Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 453.

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अन्य गुरु शुं बतावे छे?’ ए बहुजनदोष छे.
९. ‘आ दोष छुपाव्यो छुपावानो नथी माटे कहेवो ज जोईए’
एम विचारी प्रगटव्यक्त दोष होय ते कहे, ते अव्यक्त दोष छे.
१०. पोताने लागेला दोषनी गुरु पासे आलोचना करी, कोई
अन्य मुनिए प्रायश्चित्त लीधुं होय तेने जोई ते प्रमाणे पोताने पण
दोष लाग्या होय तेनी आलोचना गुरु पासे नहि करतां पोतानी मेळे
प्रायश्चित्त लई ले, परंतु दोष प्रगट करवानो अभिप्राय न होय, ते
तत्सेवीदोष छे.
आवा दश दोषरहित सरळचित्त बनी बाळकनी माफक आलोचना
करे.
जं किं पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सद्धाए
णो पुणु हियए संकदि किं थोवं किं पि बहुयं वा ।।४५३।।
यत् किमपि तेन दत्तं तत् सर्वंः सः करोति श्रद्धया
नो पुनः हृदये शंकते किं स्तोकं किमपि बहुकं वा ।।४५३।।
अर्थःदोषनी आलोचना कर्या पछी आचार्ये जे कांई प्रायश्चित्त
आप्युं होय ते बधुंय श्रद्धापूर्वक ग्रहण करे पण हृदयमां एवी शंका
संदेह न राखे के आ आपेलुं प्रायश्चित्त थोडुं छे के घणुं छे?
भावार्थःतत्त्वार्थसूत्रमां प्रायश्चित्तना नव भेद कह्या छे
आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार
अने उपस्थापना. त्यां दोषने यथावत् कहेवो ते आलोचना छे, दोषने
मिथ्या कराववो ते प्रतिक्रमण छे, आलोचन
प्रतिक्रमण बंने कराववां ते
तदुभय छे, भविष्यनो त्याग कराववो ते विवेक छे, कायोत्सर्ग कराववो
ते व्युत्सर्ग छे, अनशनादि तप कराववो ते तप छे, दीक्षा छेदन करवी
अर्थात् घणा दिवसना दीक्षितने थोडा दिवसनो करवो ते छेद छे, संघ
बहार करवो ते परिहार छे, तथा फरीथी नवेसरथी दीक्षा आपवी ते
उपस्थापना छे. ए प्रमाणे प्रायश्चित्त नव प्रकारथी छे तथा तेमना पण
द्वादश तप ][ २६१