Tattvagyan Tarangini-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अध्याय-२ ][ १९
छे के जे न प्रगटे अथवा अहीं क्यो दोष छे के जे तरत ज न टळी
जाय? २०.
तिष्ठंत्वेकत्र सर्वे वरगुणनिकराः सौख्यदानेऽतितृप्ताः
संभूयात्यंतरम्या घरविधिजनिता ज्ञानजायां तुलायां
पार्श्वेन्यस्मिन् विशुद्धा ह्युपविशतु वरा केवला चेति शुद्ध-
चिद्रूपोहंस्मृतिर्भो कथमपि विधिना तुल्यतां ते न यांति
।।२१।।
पुण्यवश प्राप्त अति रम्य सुखदायि सौ,
श्रेÌ गुणसमूह एकत्र मूको;
ज्ञानरुप त्राजुना एक पल्ले बधाा,
अन्य पल्ले स्मरण मात्र राखो;
‘शुद्ध चिद्रूप हुं’ स्मरण केवल अहा!
शुद्ध अत्यंत उत्तम वखाणो;
कोइ रीते कदी तेनी तोले नहि,
समूह ए गुणतणो जरीय जाणो. २१.
अर्थ :अत्यंत रम्य, सद्भाग्ये मळेला, सुख आपवामां
अत्यंत समर्थ एवा सर्व उत्तम गुणोना समूहो, ज्ञानजनित त्राजवामां
एक बाजु एकठा थईने रहो, अने बीजी बाजुए विशुद्ध उत्तम मात्र
हुं शुद्ध चिद्रूप छुं ए स्मरण मूको; हे जनो! ते कोईपण रीते सरखा
समान थता नथी. २१
तीर्थतां भूः पदैः स्पृष्टा नाम्ना योऽघचयः क्षयं
सुरौधो याति दासत्वं शुद्धचिद्रक्तचेतसां ।।२२।।
शुद्ध चिद्रूपमां चित्त अनुरकत ते,
संतपद स्पृष्टभूमि तीर्थ थाये;
देवगण दास तेना बनीने रहे,
नाम तेनुं स्मर्ये पाप जाये. २२.