‘द्वादश अनुप्रेक्षा’ अर्थात् ‘बार भावना’ वीतराग जैनधर्ममां आध्यात्मिक साधनानुं एक महत्त्वपूर्ण उत्तम अंग छे. जिनागममां तेनो, ‘स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ।’ — ए रीते, संवरना उपायमां अंतर्भाव करवामां आव्यो छे. तेनी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ए छे के – अढी द्वीपनी, — पांच भरत, पांच ऐरावत अने पांच विदेह — ए पंदरेय कर्मभूमिमां थनारा त्रणे काळना सर्व तीर्थंकरो, गृहस्थदशामां निरपवाद नियमथी, आ ‘बार भावना’ना चिंतवनपूर्वक ज वैराग्यनी सातिशय वृद्धि पामीने, लौकांतिक देवो द्वारा नियोगजनित अनुमोदना थतां, स्वयं दीक्षित थाय छे.
अनुप्रेक्षा एटले भावना, चिंतवन, मनोगत अभ्यास, परिशीलन, वैराग्यभावना, संसार, शरीर तेम ज भोग वगेरेना अनित्य, अशरण, अशुचि आदि स्वभावनुं — अंतरमां नित्य, शरण अने परम शुचिस्वरूप निज त्रिकाळशुद्ध ज्ञायक आत्माना लक्ष तेम ज साधना सहित – संवेग तेम ज वैराग्य अर्थे फरी फरी चिंतवन करवुं ते अनुप्रेक्षा छे. (१) अनित्य-अनुप्रेक्षा, (२) अशरण-अनुप्रेक्षा, (३) संसार-अनुप्रेक्षा, (४) एकत्व-अनुप्रेक्षा, (५) अन्यत्व- अनुप्रेक्षा, (६) अशुचित्व-अनुप्रेक्षा, (७) आस्रव-अनुप्रेक्षा, (८) संवर- अनुप्रेक्षा, (९) निर्जरा-अनुप्रेक्षा, (१०) लोक-अनुप्रेक्षा, (११) बोधिदुर्लभ- अनुप्रेक्षा, अने धर्म-अनुप्रेक्षा — ए प्रमाणे अनुप्रेक्षाना बार भेद छे. आ बारेयना स्वरूपनुं, भवदुःखशामक ज्ञानवैराग्यनी वृद्धि अर्थे, वारंवार अनुचिंतन अवश्य कर्तव्य छे.
‘अनुप्रेक्षा’ विषे प्राचीन आचार्योए तेम ज मध्यकालीन विद्वानोए पण घणुं लख्युं छे. वीतराग दिगंबर संतो, भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तेम ज मुनिवर श्री कार्तिकेयस्वामीए (अपरनाम ‘स्वामी कुमारे’) तो आ विषय उपर स्वतंत्र ग्रंथो लख्या छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवनी कृति ‘बारस-अणुवेक्खा’ अने श्री कार्तिकेय मुनिवरनी कृति ‘स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा’ नामथी प्रसिद्ध छे. ते बंने अनुप्रेक्षा-ग्रंथोनी अनेक आवृत्तिओ मुद्रित थईने प्रकाशित थई गई छे.