Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 66-67.

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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
पंच प्रकाररूप संसारनुं स्वरूप
हवे पांच प्रकारना संसारनां नाम कहे छेः
संसारो पंचविहो दव्वे खेत्ते तहेव काले य
भवभमणो य चउत्थो पंचमओ भावसंसारो ।।६६।।
संसारः पञ्चविधः द्रव्ये क्षेत्रे तथैव काले च
भवभ्रमणः च चतुर्थः पञ्चमकः भावसंसारः ।।६६।।

अर्थःसंसार अर्थात् परिभ्रमण छे ते पांच प्रकारनुं छे. (१) द्रव्य अर्थात् पुद्गलद्रव्यमां ग्रहण-त्यागरूप परिभ्रमण, (२) क्षेत्र अर्थात् आकाशप्रदेशोमां स्पर्शवारूप परिभ्रमण, (३) काळ अर्थात् काळना समयोमां ऊपजवा-विनशवारूप परिभ्रमण, (४) भव अर्थात् नरकादि भवोना ग्रहण-त्यागरूप परिभ्रमण अने (५) भाव अर्थात् पोताने कषाय-योगस्थानरूप भेदोना पलटवारूप परिभ्रमण;ए प्रमाणे पांच प्रकाररूप संसार जाणवो.

हवे तेनुं स्वरूप कहे छे. त्यां प्रथम द्रव्यपरावर्तन कहे छेः

बंधदि मुंचदि जीवो पडिसमयं कम्मपुग्गला विविहा
णोकम्मपुग्गला वि य मिच्छत्तकसायसंजुत्तो ।।६७।।
बध्नाति मुञ्चति जीवः प्रतिसमयं कर्मपुद्गलान् विविधान्
नोकर्मपुद्गलान अपि च मिथ्यात्वकषायसंयुक्तः ।।६७।।

अर्थःआ जीव, आ लोकमां रहेलां जे अनेक प्रकारनां ज्ञानावरणादि कर्मपुद्गलो तथा औदारिकादि शरीररूप नोकर्म-पुद्गलोने मिथ्यात्व-कषायो वडे संयुक्त थतो थको समये समये बांधे छे अने छोडे छे.

भावार्थःमिथ्यात्व-कषायवश ज्ञानावरणादि कर्मोना समय- प्रबद्धने अभव्यराशिथी अनंत गुणा तथा सिद्धराशिथी अनंतमा भागे पुद्गलपरमाणुओना स्कंधरूप कार्मण वर्गणाओने (आ संसारी जीव) समये समये ग्रहण करे छे तथा पूर्वे जे ग्रहण करी हती के जे सत्तामां