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अर्थः — भवनवासीओमां असुरकुमारोना देहनी ऊंचाई पच्चीस धनुष अने तेना बाकीना नवे कुमारदेवोनी दस धनुष, व्यंतरोना देहनी उंचाई दस धनुष तथा ज्योतिषी देवोना देहनी उंचाई सात धनुष छे
हवे स्वर्गना देवोना देहनी उंचाई कहे छेः —
अर्थः — सौधर्म – ऐशान युगलना देवोनो देह सात हाथ ऊंचो छे, सनत्कुमार-माहेन्द्रयुगलना देवोनो देह छ हाथ ऊंचो छे, ब्रह्म -ब्रह्मोत्तर-लावन्त-कपिष्ट ए चार स्वर्गना देवोनो देह पांच हाथ ऊंचो छे, शुक्र-महाशुक्र-सतार-सहस्रार ए चार स्वर्गना देवोनो देह चार हाथ ऊंचो छे, आनत-प्राणतयुगलना देवोनो देह साडात्रण हाथ ऊंचो छे, आरण-अच्युतयुगलना देवोनो देह त्रण हाथ ऊंचो छे, अधो ग्रैवेयकना देवोनो देह अढी हाथ ऊंचो छे, मध्यम ग्रैवेयकना देवोनो देह बे हाथ ऊंचो छे, उपरना ग्रैवेयकना देवोनो देह दोढ हाथ ऊंचो छे तथा नव अनुदिश अने पंच अनुत्तरना देवोनो देह एक हाथ ऊंचो छे.
हवे भरत-ऐरावतक्षेत्रमां काळनी अपेक्षाए मनुष्योना शरीरनी ऊंचाई कहे छेः —
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अर्थः — अवसर्पिणीना पहेला काळमां मनुष्योनो देह त्रण कोश ऊंचो छे तथा छठ्ठा काळना अंतमां मनुष्योनो देह एक हाथ ऊंचो छे. वळी छठ्ठा काळना मनुष्यो वस्त्रदिथी रहित होय छे.
हवे एकेन्द्रिय जीवोनो जघन्य देह कहे छेः —
अर्थः — लब्ध्यपर्याप्तक सर्व जीवोनो देह घनअंगुलना असंख्यातमा भाग छे अने ते सर्व जघन्य छे तथा तेमां पण अनेक भेद छे.
भावार्थः — एकेन्द्रिय जीवोनो जघन्य देह पण नानो – मोटो होय छे अने ते घनांगुलना असंख्यातमा भागमां पण अनेक भेद छे. गोम्मटसारमां अवगाहनाना चोसठ भेदोनुं वर्णन छे, त्यांथी ते जाणवुं.
हवे बे इन्द्रिय अदिनी जघन्य अवगाहना कहे छेः —
अर्थः — बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोनो जघन्यदेह घनांगुलना असंख्यातमा भागे छे अने ते पण उपर उपर संख्यात गणो छे.
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भावार्थः — बे इन्द्रियना देहथी संख्यातगणो त्रण इन्द्रियनो देह छे, त्रण इन्द्रियना देहथी संख्यातगणो चार इन्द्रियनो देह छे अने तेनाथी संख्यातगणो पंचेन्द्रियनो देह छे.
हवे जघन्य अवगाहनाना धारक बे इन्द्रियदि जीव कोण कोण छे ते कहे छेः —
अर्थः — बे इन्द्रिय तो अणुद्धरीजीव, त्रण इन्द्रियमां कुंथुजीव, चार इन्द्रियमां काण-मक्षिका अने पंचेन्द्रियमां शालीसिक्थ नामनो मच्छ — ए त्रसपर्याप्त जीवोनो जघन्य देह कह्यो छे.
हवे जीवनुं लोकप्रमाणपणुं अने देहप्रमाणपणुं कहे छेः —
अर्थः — जीव लोकप्रमाण छे. वळी देहप्रमाण पण छे; कारण के तेमां संकोच-विस्तारधर्म होवाथी एवी अवगाहनशक्ति तेमां छे.
भावार्थः — लोकाकाशना असंख्यातप्रदेश छे तेथी जीवना पण तेटला ज प्रदेश छे. केवलसमुद्घात करे ते वेळा ते लोकपूरण थाय छे. वळी संकोच-विस्तारशक्ति तेमां छे तेथी जेवो देह पामे तेटला ज प्रमाण ते रहे छे अने समुद्घात करे त्यारे तेना प्रदेश देहथी बहार पण नीकळे छे.
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हवे कोई अन्यमती जीवने सर्वथा सर्वगत ज कहे छे तेनो निषेध करे छेः —
अर्थः — जो जीव सर्वगत ज होय तो सर्व क्षेत्रसंबंधी सुख -दुःखनी प्रप्ति तेने ज होय पण एम जोवामां आवतुं नथी. पोताना शरीरमां ज सुख-दुःखनी प्रप्ति जोईए छीए, तेथी पोताना शरीरप्रमाण ज जीव छे.
अर्थः — जेम अग्नि स्वभावथी ज उष्ण छे तेम जीव छे ते ज्ञानस्वभाव छे; तेथी अर्थान्तरभूत एटले पोताथी जुदा प्रदेशरूप ज्ञानथी ज्ञानी नथी.
भावार्थः — नैययिक अदि छे तेओ जीवनो अने ज्ञाननो प्रदेशभेद मानी कहे छे के ‘‘आत्माथी ज्ञान भिन्न छे अने ते समवाय तथा संसर्गथी एक थयुं छे तेथी तेने ज्ञानी कहीए छीए; जेम धनथी धनवान कहीए छीए तेम.’’ पण आम मानवुं ते असत्य छे. आत्मा अने ज्ञानने, अग्नि अने उष्णतामां जेवो अभेदभाव छे तेवो, तादात्म्यभाव छे.
हवे (गुण-गुणीने) भिन्न मानवामां दूषण दर्शावे छेः —
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अर्थः — जो जीवथी ज्ञान सर्वथा भिन्न ज मानीए तो ते बंनेमां गुणगुणीभाव दूरथी ज (अत्यंत) नाश पामे, अर्थात् आ जीवद्रव्य (गुणी) छे अने ज्ञान तेनो गुण छे एवो भाव ठरशे नहि.
हवे कोई पूछे के ‘गुण अने गुणीना भेद विना बे नाम केम कहेवाय?’ तेनुं समाधान करवामां आवे छेः —
अर्थः — जीव अने ज्ञानमां गुणगुणीभावथी कथंचित् भेद करवामां आवे छे. जो एम न होय तो ‘जे जाणे ते ज आत्मानुं ज्ञान छे’ एवो भेद केम होय?
भावार्थः — जो सर्वथा भेद होय तो ‘जाणे ते ज्ञान छे’ एवो अभेद केम कहेवाय? माटे कथंचित् गुणगुणीभावथी भेद कहेवामां आवे छे परंतु तेमां प्रदेशभेद नथी. ए प्रमाणे कोई अन्यमती गुण-गुणीमां सर्वथा भेद मानी जीव अने ज्ञानने सर्वथा अर्थान्तरभेद (पदाथरभिन्नतारूप भेद) माने छे तेना मतने निषेध्यो.
हवे, चार्वाकमती ज्ञानने पृथ्वी अदिनो विकार माने छे तेने निषेधे छेः —
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अर्थः — ज्ञानने पृथ्वी अदि पांच भूतोनो विकार माने छे ते चार्वाक भूतथी अर्थात् पिशाचथी ग्रहायो छे – घेलो छे; कारण के जीव विना ज्ञान क्यांय कोईने कोई ठेकाणे जोवामां आवे छे? क्यांय पण जोवामां आवतुं नथी.
हवे, एमां दूषण दर्शावे छेः —
अर्थः — आ जीव, सत्रूप अने चैतन्यरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्षप्रमाणथी प्रसिद्ध छे तेने चार्वाक मानतो नथी, पण ते मूर्ख छे. जो जीवने जाणतो – मानतो नथी तो ते जीवनो अभाव केवी रीते करे छे?
भावार्थः — जे जीवने जाणतो ज नथी ते तेनो अभाव पण कही शके नहीं. अभावने कहेवावाळो पण जीव छे, केम के सद्भाव विना अभाव पण कह्यो जाय नहि.
हवे तेने ज युक्तिपूर्वक जीवनो सद्भाव दर्शावे छेः —
अर्थः — जो जीव न होय तो पोताने थतां सुख-दुःखने कोण जाणे? तथा इन्द्रियोना स्पशारदिक विषयो छे ते बधाने विशेषताथी कोण जाणे?
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भावार्थः — चार्वाक (मात्र एक) प्रत्यक्षप्रमाणने माने छे. त्यां, पोताने थतां सुख-दुःखने तथा इन्द्रिओना विषयोने जाणे छे ते प्रत्यक्ष छे. हवे जीव विना प्रत्यक्षप्रमाण कोने होय? माटे जीवनो सद्भाव (अस्तित्व) अवश्य सिद्ध थाय छे.
हवे आत्मानो सद्भाव जेम सिद्ध थाय तेम कहे छेः —
अर्थः — जीव छे ते संकल्पमय छे, अने संकल्प छे ते सुख -दुःखमय छे. ते सुख-दुःखमय संकल्पने जे जाणे छे ते ज जीव छे. जे देह साथे सर्वत्र मळी रह्यो छे तो पण, जाणवावाळो छे ते ज जीव छे.
हवे जीव, देह साथे मळ्यो थको, सर्व कार्योने करे छे ते कहे छेः —
अर्थः — कारण के जीव छे ते देहथी मळ्यो थको ज सर्व कर्म -नोकर्मरूप बधांय कार्योने करे छे; तेथी ते कार्योमां प्रवर्ततो थको जे लोक तेने देह अने जीवनुं एकपणुं भासे छे.
भावार्थः — लोकोने देह अने जीव जुदा तो देखाता नथी पण बंने मळेला ज देखाय छे – संयोगथी कार्योनी प्रवृत्ति देखाय छे तेथी ते बंनेने एक ज माने छे.
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हवे जीवने देहथी भिन्न जाणवानुं लक्षण दर्शावे छेः —
अर्थः — जीव देहथी मळ्यो थको ज नेत्रोथी पदार्थोने देखे छे, देहथी मळ्यो थको ज कानोथी शब्दोने सांभळे छे, देहथी मळ्यो थको ज मुखथी खाय छे, जीभथी स्वाद ले छे तथा देहथी मळ्यो थको ज पगथी गमन करे छे.
भावार्थः — देहमां जीव न होय तो जडरूप एवा मात्र देहने ज देखवुं, स्वाद लेवो, सांभळवुं अने गमन करवुं इत्यदि क्रिया न होय; तेथी जाणवामां आवे छे के देहमां (देहथी) जुदो जीव छे अने ते ज आ क्रियाओ करे छे.
हवे ए प्रमाणे जीवने (देहथी) मळेलो ज मानवावाळा लोको तेना भेदने जाणता नथी एम कहे छेः —
अर्थः — देह अने जीवना एकपणानी मान्यता सहित लोक छे ते आ प्रमाणे माने छे के — हुं राजा छुं, हुं नोकर छुं, हुं शेठ छुं, हुं दरिद्र छुं, हुं दुर्बळ छुं, हुं बळवान छुं. ए प्रमाणे मानता थका देह अने जीव बंनेना तफावतने जाणता नथी.
हवे जीवना कर्तापणदि संबंधी चार गाथाओ कहे छेः —
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अर्थः — आ जीव सर्व कर्म नोकर्मने करतो थको तेने पोतानुं कर्तव्य माने छे माटे ते कर्ता छे, अने ते पोताने संसाररूप करे छे; वळी काळदि लब्धिथी युक्त थतो थको पोताने मोक्षरूप पण पोते ज करे छे.
भावार्थः — कोई जाणे के आ जीवनां सुख-दुःख अदि कार्योने इश्वर अदि अन्य करे छे पण एम नथी. पोते ज कर्ता छे – सर्व कार्यो पोते ज करे छे, संसार पण पोते ज करे छे, तथा काळलब्धि आवतां मोक्ष पण पोते ज करे छे, अने ए बधां कार्यो प्रत्ये द्रव्य-क्षेत्र-काळ -भावरूप सामग्री निमित्त छे ज.
अर्थः — कारण के जीव कर्मनुं फळ आ संसारमां भोगवे छे माटे भोक्ता पण ते ज छे; वळी संसारमां सुख-दुःखरूप अनेक प्रकारना कर्मना विपाकोने पण ते ज भोगवे छे.
अर्थः — आ जीव, अति तीव्र कषाययुक्त थाय त्यारे ते पोते
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ज पापरूप थाय छे तथा उपशमभाव — मंद कषाय — युक्त थाय त्यारे ते पोते ज पुण्यरूप थाय छे.
भावार्थः — क्रोध-मान-माया-लोभना अति तीव्रपणाथी तो पापपरिणाम थाय छे तथा तेना मंदपणाथी पुण्यपरिणाम थाय छे; ते परिणामो सहित (जीवने) पुण्यजीव तथा पापजीव कहीए छीए. वळी एक ज जीव बंने परिणामयुक्त थतां पुण्यजीव – पापजीव पण कहीए छीए. सिद्धांतनी अपेक्षाए तो एम ज छे. कारण के सम्यक्त्व सहित जीवने तो तीव्र कषायनी जड (मिथ्याश्रद्धान) कपावाथी पुण्यजीव कहीए छीए तथा मिथ्याद्रष्टि जीवने भेदज्ञान विना कषायोनी जड कपाती नथी तेथी बहारथी कदचित् उपशमपरिणाम देखाय तो पण तेने पापजीव ज कहीए छीए१ एम जाणवुं.
अर्थः — आ जीव, रत्नत्रयरूप दिव्य नाव वडे, संसारथी तरे छे – पार पामे छे माटे आ जीव ज रत्नत्रयथी युक्त थतो थको उत्तम तीर्थ छे. १. आ संबंधमां श्री गोम्मटसारमां पण कह्युं छे केः —
अहीं छ द्रव्य अधिकारमां कह्या छे वळी जे सम्यक्त्वगुण सहित होय तथा जे व्रतयुक्त होय तेने पुण्यजीव कहीए छीए, तेथी विपरीत एटले सम्यक्त्व अने व्रत
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भावार्थः — जे तरे ते तीर्थ वा जेनाथी तरीए ते तीर्थ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप रत्नत्रयनाव (नौका) वडे आ जीव तरे छे तथा अन्यने तरवा माटे निमित्त थाय छे, तेथी आ जीव ज तीर्थ छे.
हवे अन्य प्रकारथी जीवना भेद कहे छेः —
अर्थः — बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा एवा त्रण प्रकारना जीवो छे; वळी परमात्मा पण अरहंत तथा सिद्ध एम बे प्रकारथी छे.
हवे तेमनुं स्वरूप कहे छे. त्यां बहिरात्मा केवा छे ते कहे छेः —
अर्थः — जे जीव मिथ्यात्वकर्मना उदयरूपे परिणम्यो होय, तीव्र कषाय (अनंतानुबंधी)थी सुष्ठु एटले अतिशय युक्त होय अने ए रहित जीव नियमथी पापजीव जाणवा. वळी मिथ्याद्रष्टि पापजीव छे ते अनंतानंत छे, सर्व संसाररशिमांथी अन्य गुणस्थानवाळानुं प्रमाण बाद करतां मिथ्याद्रष्टि जीवोनुं प्रमाण आवे छे. बीजुं सासादनगुणस्थानवाळा जीवो पण पापजीव छे कारण के तेओ अनंतानुबंधी चोकडीमांथी कोई एक प्रकृतिनो उदय थतां मिथ्यात्व सद्रश गुणने प्राप्त थाय छे, अने तेओ पल्यना असंख्यातभाग प्रमाण छे.
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निमित्तथी जीवने तथा देहने एक मानतो होय ते जीवने बहिरात्मा कहीए छीए.
भावार्थः — बाह्य परद्रव्यने जे आत्मा (स्वरूप) माने ते बहिरात्मा छे अने एम मानवुं मिथ्यात्व – अनंतानुबंधीकषायना उदयथी थाय छे. माटे भेदविज्ञान रहित थतो थको देहदिथी मांडी समस्त परद्रव्यमां अहंकार-ममकार युक्त बनेलो (जीव) बहिरात्मा कहेवाय छे.
हवे अंतरात्मानुं स्वरूप त्रण गाथाथी कहे छेः —
अर्थः — जेओ जिनवचनमां प्रवीण छे, जीव अने देहमां भेद (भिन्नता) जाणे छे अने जेमणे आठ दुष्ट मद जीत्या छे ते अंतरात्मा छे; अने ते उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य भेदथी त्रण प्रकारना छे.
भावार्थः — जे जीव जिनवाणीनो सारी रीते अभ्यास करी जीव अने देहना स्वरूपने भिन्न-भिन्न जाणे छे ते अंतरात्मा छे; तेने जति, लाभ, कुळ, रूप, तप, बळ, विद्या अने ऐश्वर्य ए आठ मदनां कारणो छे तेमां अहंकार – ममकार ऊपजता नथी. कारण के, ए बधा परद्रव्यना संयोगजनित छे; तेथी तेमां गर्व करता नथी. ए अंतरात्मा त्रण प्रकारना छे.
हवे ए त्रणे प्रकारोमां उत्कृष्ट अंतरात्मानुं स्वरूप कहे छेः —
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अर्थः — जे जीव पंचमहाव्रतथी युक्त होय, नित्य धर्मध्यान – शुक्लध्यानमां रमतो होय अने जीत्या छे निद्रा अदि प्रमादो जेणे ते उत्कृष्ट अंतरात्मा छे.
हवे मध्यम अंतरात्मानुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जे जीव श्रावकना व्रतोथी संयुक्त होय वा प्रमत्तगुणस्थानथी युक्त जे मुनि होय ते मध्य अंतरात्मा छे. केवा छे तेओ? श्री जिनेन्द्रवचनमां अनुरक्त – लीन छे, आज्ञा सिवाय प्रवर्तन करता नथी, मंदकषाय-उपशमभावरूप छे स्वभाव जेमनो, महा पराक्रमी छे, परिषहदि सहन करवामां द्रढ छे अने उपसर्ग आवतां प्रतिज्ञाथी जे चलित थता नथी.
हवे जघन्य अंतरात्मानुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जे जीव अविरतसम्यग्द्रष्टि छे अर्थात् सम्यग्दर्शन तो जेमने छे पण चरित्रमोहना उदयथी व्रत धारण करी शकता नथी ते जघन्य अंतरात्मा छे. ते केवा छे? जिनेन्द्रनां चरणोना उपासक छे अर्थात् जिनेन्द्र, तेमनी वाणी तथा तेमने अनुसरनारा निर्ग्रंथगुरुनी भक्तिमां तत्पर छे, पोताना आत्माने सदाय निंदता रहे छे, चरित्रमोहना उदयथी व्रत धार्यां जतां नथी अने तेनी भावना निरंतर
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रहे छे, तेथी पोताना विभावभावोनी निंदा करता ज रहे छे, गुणोना ग्रहणमां सम्यक् प्रकारथी अनुरागी छे, जेमनामां सम्यग्दर्शनदि गुण देखे तेमना प्रत्ये अत्यंत अनुरागरूप प्रवर्ते छे, गुणो वडे पोतानुं अने परनुं हित जाण्युं छे तेथी गुणो प्रत्ये अनुराग ज थाय छे. ए प्रमाणे त्रण प्रकारना अंतरात्मा कह्या ते गुणस्थान अपेक्षाए जाणवा.
भावार्थः — चोथा गुणस्थानवर्ती जघन्य अंतरात्मा छे, पांचमा अने छठ्ठा गुणस्थानवर्ती मध्य अंतरात्मा छे तथा सातमाथी मांडीने बारमा गुणस्थान सुधीना (साधको) उत्कृष्ट अंतरात्मा जाणवा.
हवे परमात्मानुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — शरीरसहित अरहंत छे; ते केवा छे? केवलज्ञान द्वारा जेओ सकल पदार्थोने जाणे छे ते परमात्मा छे; तथा शरीररहित अर्थात् ज्ञान ज छे शरीर जेओने ते सिद्ध छे. केवा छे ते? ते शरीररहित परमात्मा सर्व उत्तम सुखोने प्राप्त थया छे.
भावार्थः — तेरमा ने चौदमा गुणस्थानवर्ती अर्हंत शरीरसहित परमात्मा छे तथा सिद्धपरमेष्ठी शरीररहित परमात्मा छे.
हवे ‘परा’ शब्दनो अर्थ कहे छेः —
अर्थः — जे समस्त कर्मोनो नाश थतां पोताना स्वभावथी ऊपजे
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तेने ‘परा’ कहीए छीए. वळी कर्मथी ऊपजता औदयिकदि भावोनो नाश थतां जे ऊपजे तेने पण ‘परा’ कहीए छीए.
भावार्थः — परमात्मा शब्दनो अर्थ आ प्रमाणे छेः ‘परा’ एटले उत्कृष्ट तथा ‘मा’ एटले लक्ष्मी; ते जेने होय एवा आत्माने परमात्मा कहीए छीए. जे समस्त कर्मोनो नाश करी स्वभावरूप लक्ष्मीने प्राप्त थया छे एवा सिद्ध, ते परमात्मा छे. वळी घतिकर्मोना नाशथी अनंतचतुष्टयरूप लक्ष्मीने जेओ प्राप्त थया छे एवा अरहंत, ते पण परमात्मा छे. वळी तेओने ज ‘औदयिकदि भावोनो नाश करी परमात्मा थया’ एम पण कहीए छीए.
हवे कोई ‘जीवने सर्वथा शुद्ध ज’ कहे छे तेना मतने निषेधे छेः —
अर्थः — जो बधाय जीवो अनदिकाळथी पण शुद्धस्वभावरूप छे तो बधायने तपश्चरणदि विधान छे ते निष्फळ थाय छे.
अर्थः — जो जीव सर्वथा शुद्ध ज छे तो देहने केम ग्रहण करे छे? नाना प्रकारनां कर्मोने केम करे छे? तथा ‘कोई सुखी छे – कोई दुःखी छे’ एवा नाना प्रकारना तफावतो केम होय छे? माटे ते सर्वथा शुद्ध नथी.
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हवे अशुद्धता अने शुद्धतानुं कारण कहे छे.
अर्थः — बधाय जीवो अनदिकाळथी कर्मोथी बंधायेला छे, तेथी तेओ संसारमां परिभ्रमण करे छे अने पछी ए कर्मोना बंधनोने तोडी सिद्ध थाय छे त्यारे तेओ शुद्ध अने निश्चळ थाय छे.
हवे जे बंधनथी जीव बंधायेलो छे ते बंधननुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जीवना प्रदेशोनो अने कर्मोना स्कंधोनो परस्पर प्रवेश थवो अर्थात् एकक्षेत्रावगाह संबंध थवो ते जीवने प्रदेशबंध छे अने ते ज प्रकृति, स्थिति तथा अनुभागरूप सर्व बंधनुं पण लय अर्थात् एकरूप होवुं छे.
हवे सर्व द्रव्योमां जीव द्रव्य ज उत्तम-परम तत्त्व छे एम कहे छेः —
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अर्थःजीवद्रव्य उत्तम गुणोनुं धाम छेज्ञानदि उत्तम गुणो एमां ज छे, सर्व द्रव्योमां एक आ ज द्रव्य प्रधान छे. कारण के, सर्व द्रव्योने जीव ज प्रकाशे छे, सर्व तत्त्वोमां परमतत्त्व जीव ज छे अने अनंतज्ञान-सुखदिनो भोक्ता पण जीव ज छे — एम हे भव्य! तुं निश्चयथी जाण.
हवे जीवने ज उत्तम तत्त्वपणुं शाथी छे? ते कहे छेः —
अर्थः — जीव छे ते अंतस्तत्त्व छे तथा बाकीनां बधांय द्रव्यो बाह्यतत्त्व छे — ज्ञानदि रहित छे, अने ज्ञानरहित जे द्रव्य छे ते हित -अहित अर्थात् हेय-उपादेय वस्तुने केम जाणे?
भावार्थः — जीवतत्त्व विना बधुं शून्य छे माटे सर्वने जाणवावाळो तथा हित-अहितने एटले के हेय-उपादेयने समजवावाळो एक जीव ज परम तत्त्व छे.
हवे पुद्गलद्रव्यनुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — सर्व लोकाकाश सूक्ष्म-बादर पुद्गलद्रव्योथी सर्व प्रदेशोमां भरेलुं छे. केवां छे ते पुद्गलद्रव्यो? नाना प्रकारनी शक्तिओ सहित छे.
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भावार्थः — शरीरदि अनेक प्रकारनी परिणमनशक्तिथी युक्त सूक्ष्म-बादर पुद्गलोथी सर्व लोकाकाश भरेलो छे.
अर्थः — रूप-रस-गंध-स्पशारदि परिणामस्वरूपे, जे इन्द्रियो द्वारा ग्रहण करवा योग्य छे ते, सर्व पुद्गल द्रव्य छे अने ते संख्या अपेक्षाए जीवरशिथी अनंत गणां द्रव्य छे.
हवे पुद्गलद्रव्यने जीवनुं उपकारीपणुं कहे छेः —
अर्थः — पुद्गलद्रव्य जीवने घणा प्रकारनो उपकार करे छे; देह करे छे, इन्द्रियो करे छे, वचन करे छे तथा उच्छ्वास-निश्वास करे छे.
भावार्थः — संसारी जीवोना देहदिक, पुद्गलद्रव्योथी रचायेला छे अने ए वडे जीवनुं जीवितव्य छे ए उपकार छे.
अर्थः — उपर कह्या उपरांत पुद्गल द्रव्य जीवने अन्य पण उपकार करे छे. ज्यां सुधी आ जीवने संसार छे त्यां सुधी घणा
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परिणाम करे छे. जेम के — मोहपरिणाम, परद्रव्य साथे ममत्वपरिणाम, अज्ञानमय परिणाम तथा ए ज प्रमाणे सुख-दुःख, जीवन-मरण अदि अनेक प्रकारना (परिणाम) करे छे. अहीं ‘उपकार’ शब्दनो अर्थ ‘ज्यारे उपादान कार्य करे त्यारे निमित्तकारणमां कर्तापणानो आरोप करवामां आवे छे.’ एवो अर्थ सर्वत्र समजवो.
हवे ‘जीव पण जीवने उपकार करे छे’ एम कहे छेः —
अर्थः — जीवो पण जीवोने परस्पर उपकार करे छे अने ते सर्वने प्रत्यक्ष ज छे. सरदार चाकरने, चाकर सरदारने, आचार्य शिष्यने – शिष्य आचार्यने, मातपिता पुत्रने, पुत्र मातपिताने, मित्र मित्रने, स्त्री भरथारने इत्यदि प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे. त्यां ए परस्पर उपकारमां पुण्य-पापकर्म नियमथी प्रधान कारण छे.
हवे ‘पुद्गलनी पण मोटी शक्ति छे’ एम कहे छेः —
अर्थः — पुद्गलद्रव्यनी पण कोई एवी अपूर्व शक्ति जोवामां आवे छे के जीवनो केवळज्ञान स्वभाव छे ते पण जे शक्तिथी विणसी जाय छे.
भावार्थः — जीवनी अनंत शक्ति छे तेमां केवलज्ञान शक्ति एवी छे के जेनी व्यक्ति (प्रकाश-प्रगटता) थतां सर्व पदार्थोने ते एक काळमां जाणे
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छे. एवी व्यक्ति (प्रगटता)ने पुद्गल नष्ट करे छे — प्रगट थवा देतुं नथी. ए अपूर्व शक्ति छे. ए प्रमाणे पुद्गलद्रव्यनुं निरूपण कर्युं.
हवे धर्म अने अधर्मद्रव्यनुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जीव अने पुद्गल ए बंने द्रव्योने जे अनुक्रमे गमन अने स्थितिनां सहकारीकारण छे ते धर्म अने अधर्मद्रव्य छे, अने ते बंनेय लोकाकाशप्रमाण प्रदेशने धारण करे छे.
भावार्थः — जीव-पुद्गलोने गमनमां सहकारीकारण तो धर्मद्रव्य छे तथा स्थितिमां सहकारीकारण अधर्मद्रव्य छे; अने ते बंने लोकाकाशप्रमाण छे.
हवे आकाशद्रव्यनुं स्वरूप कहे छेः —
अर्थः — जे समस्त द्रव्योने अवकाश आपवामां समर्थ छे ते आकाशद्रव्य छे अने ते लोक तथा अलोकना भेदथी बे प्रकारनुं छे.
भावार्थः — जेमां सर्व द्रव्यो रहे एवा अवगाहनगुणने जे धारे छे ते आकाशद्रव्य छे, जेमां (पोतासहित बीजां) पांच द्रव्यो रहे छे ते तो लोकाकाश छे तथा जेमां (आकाश सिवाय बीजां) अन्य द्रव्यो नथी ते अलोकाकाश छे. ए प्रमाणे आकाशद्रव्यना बे भेद छे.