पण तेथी एम न जाणवुं के अन्य धर्मोनो अभाव छे. परंतु अहीं तो प्रयोजनना आश्रयथी तेना कोई एक धर्मने मुख्य करी कहे छेअन्यनी अहीं विवक्षा नथी (एम समजवुं).

हवे वस्तुना धर्मने, तेना वाचक शब्दने तथा तेना ज्ञानने नय कहे छेः

सो चिय एक्को धम्मो वाचयसद्दो वि तस्स धम्मस्स
तं जाणदि तं णाणं ते तिण्णि वि णयविसेसा य ।।२६५।।

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सः एव एकः धर्मः वाचकशब्दः अपि तस्य धर्मस्य
तम् जानति तत् ज्ञानं ते त्रयो अपि नयविशेषाः च ।।२६५।।

अर्थःवस्तुनो (कोई) एक धर्म, ते धर्मनो वाचक शब्द तथा ते धर्मने जाणवावाळुं ज्ञान ए त्रणेय नयना विशेष (भेद) छे.

भावार्थःवस्तुनुं ग्रहण करवावाळुं ज्ञान, तेनो वाचक शब्द तथा वस्तु, एने (ए त्रणेने) जेम प्रमाणस्वरूप कहेवामां आवे छे तेम नय पण कहेवामां आवे छे.

हवे वस्तुना एक ज धर्मने ग्रहण करे एवा एक नय (ज्ञान)ने मिथ्यात्व शा माटे कहेवामां आवे छे? तेनो उत्तर कहे छेः

ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति
सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण ।।२६६।।
ते सापेक्षाः सुनयाः निरपेक्षाः ते अपि दुर्णयाः भवन्ति
सकलव्यवहारसिद्धिः सुनयात् भवति नियमेन ।।२६६।।

अर्थःप्रथम कहेला त्रण प्रकारना नय ते जो परस्पर अपेक्षासहित होय तो ते सुनय छे; परंतु ए ज ज्यारे अपेक्षा रहित सर्वथा एक एक ग्रहण करवामां आवे त्यारे ते दुर्नय (मिथ्यानय) छे. सुनयोथी सर्व व्यवहारनी (वस्तुना स्वरूपनी) सिद्धि थाय छे.

भावार्थःनय छे ते बधाय सापेक्ष होय तो सुनय छे अने निरपेक्ष होय तो कुनय छे. सापेक्षताथी सर्व वस्तुव्यवहारनी सिद्धि छे सम्यक्ज्ञान स्वरूप छे तथा कुनयोथी सर्व लोकव्यवहारनो लोप थाय छे मिथ्याज्ञानरूप छे.

हवे, परोक्षज्ञानमां अनुमानप्रमाण पण छे, तेनुं द्रष्टांतपूर्वक स्वरूप कहे छेः

जं जणिज्जइ जीवो इंदियवावारकायचिट्ठहिं
तं अणुमाणं भण्णदि तं पि णयं बहुविहं जाण ।।२६७।।

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यत् जानति जीवः इन्द्रियव्यापारकायचेष्टभिः
तत् अनुमानं भण्यते तमपि नयं बहुविधं जानीहि ।।२६७।।

अर्थःइन्द्रियोना व्यापार अने कायनी चेष्टाओथी शरीरमां जीवने जे जाणे छे तेने अनुमानप्रमाण कहे छे. ते अनुमानज्ञान पण नय छे अने ते अनेक प्रकारना छे.

भावार्थःपहेलां श्रुतज्ञानना विकल्पोने नय कह्या हता, अहीं अनुमाननुं स्वरूप कह्युं के, शरीरमां रहेलो जीव प्रत्यक्ष ग्रहणमां आवतो नथी. तेथी स्पर्शन, स्वादन, वाणी, सूंघवुं, सांभळवुं, देखवुं वगेरे (इन्द्रियोना व्यापार) तथा गमन-आगमनदि कायानी चेष्टाओथी जाणवामां आवे छे के ‘शरीरमां जीव छे’. आ अनुमानज्ञान छे, कारण के साधनथी साध्यनुं ज्ञान थाय तेने अनुमान कहे छे अने ते पण नय ज छे. तेने परोक्षप्रमाणना भेदोमां कह्युं छे पण ते परमार्थथी नय ज छे. ते अनुमान स्वार्थ-परमार्थना भेदथी तथा हेतु-चिह्नना भेदथी अनेक प्रकारनुं कह्युं छे.

हवे नयोना भेदोने कहे छेः

सो संगहेण एक्को दुविहो वि य दव्वपज्जएहिंतो
तेसिं च विसेसादो णइगमपहुदी हवे णाणं ।।२६८।।
सः संग्रहेन एकः द्विविधः अपि च द्रव्यपर्यायाभ्याम्
तयोः च विशेषात् नैगमप्रभृतिः भवेत् ज्ञानं ।।२६८।।

अर्थःते नय संग्रहपणाथी अर्थात् सामान्यपणे तो एक छे. द्रव्यर्थिक अने पर्यायर्थिक भेदथी बे प्रकारना छे. तथा विशेषताथी ए बंनेना भेदोथी नैगमनय अदिथी लईने छे ते नय छे, अने ते ज्ञान ज छे.

हवे द्रव्यर्थिकनयनुं स्वरूप कहे छेः

जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं
णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि ।।२६९।।

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यः साधयति सामान्यं अविनाभूतं विशेषरूपैः
नानायुक्तिबलात् द्रव्यार्थः सः नयः भवति ।।२६९।।

अर्थःजे नय वस्तुने तेना विशेषरूपथी अविनाभूत सामान्यस्वरूपने नाना प्रकारनी युक्तिना बळथी साधे ते द्रव्यर्थिकनय छे.

भावार्थःवस्तुनुं स्वरूप सामान्य-विशेषात्मक छे. विशेष विना सामान्य होतुं नथी. ए प्रमाणे युक्तिना बळथी सामान्यने साधे ते द्रव्यर्थिकनय छे.

हवे पर्यायर्थिकनयनुं स्वरूप कहे छेः

जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे
साहणलिंगवसादो पज्जयविसओ णओ होदि ।।२७०।।
यः साधयति विशेषान् बहुविधसामान्यसंयुतान् सर्वान्
साधनलिङ्गवशात् पर्यायविषयः नयः भवति ।।२७०।।

अर्थःजे नय अनेक प्रकारे सामान्यसहित सर्व विशेषने तेना साधननुं जे लिंग (चिह्न) तेना वशथी साधे ते पर्यायर्थिकनय छे.

भावार्थःसामान्य सहित तेना विशेषोने हेतुपूर्वक साधे ते पर्यायर्थिकनय छे. जेम सत् सामान्यपणा सहित चेतन-अचेतनपणुं तेनुं विशेष छे, चित् सामान्यपणा सहित संसारी-सिद्ध जीवपणुं तेनुं विशेष छे, संसारीपणा सामान्य सहित त्रस-स्थावर जीवपणुं तेनुं विशेष छे, इत्यदि. वळी अचेतन सामान्यपणा सहित पुद्गलदि पांच द्रव्य तेनां विशेष छे तथा पुद्गल सामान्यपणा सहित अणु -स्कंध-घट-पट अदि तेनां विशेष छे. इत्यदि पर्यायर्थिकनय हेतुपूर्वक साधवामां आवे छे.

हवे द्रव्यर्थिकनयना भेदो कहे छे; त्यां पहेलां नैगमनय कहे छेः


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जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समठ्ठं च
संपडिकालविट्ठं सो हु णयो णेगमो णेओ ।।२७१।।
यः साधयति अतीतं विकल्परूपं भविष्यं अर्थं च
सम्प्रतिकालविष्टं सः स्फु टं नयः नैगमः ज्ञेयः ।।२७१।।

अर्थःजे नय भूत, भविष्य तथा वर्तमानरूप विकल्पथी संकल्पमात्र (पदार्थने) साधे ते नैगमनय छे.

भावार्थःत्रण काळना पर्यायोमां अन्वयरूप छे ते द्रव्य छे. तेने पोताना विषयथी भूतकाळनी पर्यायने पण वर्तमानवत् संकल्पमां ले, भविकाळनी पर्यायने पण वर्तमानवत् संकल्पमां ले तथा वर्तमानकाळनी पर्यायने ते किंचित् निष्पन्न होय वा अनिष्पन्न होय तो पण निष्पन्नरूप संकल्पमां ले एवा ज्ञान तथा वचनने नैगमनय कहे छे. तेना अनेक भेद छे. सर्व नयना विषयने मुख्यता-गौणताथी पोताना संकल्परूपे विषय करे छे. जेम केमनुष्य नामना जीवद्रव्यने संसारपर्याय छे, सिद्धपर्याय छे तथा आ मनुष्यपर्याय छे एम कहे तो त्यां संसारपर्याय तो अतीत-अनागत-वर्तमान त्रण काळ संबंधी पण छे, सिद्धपणुं अनागत ज छे तथा मनुष्यपणुं वर्तमान ज छे, छतां आ नयना वचनथी अभिप्रायमां वर्तमान-विद्यमानवत् संकल्पथी परोक्षरूप अनुभवमां लईने कहे के ‘आ द्रव्यमां, मारा ज्ञानमां, हाल आ पर्याय भासे छे’ एवा संकल्पने नैगमनयनो विषय कहे छे. एमांथी कोईने मुख्य तथा कोईने गौणरूप कहे छे.

हवे संग्रहनय कहे छेः

जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदव्वपज्जायं
अणुगमलिंगविसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि ।।२७२।।
यः संगृह्णति सर्वं देशं वा विविधद्रव्यपर्यायम्
अनुगमलिंङ्गविशिष्टं सः अपि नयः संग्रह भवति ।।२७२।।

१ निष्पन्न = प्राप्त वा प्रगट. २ अनिष्पन्न = अप्राप्त वा अप्रगट.


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अर्थःजे नय सर्व वस्तुने वा तेना देशने अर्थात् एक वस्तुना सर्व भेदोने अनेक प्रकार द्रव्य-पर्यायसहित अन्वयलिंग-विशिष्ट संग्रह करेएकरूप कहे ते संग्रहनय छे.

भावार्थःसर्व वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षण सत्थीद्रव्य पर्यायोथी अन्वयरूप ‘एक सत्मात्र छे’ एम कहे, वा सामान्य सत्स्वरूप द्रव्यमात्र छे वा विशेष सत्रूप पर्यायमात्र छे, वा जीववस्तु चित्सामान्यथी एक छे वा सिद्धत्वसामान्यथी सर्व सिद्धो एक छे, वा संसारीत्वसामान्यथी सर्व संसारीजीव एक छे, इत्यदि. तथा अजीवसामान्यथी पुद्गलदि पांचे द्रव्य एक अजीवद्रव्य छे वा पुद्गलत्वसामान्यथी अणुस्कंधघटपटदि एक पुद्गलद्रव्य छे, इत्यदि संग्रहरूप कहे ते संग्रहनय छे.

आगळ व्यवहारनय कहे छेः

जो संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं
परमाणूपज्जंतं ववहारणओ हवे सो हु ।।२७३।।
यत् संग्रहेण गृहीतं विशेषरहितं अपि भेदयति सततम्
परमाणुपर्यन्तं व्यवहारनयः भवेत् सः खलु ।।२७३।।

अर्थःसंग्रहनय द्वारा वस्तुने विशेषरहित ग्रहण करी हती तेने परमाणु पर्यंत निरंतर जे नय भेदे ते व्यवहारनय छे.

भावार्थःसंग्रहनये सर्वने सत् कह्युं, त्यां व्यवहारनय भेद करे छे केद्रव्यसत् छे, पर्यायसत् छे. संग्रहनय द्रव्यसामान्यने ग्रहे छे त्यां व्यवहारनय भेद करे छे के द्रव्य जीव-अजीव बे भेदरूप छे. संग्रहनय जीवसामान्यने ग्रहे छे त्यां व्यवहारनय भेद करे छे केजीव संसारी ने सिद्ध बे भेदरूप छे; इत्यदि. वळी संग्रहनय पर्यायसामान्यने संग्रहण करे छे, त्यां व्यवहारनय भेद करे छे के पर्याय अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्यायरूप बे भेदथी छे. ए ज प्रमाणे संग्रहनय अजीवसामान्यने ग्रहण करे छे, त्यां व्यवहारनय भेद करी अजीव एवां पुद्गलदि पांचे


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द्रव्यो भेदरूप छे. संग्रहनय पुद्गलसामान्यने ग्रहण करे छे, त्यां व्यवहारनय अणु-स्कंध-घट-पटदि भेदरूप कहे छे. ए प्रमाणे जेने संग्रहनय ग्रहण करे तेमां व्यवहारनय भेद करतो जाय छे अने ते त्यां सुधी के फरी बीजो भेद थई शके नहि, त्यां सुधी संग्रहव्यवहारनयनो विषय छे. ए प्रमाणे द्रव्यर्थिकनयना त्रण भेद कह्या.

हवे पर्यायर्थिकनयना भेद कहे छे. त्यां प्रथम ॠजुसूत्रनय कहे छेः

जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं
संतं साहदि सव्वं तं पि णयं रिजुणयं जाण ।।२७४।।
यः वर्त्तमानकाले अर्थपर्यायपरिणतं अर्थम्
सन्तं साधयति सर्वं तमपि नयः ऋजुनयं जानीहि ।।२७४।।

अर्थःवर्तमानकाळमां अर्थपर्यायरूप परिणमेला अर्थने सर्वने सत्रूप साधे (ग्रहण करे) ते ॠजुसूत्रनय छे.

भावार्थःवस्तु समये समये परिणमे छे. वर्तमान एक समयनी पर्यायने अर्थपर्याय कहे छे अने ते ॠजुसूत्रनयनो विषय छे; ते वस्तुने पर्यायमात्र ज कहे छे. वळी घडी, मुहूर्त अदि काळने पण व्यवहारमां वर्तमान कहीए छीए. ते वर्तमानकाळस्थायी पर्यायने पण ॠजुसूत्रनय साधे छे तेथी तेनी स्थूल ॠजुसूत्र संज्ञा छे. ए प्रमाणे प्रथम कहेला द्रव्यर्थिक त्रण नय अने एक आ ॠजुसूत्रनय मळी चारे नयोने अर्थनय कहेवामां आवे छे.

हवे त्रण प्रकारना शब्दनयो कहे छे. त्यां पहेलां शब्दनय कहे छेः

सव्वेसिं वत्थूणं संखलिंगदि-बहुपयारेहिं
जो साहदि णाणत्तं सद्दणयं तं वियाणेह ।।२७५।।
सर्वेषां वस्तूनां संख्यलिङ्गदिबहुप्रकारैः
यः साधयति नानात्वं शब्दनयं तं विजानीहि ।।२७५।।

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अर्थःजे नय सर्व वस्तुओना, संख्या-लिंग अदि घणा प्रकारे, नानापणाने साधे तेने शब्दनय जाणो.

भावार्थःसंख्याएकवचन-द्विवचन-बहुवचन, लिंगस्त्री -पुरुष-नपुंसकदर्शक वचन, अदि शब्दथी काळ, कारक, पुरुष, उपसर्ग लेवो. ए वडे व्याकरणना प्रयोजित पदार्थने भेदरूपथी कहे ते शब्दनय छे. जेम केपुष्य-तारका-नक्षत्ररूप एक ज्योतिषीना विमानना त्रणे लिंग कहे, त्यां व्यवहारमां तो विरोध जणाय छे, कारण के ए ज पुरुष, ए ज स्त्रीनपुंसक शी रीते होय? तो पण शब्दनयनो आ ज विषय छे के जेवो शब्द कहे तेवो ज अर्थने भेदरूप मानवो.

हवे समभिरूढनयने कहे छेः

जो एगेगं अत्थं परिणदिभेदेण साहदे णाणं
मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णयं जाण ।।२७६।।
यः एकैकं अर्थं परिणतिभेदेन साधयति ज्ञानम्
मुख्यार्थं वा भाषते अभिरूढं तत् नयं जानीहि ।।२७६।।

अर्थःजे नय वस्तुने परिणामना भेदथी एक एक जुदा जुदा भेदरूप साधे अथवा तेमांना मुख्य अर्थने ग्रहण करी साधे तेने समभिरूढनय जाणवो.

भावार्थःशब्दनय वस्तुना पर्यायनामथी भेद करतो नथी, त्यारे आ समभिरूढनय छे ते एक वस्तुनां पर्यायनाम छे तेने भेदरूप जुदा जुदा पदार्थपणे ग्रहण करे छे; त्यां जेने मुख्य करी पकडे तेने सदा तेवो ज कहे छे. जेम‘गौ’ शब्दना घणा अर्थ छे तथा ‘गौ’ पदार्थना घणां नाम छे तेने आ नय जुदा जुदा पदार्थ माने छे. तेमांथी मुख्यपणे ‘गौ’ पदार्थ पकड्यो तेने चालतां-बेसतां-सूतां ‘गौ’ ज कह्या करे छे ते समभिरूढनय छे.

हवे एवंभूतनय कहे छेः


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जेण सहावेण जदा परिणदरूवम्मि तम्मयत्तादो
तं परिणामं साहदि जो वि णओ सो हु परमत्थो ।।२७७।।
येन स्वभावेन यदा परिणतरूपे तन्मयत्वात्
तं परिणामं साधयति यः अपि नयः सः खलु परमार्थः ।।२७७।।

अर्थःवस्तु जे काळे जे स्वभावे परिणमनरूप होय छे ते काळे ते परिणामथी तन्मय होय छे; तेथी ते ज परिणामरूप (वस्तुने) साधेकहे ते एवंभूतनय छे. आ नय परमार्थरूप छे.

भावार्थःजे धर्मनी मुख्यताथी वस्तुनुं जे नाम होय ते ज अर्थना परिणमनरूप जे काळे (वस्तु) परिणमे तेने ते ज नामथी कहे ते एवंभूतनय छे, तेने निश्चय (नय) पण कहेवामां आवे छे. जेम ‘गौ’ने चाले त्यारे ज गाय कहे पण अन्य काळे न कहे.

हवे नयोना कथनने संकोचे छेः

एवं विविहणएहिं जो वत्थुं ववहरेदि लोयम्हि
दंसणणाणचरित्तं सो साहदि सग्गमोक्खं च ।।२७८।।
एवं विविधनयैः यः वस्तु व्यवहरति लोके
दर्शनज्ञानचरित्रं सः साधयति स्वर्गमोक्षौ च ।।२७८।।

अर्थःजे पुरुष आ प्रमाणे नयोथी वस्तुने व्यवहाररूप कहे छेसाधे छेप्रवर्तावे छे ते पुरुष दर्शन-ज्ञान-चरित्रने साधे छे तथा स्वर्ग-मोक्षने साधे छे.

भावार्थःप्रमाण-नयथी वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ सधाय छे. जे पुरुष प्रमाण-नयोनुं स्वरूप जाणी वस्तुने यथार्थ व्यवहाररूप प्रवर्तावे छे तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्रनी तथा तेना फळरूप स्वर्ग-मोक्षनी सिद्धि थाय छे.

हवे कहे छे के तत्त्वार्थनुं श्रवण, ज्ञान, धारण अने भावना करवावाळा विरला छेः


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विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं
विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि ।।२७९।।
विरलाः निशृण्वन्ति तत्त्वं विरलाः जानन्ति तत्त्वतः तत्त्वम्
विरलाः भावयन्ति तत्त्वं विरलानां धारणा भवति ।।२७९।।

अर्थःजगतमां तत्त्वने कोई विरला पुरुष सांभळे छे, सांभळीने पण तत्त्वने यथार्थरूपे विरला ज जाणे छे, जाणीने पण तत्त्वनी भावना अर्थात् पुनः पुनः अभ्यास विरला ज करे छे तथा अभ्यास करीने पण तत्त्वनी धारणा तो विरलाओने ज होय छे.

भावार्थःतत्त्वार्थनुं यथार्थ स्वरूप सांभळवुं, जाणवुं, भाववुं अने धारवुं उत्तरोत्तर दुर्लभ छे. आ पंचम काळमां तत्त्वना यथार्थ वक्ता दुर्लभ छे तथा तेने धारण करवावाळा पण दुर्लभ छे.

हवे कहे छे के उपर कहेला तत्त्वने सांभळी तेने निश्चलभावथी जे भावे छे ते तत्त्वने जाणे छेः

तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिह्णदे जो हि
तं चिय भावेदि सया सो वि य तच्चं वियाणेइ ।।२८०।।
तत्त्वं कथ्यमानं निश्चलभावेन गृह्णति यः हि
तत् एव भावयति सदा सः अपि च तत्त्वं विजानति ।।२८०।।

अर्थःजे पुरुष गुरुजनो द्वारा कहेलुं जे तत्त्वनुं स्वरूप तेने निश्चलभावथी ग्रहण करे छेतेने अन्य भावना छोडी निरंतर भावे छे ते पुरुष तत्त्वने जाणे छे.

हवे कहे छे के तत्त्वनी भावना नथी करतो एवो क्यो पुरुष छे के जे स्त्री अदिने वश नथी? अर्थात् सर्व लोक छेः

को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं
को इंदिएहिं ण जिओ को ण कसाएहिं संतत्तो ।।२८१।।

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कः न वशः स्त्रीजने कस्य न मदनेन खण्डितः मानः
कः इन्द्रियैः न जितः कः न कषायैः संतप्तः ।।२८१।।

अर्थःआ लोकमां स्त्रीजनने वश कोण नथी? कामथी जेनुं अंतःकरण खंडित नथी थयुं एवो कोण छे? इन्द्रियोथी जे नथी जिताई गयो एवो कोण छे? तथा कषायोथी जे नथी तप्तायमान थयो एवो कोण छे?

भावार्थःविषय-कषायने वश सर्व लोक छे पण तत्त्वनी भावना करवावाळा कोई विरला छे.

हवे कहे छे केजे तत्त्वज्ञानी सर्व परिग्रहनो त्यागी थाय छे ते स्त्री अदिने वश थतो नथीः

सो ण वसो इत्थिजणे सो ण जिओ इंदिएहिं मोहेण
जो ण य गिह्णदि गंथं अब्भंतर-बहिरं सव्वं ।।२८२।।
सः न वशः स्त्रीजने सः न जितः इन्द्रियैः मोहेन
यः न च गृह्णति ग्रन्थं आभ्यन्तरबाह्यं सर्वम् ।।२८२।।

अर्थःजे पुरुष तत्त्वनुं स्वरूप जाणी बाह्य-अभ्यंतर सर्व परिग्रहने ग्रहण करतो नथी ते पुरुष स्त्रीजनने वश थतो नथी, ते ज पुरुष इन्द्रियोथी जिताई जतो नथी तथा ते ज पुरुष मोहकर्म जे मिथ्यात्वकर्म तेनाथी जितातो नथी.

भावार्थःसंसारनुं बंधन परिग्रह छे. जे सर्व परिग्रहने छोडे ते ज स्त्री-इन्द्रिय-कषायदिने वशीभूत थतो नथी. सर्वत्यागी थई शरीरनुं पण ममत्व न राखे तो ते निजस्वरूपमां ज लीन थाय छे.

हवे लोकानुप्रेक्षाना चिंतवननुं माहात्म्य प्रगट करे छेः

एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्कसब्भावो
सो खविय कम्मपुंजं तस्सेव सिहामणी होदि ।।२८३।।
एवं लोकस्वभावं यः ध्यायति उपशमैकसद्भावः
सः क्षपयित्वा कर्मपुञ्जं तस्य एव शिखामणिः भवति ।।२८३।।

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अर्थःजे पुरुष उपशम करी एक स्वभावरूप थयो थको आ प्रमाणे लोकस्वरूपने ध्यावे छेचिंतवन करे छे ते पुरुष क्षपितनाश कर्यो छे. कर्मपुंज जेणे एवो, ए लोकनो ज शिखामणि (चूडामणि) थाय छे.

भावार्थःए प्रमाणे (जे पुरुष) साम्यभाव करी लोकानुप्रेक्षानुं चिंतवन करे छे ते पुरुष कर्मनो नाश करी लोकना शिखरे जई विराजमान थाय छे. अने त्यां अनंत, अनुपम, बाधारहित, स्वाधीन, ज्ञानानंदस्वरूप सुखने अनुभवे छे. अहीं लोकभावनानुं कथन विस्तारपूर्वक करवानो आशय एवो छे के अन्यमती लोकनुं स्वरूप, जीवनुं स्वरूप तथा हितहितनुं स्वरूप अनेक प्रकारथी अन्यथा, असत्यार्थ अने प्रमाणविरुद्ध कहे छे. तेने सांभळी कोई जीव तो विपरीत श्रद्धान करे छे, कोई संशयरूप थाय छे तथा कोई अनध्यवसायरूप थाय छे. अने एवा विपरीतदि श्रद्धानथी चित्त स्थिरता पामतुं नथी, चित्त स्थिर थया विना यथार्थ ध्याननी सिद्धि थती नथी अने ध्यान विना कर्मोनो नाश थतो नथी. तेथी ए विपरीतदि श्रद्धान दूर थवा माटे लोकनुं अने जीवदि पदार्थोनुं यथार्थ स्वरूप जाणवा अर्थे अहीं विस्तारपूर्वक कथन कर्युं छे. तेने जाणी जीवदिनुं स्वरूप ओळखी पोताना स्वरूपमां चित्तने निश्चल स्थिर करी, कर्मकलंक नाश करी, भव्यजीव मोक्षने प्राप्त थाओ! एवो श्रीगुरुओनो उपदेश छे.

लोकाकार विचारीने, सिद्धस्वरूप चितार;
रागविरोध विडारीने, आतमरूप संभाळ.
आतमरूप संभाळ, मोक्षपुर वसो सदाही;
अधिव्यधिजरमरण, अदि दुःख ह्वै न कदा ही.
श्रीगुरु शिक्षा धारी, टाळी अभिमान कुशोक;
मनस्थिर कारण आ विचार, ‘निजरूप सुलोक’.
इति लोकानुप्रेक्षा समाप्त.
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११. बोधिादुर्लभ अनुप्रेक्षा
जीवो अणंतकालं वसइ णिगोएसु आइपरिहीणो
तत्तो णीसरिदूणं पुढवीकायदिओ होदि ।।२८४।।
जीवः अनन्तकालं वसति निगोदेषु अदिपरिहीनः
ततः निःसृत्य पृथ्वीकायदिकः भवति ।।२८४।।

अर्थःआ जीव, संसारमां अनदिकाळथी मांडी अनंतकाळ तो निगोदमां रहे छे अने त्यांथी नीकळी पृथ्वीकायदि पर्यायने धारण करे छे. अनदिथी अनंतकाळ सुधी नित्यनिगोदमां जीवनो वास छे. त्यां एक शरीरमां अनंतानंत जीवोना आहार, श्वासोश्वास, जीवन-मरण समान छे. एक श्वासना अढारमा भाग जेटलुं आयुष्य छे. त्यांथी नीकळी कदचित् पृथ्वी-अप-तेज-वायुकायपर्याय पामे छे. ए पर्यायो पामवी दुर्लभ छे.

हवे कहे छे केत्यांथी नीकळी त्रसपर्याय पामवी दुर्लभ छेः

तत्थ वि असंखकालं बायरसुहुमेसु कुणइ परियत्तं
चिंतामणि व्व दुलहं तसत्तण लहदि कट्ठेण ।।२८५।।
तत्र अपि असंख्यकालं बादरसूक्ष्मेसु करोति परिवर्त्तनम्
चिंतामणिवत् दुर्ल्लभं त्रसत्वं लभते कष्टेन ।।२८५।।

अर्थःत्यां पृथ्वीकाय अदि सूक्ष्म तथा बादरकायोमां असंख्यात काळ भ्रमण करे छे. त्यांथी नीकळी त्रसपणुं पामवुं घणा कष्टे पण दुर्लभ छे; जेम चिंतामणि पामवो दुर्लभ छे तेम.

आउ परिहीणो’ एवो पण पाठ छे तेनो एवो अर्थ छे के आयुथी परिहीन श्वासना अढारमा भागे जेनुं आयु छे.


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भावार्थःपृथ्वी अदि स्थावरकायथी नीकळी चिंतामणिरत्ननी माफक त्रसपर्याय पामवी दुर्लभ छे.

हवे कहे छे केत्रसपणुं पण पामे तो त्यां पंचेन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छेः

वियलिंदिएसु जायदि तत्थ वि अच्छेदि पुव्वकोडीओ
तत्तो णीसरिदूणं कहमवि पंचिंदिओ होदि ।।२८६।।
विकलेन्द्रियेषु जायते तत्र अपि आस्ते पूर्वकोटयः
ततः निःसृत्य कथमपि पञ्चेन्द्रियः भवति ।।२८६।।

अर्थःस्थावरमांथी नीकळी त्रस थाय त्यां पण बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रियरूप विकलत्रयपणाने पामे. त्यां (उत्कृष्ट) करोडो पूर्व रहे छे. त्यांथी नीकळी महाकष्टेथी पंचेन्द्रियपणुं पामे छे.

भावार्थःविकलत्रयमांथी नीकळी पंचेन्द्रियपणुं पामवुं दुर्लभ छे. जो विकलत्रयमांथी फरी स्थावरकायमां जई उत्पन्न थाय तो त्यां फरी घणो काळ भोगवे; एटला माटे पंचेन्द्रियपणुं पामवुं अतिशय दुर्लभ छे.

सो वि मणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि
अह मणसहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो हवे रुद्दो ।।२८७।।
सः अपि मनसा विहीनः न च आत्मानं परं अपि जानति
अथ मनःसहितः भवति स्फु टं तथा अपि तिर्यक् भवेत् रुद्रः ।।२८७।।

अर्थःविकलत्रयमांथी नीकळी पंचेन्द्रिय कदी थाय तो असंज्ञी मनरहित थाय छे. त्यां स्व तथा परनो भेद जाणतो नथी. कदचित् मनसहित संज्ञी पण थाय तो रुद्र तिर्यंच थाय छे अर्थात् बिल्ली, घुवड, सर्प, सिंह अने मच्छदि क्रूर तिर्यंच थाय छे.

भावार्थःकदचित् पंचेन्द्रिय थाय तो असंज्ञी थाय छे पण


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संज्ञीपणुं दुर्लभ छे. वळी संज्ञी पण थाय तो त्यां क्रूर तिर्यंच थाय के जेना परिणाम निरंतर पापरूप ज रहे छे.

हवे क्रूर परिणामीओनो नरकवास थाय छे एम कहे छेः

सो तिव्वअसुहलेसो णरये णिवडेइ दुक्खदे भीमे
तत्थ वि दुक्खं भुंजदि सारीरं माणसं पउरं ।।२८८।।
सः तीव्राशुभलेश्यः नरके निपतति दुःखदे भीमे
तत्र अपि दुःखं भुङ्क्ते शारीरं मानसं प्रचुरम् ।।२८८।।

अर्थःक्रूर तिर्यंच थाय तो ते तीव्र अशुभपरिणामथी अशुभ लेश्या सहित मरी नरकमां पडे छे. केवुं छे नरक? महा दुःखदायक अने भयानक छे. त्यां शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी प्रचुर (घणां तीव्र आकरां) दुःख भोगवे छे.

हवे कहे छे केए नरकमांथी नीकळी तिर्यंच थाय तो त्यां पण दुःख सहे छेः

तत्तो णीसरिदूणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पावं
तत्थ वि दुक्खमणंतं विसहदि जीवो अणेयविहं ।।२८९।।
ततः निःसृत्य पुनरपि तिर्यक्षु जायते पापं
तत्र अपि दुःखं अनन्तं विषहते जीवः अनेकविधम् ।।२८९।।

अर्थःए नरकमांथी नीकळी फरी तिर्यंचगतिमां ऊपजे छे; त्यां पण जेम पापरूप थाय तेम आ जीव अनेक प्रकारनां अनंत दुःख विशेषता पूर्वक सहे छे.

हवे कहे छे केमनुष्यपणुं पामवुं महादुर्लभ छे. त्यां पण मिथ्याद्रष्टि बनी पाप उपजावे छेः

रयणं चउप्पहे पिव मणुयत्तं सुट्ठु दुल्लहं लहिय
मिच्छो हवेइ जीवो तत्थ वि पावं समज्जेदि ।।२९०।।

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रत्नं चतुष्पथे इव मनुजत्वं सुष्ठु दुर्लभं लब्ध्वा
म्लेच्छः भवति जीवः तत्र अपि पापं समर्जयति ।।२९०।।

अर्थःतिर्यंचमांथी नीकळी मनुष्यगति पामवी अति दुर्लभ छे. जेम चार पंथ वच्चे रत्न पडी गयुं होय तो ते महाभाग्य होय तो ज हाथमां आवे छे तेम (मानवपणुं) दुर्लभ छे. वळी आवो दुर्लभ मनुष्यदेह पामीने पण जीव मिथ्याद्रष्टि बनी पाप उपजावे छे.

भावार्थःमनुष्य पण कदचित् थाय तो त्यां म्लेच्छखंड अदिमां वा मिथ्याद्रष्टिओनी संगतिमां ऊपजी पाप ज उपजावे छे.

हवे कहे छे केमनुष्य पण थाय अने ते आर्यखंडमां पण ऊपजे तोपण त्यां उत्तम कुळदि पामवां अति दुर्लभ छेः

अह लहदि अज्जवत्तं तह ण वि पावेइ उत्तमं गोत्तं
उत्तम कुले वि पत्ते धणहीणो जायदे जीवो ।।२९१।।
अथ लभते आर्यावर्तं तथा न अपि प्राप्नोति उत्तमं गोत्रम्
उत्तमकुले अपि प्राप्ते धनहीनः जायते जीवः ।।२९१।।

अर्थःमनुष्यपर्याय पामी कदचित् आर्यखंडमां पण जन्म पामे तो त्यां उच्च कुळ पामवुं दुर्लभ छे. कदचित् उच्च कुळमां पण जन्म पामे तो त्यां धनहीन दरिद्री थाय अने तेनाथी कांई सुकृत्य नहि बनतां पापमां ज लीन रहे छे.

अह धणसहिदो होदि हु इंदियपरिपुण्णदा तदो दुलहा
अह इंदियसंपुण्णो तह वि सरोओ हवे देहो ।।२९२।।
अथ धनसहितः भवति स्फु टं इन्द्रियपरिपूर्णता ततः दुर्ल्लभा
अथ इन्द्रियसम्पूर्णः तथपि सरोगः भवेत् देहः ।।२९२।।

अर्थःवळी जो धनवानपणुं पण पामे तो त्यां इन्द्रियोनी परिपूर्णता पामवी अति दुर्लभ छे. कदचित् इन्द्रियोनी संपूर्णता पण पामे तो त्यां रोगसहित देह पामे, पण नीरोग होवुं दुर्लभ छे.