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अर्थः — संसार अर्थात् परिभ्रमण छे ते पांच प्रकारनुं छे. (१) द्रव्य अर्थात् पुद्गलद्रव्यमां ग्रहण-त्यागरूप परिभ्रमण, (२) क्षेत्र अर्थात् आकाशप्रदेशोमां स्पर्शवारूप परिभ्रमण, (३) काळ अर्थात् काळना समयोमां ऊपजवा-विनशवारूप परिभ्रमण, (४) भव अर्थात् नरकादि भवोना ग्रहण-त्यागरूप परिभ्रमण अने (५) भाव अर्थात् पोताने कषाय-योगस्थानरूप भेदोना पलटवारूप परिभ्रमण; – ए प्रमाणे पांच प्रकाररूप संसार जाणवो.
हवे तेनुं स्वरूप कहे छे. त्यां प्रथम द्रव्यपरावर्तन कहे छेः —
अर्थः — आ जीव, आ लोकमां रहेलां जे अनेक प्रकारनां ज्ञानावरणादि कर्मपुद्गलो तथा औदारिकादि शरीररूप नोकर्म-पुद्गलोने मिथ्यात्व-कषायो वडे संयुक्त थतो थको समये समये बांधे छे अने छोडे छे.
भावार्थः — मिथ्यात्व-कषायवश ज्ञानावरणादि कर्मोना समय- प्रबद्धने अभव्यराशिथी अनंत गुणा तथा सिद्धराशिथी अनंतमा भागे पुद्गलपरमाणुओना स्कंधरूप कार्मण वर्गणाओने (आ संसारी जीव) समये समये ग्रहण करे छे तथा पूर्वे जे ग्रहण करी हती के जे सत्तामां