Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 214-256.

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हवे ‘आकाशमां जेम सर्व द्रव्योने अवगाह आपवानी शक्ति छे तेवी अवगाह आपवानी शक्ति बधांय द्रव्योमां छे’ एम कहे छेः

सव्वाणं दव्वाणं अवगाहणसत्ति अत्थि परमत्थं
जह भसमपणियाणं जीवपएसाण जाण बहुआणं ।।२१४।।
सर्वेषां द्रव्याणां अवगाहनशक्तिः अस्ति परमार्थतः
यथा भस्मपानीययोः जीवप्रदेशानां जानीहि बहुकानाम् ।।२१४।।

अर्थःबधांय द्रव्योमां परस्पर अवगाह आपवानी शक्ति छे एम निश्चयथी तमे जाणो. जेम भस्म अने जलमां (परस्पर) अवगाहनशक्ति छे तेम जीवना असंख्यातप्रदेशोने पण जाणो.

भावार्थःजेम पात्रमां जल भरी तेमां भस्म नाखीए तो ते तेमां समाय छे, वळी तेमां साकर नाखीए तो ते पण समाय छे, अने तेमां सोंय चोंपीए तो ते पण तेमां समाय छे,एम अवगाहनशक्ति समजवी. अहीं कोई प्रश्न करे केबधांय द्रव्योमां अवगाहनशक्ति छे तो ए (अवगाहशक्ति) आकाशनो असाधारण धर्म केवी रीते ठर्यो? तेनुं समाधानजोके परपर अवगाह तो बधांय द्रव्यो आपे छे तथपि आकाशद्रव्य सर्वथी मोटुं छे, तेथी तेमां बधांय द्रव्यो समाय छे ए ज तेनी असाधारणता छे.

जदि ण हवदि सा सत्ती सहावभूदा हि सव्वदव्वाणं
एक्केकास-पएसे कह ता सव्वणि वट्टंति ।।२१५।।
यदि न भवति सा शक्तिः स्वभावभूता हि सर्वद्रव्याणाम्
एकैकाकाशप्रदेशे कथं तत् सवारणि वर्तन्ते ।।२१५।।

अर्थःजो सर्व द्रव्योने स्वभावभूत अवगाहनशक्ति न होय तो एक एक आकाशना प्रदेशमां सर्व द्रव्य केवी रीते वर्ते?

भावार्थःएक आकाशप्रदेशमां पुद्गलनां अनंत परमाणु द्रव्यो, एक जीवनो प्रदेश, एक धर्मद्रव्यनो प्रदेश, एक अधर्मद्रव्यनो


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प्रदेश अने एक कालाणुद्रव्य ए प्रमाणे सर्व रहे छे. हवे ए आकाशनो प्रदेश एक पुद्गलपरमाणु बराबर छे. जो अवगाहनशक्ति न होय तो (ए प्रमाणे) शी रीते रहे?

हवे काळद्रव्यनुं स्वरूप कहे छेः

सव्वाणं दव्वाणं परिणामं जो करेदि सो कालो
एक्केकासपएसे सो वट्टदि एक्किको चेव ।।२१६।।
सर्वेषां द्रव्याणां परिणामं यः करोति सः कालः
एकैकाशकाशप्रदेशे स वर्तते एकैकः च एव ।।२१६।।

अर्थःजे सर्व द्रव्योने परिणाम करे छे ते काळद्रव्य छे अने ते एक एक आकाशना प्रदेशमां एक एक कालाणुद्रव्य वर्ते छे.

भावार्थःसर्व द्रव्योने प्रतिसमय पर्याय ऊपजे छे अने विणसे छे; एवा परिणमनने निमित्तमात्र काळद्रव्य छे. लोकाकाशना एक एक प्रदेशमां एक एक काळाणु रहे छे अने ते निश्चयकाळ छे.

हवे कहे छे केपरिणमवानी स्वभावभूत शक्ति तो सर्व द्रव्योमां छे, त्यां अन्य द्रव्य निमित्तमात्र छेः

णियणियपरिणामाणं णियणियदव्वं पि कारणं होदि
अण्णं बहिरदव्वं णिमित्तमित्तं वियाणेह ।।२१७।।
निजनिजपरिणामानां निजनिजद्रव्यं अपि कारणं भवति
अन्यत् बाह्यद्रव्यं निमित्तमात्रं विजानीत ।।२१७।।

अर्थःसर्व द्रव्यो पोतपोताना परिणामोनां उपादानकारण छे अने अन्य बाह्य द्रव्य छे, ते अन्यने निमित्तमात्र जाणो.

भावार्थःजेम घट अदिनुं माटी उपादानकारण छे अने चाक-दंडदि निमित्तकारण छे, तेम सर्व द्रव्यो पोतपोताना परिणामनां उपादानकारण छे अने काळद्रव्य निमित्तकारण छे.


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हवे कहे छे केबधां द्रव्योने जे परस्पर उपकार छे ते सहकारीकारणभावथी छेः

सव्वाणं दव्वाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोण्णं
सो चिय कारणभावो हवदि हु सहयरिभावेण ।।२१८।।
सर्वेषां द्रव्याणां यः उपकारः भवति अन्योन्यम्
सः च एव कारणभावः भवति स्फु टं सहकरिभावेन ।।२१८।।

अर्थःबधांय द्रव्योने जे परस्पर उपकार छे ते सहकारीभावथी कारणभाव थाय छे अने ते प्रगट छे.

हवे द्रव्योमां स्वभावभूत नाना (प्रकारनी) शक्ति छे तेने कोण निषेधी शके छे? ते कहे छेः

कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहिं संजुदा अत्था
परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं ।।२१९।।
कालदिलब्धियुक्ताः नानाशक्तिभिः संयुताः अर्थाः
परिणममानाः हि स्वयं न शक्यते कः अपि वारयितुं ।।२१९।।

अर्थःनाना शक्तियुक्त बधाय पदार्थो काळदि लब्धि सहित थतां स्वयं परिणमे छे. तेमने तेम परिणमतां कोई अटकाववा समर्थ नथी.

भावार्थःसर्व द्रव्यो, पोतपोताना परिणामरूप द्रव्य-क्षेत्र-काळ सामग्रीने पामी पोते ज भावरूप परिणमे छे; तेमने कोई अटकावी शकतुं नथी.

हवे व्यवहारकाळनुं निरूपण करे छेः

जीवाण पुग्गलाणं जे सुहुमा बादरा य पज्जाया
तीदाणागदभूदा सो ववहारो हवे कालो ।।२२०।।
जीवानां पुद्गलानां ये सूक्ष्माः बादराः च पर्यायाः
अतीतानागतभूताः सः व्यवहारः भवेत् कालः ।।२२०।।

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जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्यना सूक्ष्म तथा बादर पर्याय

छे ते अतीत (भूतकाळना) थया, अनागत अर्थात् आगामी थशे तथा वर्तमान छे; ए प्रमाणे व्यवहारकाळ होय छे.

भावार्थःजीव-पुद्गलना जे स्थूळ-सूक्ष्म पर्याय भूतकाळना थई गया तेमने अतीत नामथी कह्या, भविष्यकाळना थशे तेमने अनागत नामथी कह्या तथा जे वर्ते छे तेमने वर्तमान नामथी कह्या. तेमने जेटली वार लागे छे तेने ज व्यवहारकाळ नामथी कहीए छीए. हवे जघन्यपणे तो पर्यायनी स्थिति एक समय मात्र छे अने मध्यम -उत्कृष्टना अनेक प्रकार छे. त्यां आकाशना एक प्रदेशथी बीजा प्रदेश सुधी पुद्गलनो परमाणु मंद गतिए जाय तेटला काळने एक समय कहे छे. ए प्रमाणे जघन्ययुक्ता संख्यातसमयने एक आवली कहे छे, संख्यात आवलीना समूहने एक उश्वास कहे छे, सात उश्वासनो एक स्तोक कहे छे, सात स्तोकनो एक लव कहे छे, साडा आडत्रीस लवनी एक घडी कहे छे, बे घडीनुं एक मुहूर्त कहे छे, त्रीस मुहूर्तनो एक रत्रि-दिवस कहे छे, पंदर रत्रि-दिवसनो एक पक्ष कहे छे, बे पक्षनो एक मास कहे छे, बे मासनी एक ॠतु कहे छे, त्रण ॠतुनुं एक अयन कहे छे अने बे अयननुं एक वर्ष कहे छे, इत्यदि पल्य-सागर -कल्प अदि व्यवहारकाळना अनेक प्रकार छे.

हवे अतीत, अनागत, वर्तमान पर्यायोनी संख्या कहे छेः

तेसु अतीदा णंता अणंतगुणिदा य भविपज्जाया
एक्को वि वट्टमाणो एत्तियमित्तो वि सो कालो ।।२२१।।
तेषु अतीताः अनन्ता अनन्तगुणिताः च भविपर्यायाः
एकः अपि वर्तमानः एतावन्मात्रः अपि सः कालः ।।२२१।।

अर्थःते द्रव्योना पर्यायोमां अतीत पर्याय अनंत छे, अनागत पर्याय तेमनाथी अनंतगणी छे तथा वर्तमान पर्याय एक ज छे. जेटला पर्याय छे तेटलो ज ते व्यवहार काळ छे. . जुओ आगळ गाथा ३०२नी टीका


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ए प्रमाणे द्रव्योनुं निरूपण कर्युं. हवे द्रव्योना कारण-कार्यभावनुं निरूपण करे छेः

पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं
उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा ।।२२२।।
पूर्व परिणामयुक्तं कारणभावेन वर्तते द्रव्यम्
उत्तरपरिणामयुक्तं तत् एव कार्यं भवेत् नियमात् ।।२२२।।

अर्थःनियमथी पूर्वपरिणाम सहित द्रव्य छे ते कारणरूप छे तथा उत्तरपरिणाम सहित द्रव्य छे ते कार्यरूप छे.

हवे वस्तुना त्रणेय काळ विषे कार्य-कारणभावनो निश्चय करे छेः

कारणकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु होंति वत्थूणं
एक्केक्कम्मि य समए पुव्वुत्तरभावमसिज्ज ।।२२३।।
कारणकायरविशेषाः त्रिषु अपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम्
एकैकस्मिन् च समये पूर्वोत्तरभावं आसाद्य ।।२२३।।

अर्थःपूर्वे तथा उत्तर परिणामने प्राप्त थईने त्रणे काळमां एके एक समयमां वस्तुना कारण-कार्यना विशेष (भेद) होय छे.

भावार्थःवर्तमानसमयमां जे पर्याय छे ते पूर्वसमय सहित वस्तुनुं कार्य छे. ए ज प्रमाणे सर्व पर्याय जाणवी. ए रीते प्रत्येक समय कार्य-कारणभावरूप छे.

हवे वस्तु अनंतधर्म स्वरूप छे एवो निर्णय करे छेः

संति अणंताणंता तीसु वि कालेसु सव्वदव्वणि
सव्वं पि अणेयंतं तत्तो भणिदं जिणिंदेहिं ।।२२४।।
सन्ति अनन्तानन्ताः त्रिषु अपि कालेषु सर्वद्रव्यणि
सर्वं अपि अनेकान्तं ततः भणितं जिनेन्द्रैः ।।२२४।।

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अर्थःसर्व द्रव्य छे ते त्रणे काळमां अनंतानंत छेअनंत पर्यायो सहित छे; तेथी श्री जिनेन्द्रदेवे सर्व वस्तुने अनेकान्त अर्थात् अनंतधर्मस्वरूप कही छे.

हवे कहे छे के अनेकान्तात्मक वस्तु ज अथरक्रियाकारी छेः

जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेदि णियमेण
बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकरं दीसदे लोए ।।२२५।।
यत् वस्तु अनेकान्तं तत् एव कार्यं करोति नियमेन
बहुधर्मयुतः अर्थः कार्यकरः दृश्यते लोके ।।२२५।।

अर्थःजे वस्तु अनेकान्त छेअनेकधर्मस्वरूप छे ते ज नियमथी कार्य करे छे. लोकमां पण बहुधर्मयुक्त पदार्थ छे ते ज कार्य करवावाळो देखाय छे.

भावार्थःलोकमां नित्य-अनित्य, एक-अनेक इत्यदि अनेक धर्मयुक्त वस्तु छे ते ज कार्यकारी देखाय छे. जेम माटीनां घट अदि अनेक कार्य बने छे ते जो माटी सर्वथा एकरूप-नित्यरूप वा अनेकरूप -अनित्यरूप ज होय तो तेमां घट अदि कार्य बने नहि. ए ज प्रमाणे सर्व वस्तु जाणवी.

हवे सर्वथा एकान्तरूप वस्तु कार्यकारी नथी एम कहे छेः

एयंतं पुणु दव्वं कज्जं ण करेदि लेसमेत्तं पि
जं पुणु ण करदि कज्जं तं वुच्चदि केरिसं दव्वं ।।२२६।।
एकान्तं पुनः द्रव्यं कार्यं न करोति लेशमात्रं अपि
तत् पुनः न करोति कार्यं तत् उच्यते कीदृशं द्रव्यम् ।।२२६।।

अर्थःवळी एकान्तस्वरूप द्रव्य छे ते लेशमात्र पण कार्य करतुं नथी तथा जे कार्य ज न करे ते द्रव्य ज केवुं? ते तो शून्यरूप जेवुं छे.

भावार्थःजे अथरक्रियारूप होय तेने ज परमार्थरूप वस्तु कही


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छे पण जे अथरक्रियारूप नथी ते तो आकाशना फूलनी माफक शून्यरूप छे.

हवे सर्वथा नित्य-एकान्तमां अथरक्रियाकारीपणानो अभाव दर्शावे छेः

परिणामेण विहीणं णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेव
णो उप्पज्जदि य सया एवं कज्जं कहं कुणदि ।।२२७।।
परिणामेन विहीनं नित्यं द्रव्यं विनश्यति नैव
न उत्पद्यते च सदा एवं कार्यं कथं कुरुते ।।२२७।।

अर्थःपरिणाम रहित जे नित्य द्रव्य छे ते कदी विणसे-ऊपजे नहि, तो ते कार्य शी रीते करे? ए प्रमाणे जे कार्य न करे ते वस्तु ज नथी. जो ते ऊपजेविणसे तो सर्वथा नित्यपणुं ठरतुं नथी.

हवे क्षणस्थायी (सर्वथा अनित्यबौद्ध)ने कार्यनो अभाव दर्शावे छेः

पज्जयमित्तं तच्चं विणस्सरं खणे खणे वि अण्णण्णं
अण्णइदव्वविहीणं ण य कज्जं किं पि साहेदि ।।२२८।।
पर्यायमात्रं तत्त्वं विनश्वरं क्षणे क्षणे अपि अन्यत् अन्यत्
अन्वयिद्रव्यविहीनं न च कार्यं किमपि साधयति ।।२२८।।

अर्थःजो क्षणस्थायीपर्यायमात्र तत्त्व क्षण-क्षणमां अन्य अन्य थाय एवुं विनश्वर मानीए तो ते अन्वयी द्रव्यथी रहित थतुं थकुं कांई पण कार्य साधतुं नथी. क्षणस्थायी-विनश्वरने वळी कार्य शानुं? (न ज होय).

हवे अनेकान्त वस्तुमां ज कार्यकारणभाव बने छे एम दर्शावे छेः

णवणवकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु होंति वत्थूण
एक्केक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमसिज्ज ।।२२९।।

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नवनवकायरविशेषाः त्रिषु अपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम्
एकैकस्मिन् च समये पूर्वोत्तरभावं आसाद्यं ।।२२९।।

अर्थःत्रणे काळमां एक एक समयमां पूर्व-उत्तर परिणामनो आश्रय करी जीवदिक वस्तुओमां नवा नवा कायरविशेष थाय छे अर्थात् नवा नवा पर्याय ऊपजे छे.

हवे पूर्व-उत्तरभावमां कारण-कार्यभाव द्रढ करे छेः

पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं
उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा ।।२३०।।
पूर्वपरिणामयुक्तं कारणभावेन वर्त्तते द्रव्यं
उत्तरपरिणामयुतं तत् एव कार्यं भवेत् नियमात् ।।२३०।।

अर्थःपूर्वपरिणामयुक्त द्रव्य छे ते तो कारणभावथी वर्ते छे तथा ते ज द्रव्य उत्तरपरिणामथी युक्त थाय त्यारे कार्य थाय छे एम तमे नियमथी जाणो.

भावार्थःजेम पिंडरूपे परिणमेल माटी तो कारण छे अने तेनुं, घटरूपे परिणमेल माटी ते कार्य छे. तेम पूर्वपर्याय (प्रथमना पर्याय)नुं स्वरूप कही हवे जीव उत्तरपर्याययुक्त थयो त्यारे ते ज कार्यरूप थयो; एवो नियम छे. ए प्रमाणे वस्तुनुं स्वरूप कहीए छीए.

हवे जीवद्रव्यने पण ए ज प्रमाणे अनदिनिधन कार्य-कारणभाव साधे छेः

जीवो अणाइणिहणो परिणममाणो हु णवणवं भावं
सामग्गीसु पवट्टदि कज्जणि समासदे पच्छा ।।२३१।।
जीवः अनदिनिधनः परिणममानः स्फु टं नवं नवं भावम्
सामग्रीषु प्रवर्त्तते कायारणि समाश्रयते पश्चात् ।।२३१।।

अर्थःजीवद्रव्य छे ते अनदिनिधन छे अने ते नवा नवा


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पर्यायोरूपे प्रगट परिणमे छे; ते प्रथम द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावनी सामग्रीमां वर्ते छे पछी कार्यनेपर्यायने प्राप्त थाय छे.

भावार्थःजेम कोई जीव पहेलां शुभपरिणामरूपे प्रवर्ते छे पछी स्वर्गने प्राप्त थाय छे, तथा (कोई जीव) पहेलां अशुभपरिणाम- रूपे प्रवर्ते छे पछी नरकदि पर्यायने प्राप्त थाय छे, एम समजवुं.

हवे ‘जीवद्रव्य पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावमां रहीने ज नवीन पर्यायरूप कार्यने करे छे’ एम कहे छेः

ससरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि
खेत्ते एकम्मि ठिदो णियदव्वे संठिदो चेव ।।२३२।।
स्वस्वरूपस्थः जीवः कार्यं साधयति वर्त्तमानं अपि
क्षेत्रे एकस्मिन् स्थितः निजद्रव्ये संस्थितः चैव ।।२३२।।

अर्थःजीवद्रव्य छे ते पोताना चेतनास्वरूपमां (भावमां) पोताना ज क्षेत्रमां, पोताना ज द्रव्यमां तथा पोताना परिणमनरूप समयमां रहीने ज पोताना पर्यायस्वरूप कार्यने साधे छे.

भावार्थःपरमार्थथी विचारीए तो पोतानां ज द्रव्य-क्षेत्र-काळ -भावस्वरूप थतो थको जीव, पर्यायस्वरूप कार्यरूपे परिणमे छे अने परद्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव छे ते तो निमित्तमात्र छे.

हवे अन्यरूप थईने कार्य करे तो तेमां दूषण दर्शावे छेः

ससरूवत्थो जीवो अण्णसरूवम्मि गच्छदे जदि हि
अण्णोण्णमेलणादो एकसरूवं हवे सव्वं ।।२३३।।
स्वस्वरूपस्थः जीवः अन्यस्वरूपे गच्छेत् यदि हि
अन्योन्यमेलनात् एकस्वरूपं भवेत् सर्वं ।।२३३।।

अर्थःजो जीव पोताना स्वरूपमां रहीने पण परस्वरूपमां जाय तो परस्पर मळवाथी बधांय द्रव्यो एकरूप बनी जाय; ए महान


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दोष आवे. परंतु एम एकरूप कदी पण थतो नथी ए प्रगट छे.

हवे सर्वथा एकरूप मानवामां दूषण दर्शावे छेः

अहवा बंभसरूवं एक्कं सव्वं पि मण्णदे जदि हि
चंडालबंभणाणं तो ण विसेसो हवे कोवि ।।२३४।।
अथवा ब्रह्मस्वरूपं एकं सर्वं अपि मन्यते यदि हि
चाण्डालब्राह्मणानां तत् न विशेषः भवेत् कः अपि ।।२३४।।

अर्थःजो सर्वथा एक ज वस्तु मानी बधुंय ब्रह्मनुं स्वरूप मानीए तो ब्राह्मण अने चांडालनो कांई पण भेद रहेतो नथी.

भावार्थःसर्व जगतने एक ब्रह्मस्वरूप मानीए तो नानां रूप (भिन्न-भिन्नरूप) ठरतां नथी. वळी ‘अविद्याथी नानां रूप देखाय छे’ एम मानीए तो ए अविद्या कोनाथी उत्पन्न थई ते कहो? जो ‘ब्रह्मथी थई’ एम कहो तो ते ब्रह्मथी भिन्न छे के अभिन्न छे? अथवा सत्रूप छे के असत्रूप छे? अथवा ते एकरूप छे के अनेकरूप छे? ए प्रमाणे विचार करतां एमांनुं कांई ठरतुं नथी. माटे वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्त ज सिद्ध थाय छे अने ए ज सत्यार्थ छे.

हवे तत्त्वने अणुमात्र मानवामां दूषण दर्शावे छेः

अणुपरिमाणं तच्चं अंसविहीणं च मण्णदे जदि हि
तो संबंधाभावो तत्तो वि ण कज्जसंसिद्धि ।।२३५।।
अणुपरिमाणं तत्त्वं अंशविहीनं च मन्यते यदि हि
तत् सम्बन्धाभावः ततः अपि न कार्यसंसिद्धिः ।।२३५।।

अर्थःजो एक वस्तु सर्वगत-व्यापक न मानवामां आवे पण अंशरहित, अणुपरिमाण तत्त्व मानवामां आवे तो बे अंशना तथा पूर्व -उत्तर अंशना संबंधना अभावथी एवी अणुमात्र वस्तुथी कार्यनी सिद्धि थती नथी.


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भावार्थःनिरंश, क्षणिक अने निरन्वयी वस्तुमां अथरक्रिया थाय नहि; माटे वस्तुने कथंचित् अंशसहित, नित्य तथा अन्वयी मानवी योग्य छे.

हवे द्रव्यमां एकत्वपणानो निश्चय करे छेः

सव्वाणं दव्वाणं दव्वसरूवेण होदि एयत्तं
णियणियगुणभेएण हि सव्वणि वि होंति भिण्णणि ।।२३६।।
सर्वेषां द्रव्याणां द्रव्यस्वरूपेण भवति एकत्वम्
निजनिजगुणभेदेन हि सवारणि अपि भवन्ति भिन्ननि ।।२३६।।

अर्थःबधांय द्रव्योने द्रव्यस्वरूपथी तो एकत्वपणुं छे तथा पोतपोताना गुणोना भेदथी सर्व द्रव्यो भिन्नभिन्न छे.

भावार्थःद्रव्यनुं लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप सत् छे. हवे ए स्वरूपथी तो सर्वने एकपणुं छे. तथा चेतनता-अचेतनता अदि पोतपोताना गुणथी भेदरूप छे माटे गुणना भेदथी बधां द्रव्यो न्यारां न्यारां छे. वळी एक द्रव्यने त्रिकाळवर्ती अनंत पर्याय छे, ते बधा पर्यायोमां द्रव्यस्वरूपथी तो एकता ज छे; जेम चेतनना पर्याय बधा चेतनस्वरूप छे. तथा प्रत्येक पर्याय पोतपोताना स्वरूपथी भिन्न-भिन्न पण छे, भिन्न-भिन्नकाळवर्ती छे तेथी भिन्न-भिन्न पण कहीए छीए; परंतु तेमने प्रदेशभेद नथी. तेथी एक ज द्रव्यना अनेक पर्याय होय छे तेमां विरोध नथी.

हवे द्रव्यने गुण-पर्यायस्वभावपणुं दर्शावे छेः

जो अत्थो पडिसमयं उप्पादव्वयध्रुवत्तसब्भावो
गुणपज्जयपरिणामो सो संतो भण्णदे समये ।।२३७।।
यः अर्थः प्रतिसमयं उत्पादव्ययध्रुवत्वसद्भावः
गुणपर्यायपरिणामः सः सत् भण्यते समये ।।२३७।।

अर्थःअर्थ एटले वस्तु छे; ते समये समये उत्पाद-व्यय


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-ध्रौव्यपणाना स्वभावरूप छे; अने तेने गुण-पर्याय परिणामस्वरूप सत्त्व सिद्धांतमां कह्युं छे.

भावार्थःजीवदि वस्तु छे ते ऊपजवुं, विणसवुं अने स्थिर रहेवुं ए त्रणे भावमय छे, अने जे वस्तु गुण-पर्याय परिणामस्वरूप छे ते ज सत् छे. जेम जीवद्रव्यनो चेतना गुण छे, तेनुं स्वभाव- विभावरूप परिणमन छे तथा समये समये परिणमे छे ते पर्याय छे. ए ज प्रमाणे पुद्गलद्रव्यना स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण छे; ते समये समये स्वभाव के विभावरूपे परिणमे छे ते पर्याय छे. ए प्रमाणे बधां द्रव्यो गुण-पर्याय परिणामस्वरूप प्रगट छे.

हवे द्रव्योना उत्पाद-व्यय ते शुं छे? ते कहे छेः

पडिसमयं परिणामो पुव्वो णस्सेदि जायदे अण्णो
वत्थुविणासो पढमो उववादो भण्णदे बिंदिओ ।।२३८।।
प्रतिसमयं परिणामः पूर्वः नश्यति जायते अन्यः
वस्तुविनाशः प्रथमः उपपादः भण्यते द्वितीयः ।।२३८।।

अर्थःवस्तुनो परिणाम समये समये प्रथमनो तो विणसे छे अने अन्य ऊपजे छे; त्यां पहेला परिणामरूप वस्तुनो तो नाश-व्यय छे तथा अन्य बीजो परिणाम उपज्यो तेने उत्पाद कहीए छीए. ए प्रमाणे उत्पाद-व्यय थाय छे.

हवे द्रव्यना ध्रुवपणानो निश्चय कहे छेः

णो उप्पज्जदि जीवो दव्वसरूवेण णेव णस्सेदि
तं चेव दव्वमित्तं णिच्चत्तं जाण जीवस्स ।।२३९।।
नो उत्पद्यते जीवः द्रव्यस्वरूपेण नैव नश्यति
तत् च एव द्रव्यमात्रं नित्यत्वं जानीहि जीवस्य ।।२३९।।

अर्थःजीवद्रव्य, द्रव्यस्वरूपथी तो नथी नाशने प्राप्त थतुं के नथी ऊपजतुं; तेथी द्रव्यमात्रथी जीवने नित्यपणुं समजवुं.


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भावार्थःए ज ध्रुवपणुं छे के जीव, सत्ता अने चेतनाथी तो ऊपजतो-विणसतो नथी अर्थात् जीव, कोई नवो ऊपजतो के विणसतो नथी.

हवे द्रव्यपर्यायनुं स्वरूप कहे छेः

अण्णइरूवं दव्वं विसेसरूवो हवेइ पज्जाओ
दव्वं पि विसेसेण हि उप्पज्जदि णस्सदे सददं ।।२४०।।
अन्वयिरूपं द्रव्यं विशेषरूपः भवति पर्यायः
द्रव्यं अपि विशेषेण हि उत्पद्यते नश्यति सततम् ।।२४०।।

अर्थःजीवदि वस्तु अन्वयरूप (सामान्यरूप) थी द्रव्य छे अने ते ज विशेषरूपथी पर्याय छे. वळी विशेषरूपथी द्रव्य पण निरंतर ऊपजे-विणसे छे.

भावार्थःअन्वयरूप पर्यायोमां सामान्यभावने द्रव्य कहे छे तथा विशेषभाव छे ते पर्याय छे. तेथी विशेषरूपथी द्रव्यने पण उत्पाद- व्ययस्वरूप कहे छे. परंतु एम नथी के पर्याय, द्रव्यथी जुदो ज ऊपजे विणसे छे. अभेदविवक्षाथी द्रव्य ज ऊपजे-विणसे छे तथा भेदविवक्षाथी (द्रव्य अने पर्यायने) जुदा पण कहीए छीए.

हवे गुणनुं स्वरूप कहे छेः

सरिसो जो परिणामो अणाइणिहणो हवे गुणो सो हि
सो सामण्णसरूवो उप्पज्जदि णस्सदे णेय ।।२४१।।
सदृशः यः परिणामः अनदिनिधनः भवेत् गुणः सः हि
सः सामान्यस्वरूपः उत्पद्यते नश्यति नैव ।।२४१।।

अर्थःद्रव्यनो जे परिणाम (भाव) सद्रश अर्थात् पूर्व-उत्तर बधीय पर्यायोमां समान होय-अनदिनिधन होय ते ज गुण छे. अने ते सामान्यस्वरूपथी ऊपजतो-विणसतो नथी.


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भावार्थःजेम जीवद्रव्यनो चेतनगुण तेनी सर्व पर्यायोमां मोजुद छेअनदिनिधन छे, ते सामान्यस्वरूपथी ऊपजतोविणसतो नथी पण विशेषरूपथी पर्यायमां व्यक्तरूप (प्रगटरूप) थाय ज छे, एवो गुण छे. तेवी रीते बधांय द्रव्योमां पोत-पोताना साधारण (सामान्य) तथा असाधारण (विशेष) गुणो समजवा.

हवे कहे छे के द्रव्य, गुण अने पर्यायनुं एकपणुं छे ते ज परमार्थे वस्तु छेः

सो वि विणस्सदि जायदि विसेसरूवेण सव्वदव्वेसु
दव्वगुणपज्जयाणं एयत्तं वत्थु परमत्थं ।।२४२।।
सः अपि विनश्यति जायते विशेषरूपेण सर्वद्रव्येषु
द्रव्यगुणपर्यायाणं एक त्वं वस्तु वत्थु परमार्थं ।।२४२।।

अर्थःसर्व द्रव्योमां जे गुण छे ते पण विशेषरूपथी ऊपजे विणशे छे. ए प्रमाणे द्रव्य-गुण-पर्यायोनुं एकपणुं छे अने ते ज परमार्थभूत वस्तु छे.

भावार्थःगुणनुं स्वरूप एवुं नथी के जे वस्तुथी सर्वथा भिन्न ज होय. गुण-गुणीने कथंचित् अभेदपणुं छे तेथी जे पर्याय ऊपजे विणसे छे ते गुणगुणीनो विकार छे (विशेष आकार छे). एटला माटे गुणने पण ऊपजताविणसता कहीए छीए. एवुं ज नित्यनित्यात्मक वस्तुनुं स्वरूप छे. ए प्रमाणे द्रव्य-गुण-पर्यायोनी एकता ए ज परमार्थभूत वस्तु छे.

हवे आशंका थाय छे केद्रव्योमां पर्याय विद्यमान ऊपजे छे के अविद्यमान ऊपजे छे? एवी आशंकानुं समाधान करे छेः

जदि दव्वे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति
ता उप्पत्ति विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्व ।।२४३।।
यदि द्रव्ये पयार्याः अपि विद्यमानाः तिरोहिताः सन्ति
तत् उत्पत्तिः विफला पटपिहिते देवदत्ते इव ।।२४३।।

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अर्थःजो ‘द्रव्यमां पर्यायो छे ते पण विद्यमान छे अने तिरोहित एटले ढंकायेला छे’ एम मानीए तो उत्पत्ति कहेवी ज विफल (व्यर्थ) छे. जेम देवदत्त कपडाथी ढंकायेलो हतो तेने उघाड्यो एटले कहे के ‘आ ऊपज्यो’, पण एम ऊपजवुं कहेवुं ते वास्तविक नथीव्यर्थ छे; तेम द्रव्यमां पर्याय ढांकीऊघडीने ऊपजती कहेवी ते परमार्थ नथी. माटे द्रव्यमां अविद्यमान पर्यायनी ज उत्पत्ति कहीए छीए.

सव्वाणं पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती
कालाईलद्धीए अणाइणिहणम्मि दव्वम्मि ।।२४४।।
सर्वेषां पर्यायाणां अविद्यमानानां भवति उत्पत्तिः
कालदिलब्ध्या अनदिनिधने द्रव्ये ।।२४४।।

अर्थःअनदिनिधन द्रव्यमां काळदि लब्धिथी सर्व पर्यायोनी अविद्यमान ज उत्पत्ति छे.

भावार्थःअनदिनिधन द्रव्यमां काळदि लब्धिथी अविद्यमान अर्थात् अणछती पर्याय ज ऊपजे छे. पण एम नथी के ‘बधी पर्यायो एक ज समयमां विद्यमान छे ते ढंकातीऊघडती जाय छे.’ परंतु समये समये क्रमपूर्वक नवीन नवीन ज पर्यायो ऊपजे छे. द्रव्य तो त्रिकाळवर्ती सर्व पर्यायोनो समुदाय छे अने काळभेदथी पर्यायो क्रमे थाय छे.

हवे द्रव्य अने पर्यायोने कथंचित् भेद-अभेदपणुं दर्शावे छेः

दव्वाण पज्जयाणं धम्मविवक्खाए कीरए भेओ
वत्थुसरूवेण पुणो ण हि भेदो सक्कदे काउं ।।२४५।।
द्रव्याणां पर्यायाणां धमरविवक्षया क्रियते भेदः
वस्तुस्वरूपेण पुनः न हि भेदः शक्यते कर्तुम् ।।२४५।।

अर्थःद्रव्य अने पर्यायमां धर्म-धर्मीनी विवक्षाथी भेद करवामां आवे छे; परंतु वस्तुस्वरूपथी भेद थई शकतो नथी.

भावार्थःद्रव्य अने पर्यायमां धर्म-धर्मीनी विवक्षाथी भेद


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करवामां आवे छे अर्थात् द्रव्य धर्मी छे अने पर्याय धर्म छे. वस्तुपणे ए बंने अभेद ज छे. कोई नैययिकदिक धर्म-धर्मीमां सर्वथा भेद माने छे; तेमनो मत प्रमाणबधित छे.

हवे द्रव्य अने पर्यायमां सर्वथा भेद माने छे तेमना मतमां दूषण दर्शावे छेः

जदि वत्थुदो विभेदो पज्जयदव्वाण मण्णसे मूढ
तो णिरवेक्खा सिद्धी दोह्णं पि य पावदे णियमा ।।२४६।।

यदि वस्तुतः विभेदः पर्यायद्रव्ययोः मन्यसे मूढ

ततः निरपेक्षा सिद्धिः द्वयोः अपि च प्राप्नोति नियमात् ।।२४६।।

अर्थःद्रव्य अने पर्यायमां (सर्वथा) भेद माने छे तेने कहे छे केहे मूढ! जो तुं द्रव्य अने पर्यायमां वस्तुपणाथी पण भेद माने छे तो द्रव्य अने पर्याय बंनेनी निरपेक्ष सिद्धि नियमथी प्राप्त थाय छे.

भावार्थः(एम मानतां) द्रव्य अने पर्याय जुदी जुदी वस्तु ठरे छे पण तेमां धर्म-धर्मीपणुं ठरतुं नथी.

हवे जेओ विज्ञानने ज अद्वैत कहे छे अने बाह्य पदार्थ मानता नथी. तेमना मतमां दूषण दर्शावे छेः

जदि सव्वमेव णाणं णाणारूवेहिं संठिदं एक्कं
तो ण वि किं पि विणेयं णेयेण विणा कहं णाणं ।।२४७।।
यदि सर्वं एव ज्ञानं नानारूपैः संस्थितं एकम्
तत् न अपि किमपि विज्ञेयं ज्ञेयेन बिना कथं ज्ञानम् ।।२४७।।

अर्थःजो बधीय वस्तु एक ज्ञान ज छे अने ते ज नानारूपथी स्थित छेरहे छे तो एम मानतां ज्ञेय कांई पण न ठर्युं, अने ज्ञेय विना ज्ञान ज केवी रीते ठरशे?

भावार्थःविज्ञानाद्वैतवादीबौद्धमती कहे छे के‘ज्ञानमात्र ज


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तत्त्व छे अने ते ज नानारूपथी बिराजे छे.’ तेने कहे छे केजो ज्ञानमात्र छे तो ज्ञेय कांई पण न रह्युं अने ज्ञेय नथी तो ज्ञान केवी रीते कहो छो? कारण के ज्ञेयने जाणे ते ज ज्ञान कहेवाय छे पण ज्ञेय विना ज्ञान नथी.

घडपडजडदव्वणि हि णेयसरूवणि सुप्पसिद्धणि
णाणं जाणेदि जदो अप्पादो भिण्णरूवणि ।।२४८।।
घटपटजडद्रव्यणि हि ज्ञेयस्वरूपणि सुप्रसिद्धनि
ज्ञानं जानति यतः आत्मनः भिन्नरूपणि ।।२४८।।

अर्थःघट, पट अदि समस्त जड द्रव्यो ज्ञेयस्वरूपथी भला प्रकारे प्रसिद्ध छे अने तेमने ज्ञान जाणे छे तेथी तेओ आत्माथी ज्ञानथी भिन्नरूप जुदां ठरे छे.

भावार्थःजडद्रव्य एवा ज्ञेयपदार्थो आत्माथी भिन्नरूप जुदा जुदा प्रसिद्ध छे तेनो लोप शी रीते करी शकाय? जो तेने न मानवामां आवे तो ज्ञान पण न ठरे, कारण के जाण्या विना ज्ञान शानुं?

जं सव्वलोयसिद्धं देहं गेहदिबहिरं अत्थं
जो तं पि णाण मण्णदि ण मुणदि सो णाणणामं पि ।।२४९।।
यत् सर्वलोकसिद्धं देहं गेहदिबाह्यं अर्थं
यः तदपि ज्ञानं मन्यते न जानति सः ज्ञाननाम अपि ।।२४९।।

अर्थःदेह-मकान अदि बाह्य पदार्थो सर्वलोकप्रसिद्ध छे, तेमने पण जो ज्ञान ज मानशो, तो ते वादी ज्ञाननुं नाम पण जाणतो नथी.

भावार्थःबाह्य पदार्थने पण ज्ञान ज मानवावाळो ज्ञाननुं स्वरूप ज जाणतो नथी ए तो दूर रहो, पण ज्ञाननुं नाम पण जाणतो नथी.

हवे नस्तिकवादी प्रत्ये कहे छेः

अच्छीहिं पिच्छमाणो जीवाजीवदि-बहुविहं अत्थं
जो भणदि णत्थि किंचि वि सो झुठ्ठाणं महाझुठ्ठो ।।२५०।।

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अक्षिभ्यां प्रेक्षमाणः जीवाजीवदि-बहुविधं अर्थम्
यः भणति नस्ति किञ्चिदपि सः जुष्टानां महाजुष्टः ।।२५०।।

अर्थःजे नस्तिकवादी जीव-अजीवदि घणा प्रकारना पदार्थोने आंखो वडे प्रत्यक्ष देखतो होवा छतां पण कहे छे के‘कांई पण नथी’ ते असत्यवादीओमां पण महा असत्यवादी छे.

भावार्थःप्रत्यक्ष देखाती वस्तुने पण ‘नथी’ एम कहेनारो महा जूठो छो.

जं सव्वं पि य संतं ता सो वि असंतओ कहं होदि
णत्थि त्ति किंचि तत्तो अहवा सुण्णं कहं मुणदि ।।२५१।।
यत् सर्वं अपि च सत् तत् सः अपि असत्कः कथं भवति
नस्ति इति किञ्चित् ततः अथवा शून्यं कथं जानति ।।२५१।।

अर्थःसर्व वस्तु सत्रूप छेविद्यमान छे, ते वस्तु असत्रूप अविद्यमान केम थाय? अथवा ‘कांई पण नथी’ एवुं तो शून्य छे, एम पण केवी रीते जाणे?

भावार्थःछती (विद्यमानप्रगटमोजूद) वस्तु अछती (अविद्यमान) केम थाय? तथा ‘कांई पण नथी’ तो एवुं कहेवावाळो जाणवावाळो पण न रह्यो, पछी ‘शून्य छे’ एम कोणे जाण्युं?

हवे आ ज गाथा पाठान्तररूपे आ प्रमाणे छेः

जदि सव्वं पि असंतं ता सो वि य संतओ कहं भणदि
णत्थि त्ति किं पि तच्चं अहवा सुण्णं कहं मुणदि ।।
यदि सर्वं अपि असत् तत् सः अपि च सत्कः कथं भणति
नस्ति इति किमपि तत्त्वं अथवा शून्यं कथं जानति ।।

अर्थःजो बधीय वस्तु असत् छे तो (असत् छे) एम कहेवावाळो नस्तिकवादी पण असत्रूप ठर्यो, तो पछी ‘कोई पण तत्त्व


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नथी.’ एम ते केवी रीते कहे छे? अथवा ‘कहेवावाळो पण नथी,’ तो शून्य छे एम शी रीते जाणे छे?

भावार्थःपोते प्रगट विद्यमान छे अने कहे छे के ‘कांई पण नथी’ पण एम कहेवुं ए मोटुं अज्ञान छे; तथा शून्यतत्त्व कहेवुं ए तो मात्र प्रलाप (फोगट बकवाद) ज छे, कारण के कहेवावाळो ज नथी तो आ कहे छे कोण? तेथी नस्तित्ववादी मात्र प्रलापी (मिथ्या बकवादी) छे.

किं बहुणा उत्तेण य जेत्तियमेत्तणि संति णामणि
तेत्तियमेत्ता अत्था संति ते णियमेण परमत्था ।।२५२।।
किं बहुना उक्तेन च यावन्मात्रणि सन्ति नामनि
तावन्मात्राः अर्थाः सन्ति च नियमेन परमार्थाः ।।२५२।।

अर्थःघणुं कहेवाथी शुं? जेटलां नाम छे तेटला ज नियमथी पदार्थो परमार्थरूपे छे.

भावार्थःजेटलां नाम छे तेटला सत्यार्थरूप पदार्थो छे. घणुं कहेवाथी बस थाओ! ए प्रमाणे पदार्थोनुं स्वरूप कह्युं.

हवे, ए पदार्थोने जाणवावाळुं ज्ञान छे तेनुं स्वरूप कहे छेः

णाणाधम्मेहिं जुदं अप्पाणं तह परं पि णिच्छयदो
जं जाणेदि सजोगं तं णाणं भण्णदे समए ।।२५३।।
नानाधर्मैः युतं आत्मानं तथा परं अपि निश्चयतः
यत् जानति स्वयोग्यं तत् ज्ञानं भण्यते समये ।।२५३।।

अर्थःजे नाना धर्मो सहित आत्माने तथा परद्रव्योने पोतानी योग्यतानुसार जाणे छे तेने सिद्धान्तमां निश्चयथी ज्ञान कहे छे.

भावार्थःपोताना आवरणना क्षयोपशम के क्षय अनुसार जाणवायोग्य पदार्थ जे पोते तथा पर, तेने जे जाणे छे ते ज्ञान छे. ए सामान्यज्ञाननुं स्वरूप कह्युं.


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हवे सर्वप्रत्यक्ष एवा केवळज्ञाननुं स्वरूप कहे छेः

जं सव्वं पि पयासदि दव्वपज्जायसंजुदं लोयं
तह य अलोयं सव्वं तं णाणं सव्वपच्चक्खं ।।२५४।।
यत् सर्वं अपि प्रकाशयति द्रव्यपर्यायसंयुतं लोकम्
तथा च अलोकं सर्वं तत् ज्ञानं सर्वप्रत्यक्षम् ।।२५४।।

अर्थःजे ज्ञान, द्रव्य-पर्यायसहित सर्व लोक तथा सर्व अलोकने प्रकाशे छेजाणे छे ते सर्वप्रत्यक्ष केवळज्ञान छे.

हवे ज्ञानने सर्वगत कहे छेः

सव्वं जाणदि जम्हा सव्वगयं तं पि वुच्चदे तम्हा
ण य पुण विसरदि णाणं जीवं चइऊण अण्णत्थ ।।२५५।।
सर्वं जानति यस्मात् सर्वगतं तदपि उच्यते तस्मात्
न च पुनः विसरति ज्ञानं जीवं त्यक्त्वा अन्यत्र ।।२५५।।

अर्थःज्ञान सर्व लोक-अलोकने जाणे छे तेथी ज्ञानने सर्वगत पण कहीए छीए, वळी ज्ञान छे ते जीवने छोडी अन्य ज्ञेय पदार्थोमां जतुं नथी.

भावार्थःज्ञान सर्व लोकालोकने जाणे छे तेथी तेने सर्वगत वा सर्वव्यापक कहीए छीए. परंतु ते जीवद्रव्यनो गुण छे माटे जीवने छोडी अन्य पदार्थोमां जतुं नथी.

हवे ‘ज्ञान जीवना प्रदेशोमां रहीने ज सर्वने जाणे छे’ एम कहे छेः

णाणं ण जदि णेयं णेयं पि ण जदि णाणदेसम्मि
णियणियदेसठियाणं ववहारो णाणणेयाणं ।।२५६।।
ज्ञानं न यति ज्ञेयं ज्ञेयं अपि न यति ज्ञानदेशे
निजनिजदेशस्थितानां व्यवहारः ज्ञानज्ञेयानाम् ।।२५६।।