बार अनुप्रेक्षाओमां प्रत्येक अनुप्रेक्षा द्रव्य-अनुप्रेक्षा अने भाव-अनुप्रेक्षाना भेदथी बे प्रकारे छे. साधकभावरूप शुद्धपरिणतिमय अंतरंग विरक्तिनी पुष्टि अर्थे भव-तन-भोगनां अध्रुव, अशरण अने अशुचिपणानुं तेम ज संसार वगेरेनुं विकल्पयुक्त चिंतन ते द्रव्य-अनुप्रेक्षा छे अने विकल्पयुक्त चिंतन साथे ज्ञानीने अंतरमां ज्ञानानंदस्वभावी आत्माना अवलंबने वर्तती जे विकल्पातीत वीतराग शुद्ध परिणति ते भाव-अनुप्रेक्षा छे. आ शुद्ध परिणतिमय भाव-अनुप्रेक्षा ज साधक जीवने संवर-निर्जरानुं कारण छे; विकल्पयुक्त चिंतनमय द्रव्य-अनुप्रेक्षा तो शुभ राग छे; ते तो आस्रव-बंधनुं कारण छे, संवर-निर्जरानुं नहि. साधक जीवने जेटले अंशे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय शुद्ध परिणति प्रगट थई छे तेटले अंशे तेने आस्रव – बंध थतो नथी, परंतु जेटले अंशे शुभाशुभ राग छे तेटले अंशे तेने नियमथी आस्रव-बंध थाय छे. ज्ञानीने अंतरंग शुद्ध परिणति साथे वर्तता ‘अनित्य’ आदि चिंतनना शुभ रागने व्यवहारे ‘अनुप्रेक्षा’ कहेवाय छे, परंतु ‘अनुप्रेक्षा’ तो संवरनुं कारण होवाथी, ते शुभरागयुक्त चिंतन परमार्थे ‘अनुप्रेक्षा’ नथी, ‘अनित्य’ आदिना चिंतनकाळे वर्तती अंतरंग शुद्ध परिणति ज निश्चय-अनुप्रेक्षा छे.
बार अनुप्रेक्षानुं माहात्म्य तेम ज फळ अचिंत्य छे. अनादि काळथी आज सुधी जे कोई भव्य जीवो पूर्णानंदमय मुक्तदशाने पाम्या छे ते बधा आ अनित्य आदि बार भावनाओनुं — एक, अनेक अथवा बधीयनुं — तत्त्वतः अंतरंग शुद्धियुक्त चिंतन के ध्यान करीने ज पाम्या छे. विशेष कहेवानी आवश्यकता नथी, एटलुं ज कहेवुं पर्याप्त छे के जे भूतकालमां तीर्थंकरो, चक्रवर्तीओ, बळदेवो, गणधरो वगेरे श्रेष्ठ पुरुषो सिद्धिने वर्या अने जेओ भविष्यमां वरशे ते बधुं आ भावनाओना तात्त्विक शुद्धियुक्त चिंतवननुं ज अचिंत्य फळ छे. खरेखर, ए बधुं ज्ञानवैराग्यवर्धक भावनाओनुं ज माहात्म्य छे. आ बार भावनाओना चिंतननो निरंतर अभ्यास करवाथी आत्मार्थी जीवोनां हृदयमां रहेलो कषायरूप अग्नि बुझाई जाय छे, परद्रव्यो प्रत्येनो रागभाव क्षीण थई जाय छे अने अज्ञानरूप अंधकारनो विलय थईने ज्ञानरूप दीपकनो प्रकाश थाय छे. माटे मोक्षेच्छु आत्माए बार भावनाओनुं तात्त्विक चिंतवन निरंतर करवुं जोईए, केमके अंतरंग शुद्धियुक्त आ बार भावना समस्त विभावो तेम ज कर्मोना क्षयनुं कारण थाय छे.