Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 77-78.

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एकत्वानुप्रेक्षा ]

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अर्थःजीव एकलो ज पुण्यनो संचय करे छे, जीव एकलो ज देवगतिनां सुख भोगवे छे, जीव एकलो ज कर्मनो क्षय करे छे, अने जीव एकलो ज मोक्षने प्राप्त करे छे.

भावार्थःजीव एकलो ज पुण्योपार्जन करी स्वर्ग जाय छे अने जीव एकलो ज कर्मनाश करी मोक्ष जाय छे.

सुयणो पिच्छंतो वि हु ण दुक्खलेसं पि सक्कदे गहिदुं
एवं जाणंतो वि हु तो वि ममत्तं ण छंडेइ ।।७७।।
स्वजनः पश्यन्नपि स्फु टं न दुःखलेशं अपि शक्नोति ग्रहीतुम्
एवं जानन् अपि स्फु टं ततः अपि ममत्वं न त्यजति ।।७७।।

अर्थःस्वजन अर्थात् कुटुंबी छे ते पण आ जीवने दुःख आवतां तथा तेने देखवा छतां पण, ते दुःखने लेश पण ग्रहण करवाने असमर्थ थाय छे. आ प्रमाणे प्रगटपणे जाणवा छतां पण आ जीव कुटुंब प्रत्येनुं ममत्व छोडतो नथी.

भावार्थःपोताने थतुं दुःख पोते ज भोगवे छे, तेमां कोई भागीदार बनी शकतुं नथी; छतां आ जीवने एवुं अज्ञान छे के दुःख सहतो छतां पण परना ममत्वने छोडतो नथी.

हवे कहे छे के आ जीवने निश्चयथी एक धर्म ज शरण छेः

जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दहलक्खणो हवे सुयणो
सो णेइ देवलोए सो चिय दुक्खक्खयं कुणइ ।।७८।।
जीवस्य निश्चयतः धर्मः दशलक्षणः भवेत् स्वजनः
सः नयति देवलोके सः एव दुःखक्षयं करोति ।।७८।।

अर्थःआ जीवने पोतानो खरो हितस्वी निश्चयथी एक उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्म ज छे, कारण के ते धर्म ज देवलोकने प्राप्त करावे छे तथा ते धर्म ज सर्व दुःखना नाशने (मोक्षने) करे छे.