प्रकाशकीय निवेदन
जन्ममरणमय दुःखप्रचुर चतुर्गति-परिभ्रमणना अंतनो उपाय
एकमात्र जिनेन्द्रप्रणीत वीतराग धर्म छे. वीतराग धर्मनुं मूळ, स्व-परना अने
स्वभाव-विभावना भेदज्ञान द्वारा प्रगट थतुं, स्वानुभूतिप्रधान निर्मळ
सम्यग्दर्शन छे. ते प्राप्त करवा माटे विपरीत-अभिनिवेशविहीन-
तत्त्वज्ञानहेतुक—जीव आदि नव तत्त्वोना यथार्थ ज्ञानवडे भेदज्ञानना अभ्यास
द्वारा—निज-शुद्धात्मज्ञान अत्यंत आवश्यक छे. स्वानुभवस्यंदी ते पवित्र
ज्ञानना आश्रयभूत शुद्धात्मतत्त्वनुं अद्भुत स्वरुप भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेवे तेमनां श्री समयसार आदि अनेक परमागमोमां दर्शाव्युं छे.
उत्तरवर्ती अनेक ग्रंथकारोए पण, भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनुं अनुसरण करीने
तेनुं—आत्महित माटे मूळ प्रयोजनभूत शुद्धात्मद्रव्यनुं—निरुपण
पोतपोताना ग्रंथोमां कर्युं छे. भारक श्री ज्ञानभूषणजीए पण आ ‘तत्त्वज्ञान -
तरंगिणी’ नामना ग्रंथमां आत्मद्रव्यनुं वर्णन ‘शुद्धचिद्रूप’ शब्दथी घणुं सुंदर
कर्युं छे के जेनो रुचिपूर्वक स्वाध्याय करतां, ‘शुद्धचिद्रूप’ना अनुपम महिमाथी
भरपूर एक मधउरा संगीतनो अनुभव थाय छे.
आ युगमां मुमुक्षुजगतने भवांतकारी सम्यग्दर्शन अने स्वानुभूतिनुं
तथा ते बंनेना आलंबनभूत निजशुद्धात्मतत्त्वनुं—त्रिकाळी शुद्ध
ज्ञायकपरमभावनुं—अचिंत्य महत्त्व समजवामां आव्युं होय तो ते बधो
प्रताप—बधो उपकार—परमतारणहार परमकृपाळु पूज्य गुरुदेवश्री
कानजीस्वामीनो छे तेमना ज पुनित प्रभावथी मुमुक्षु समाजमां सम्यग्दर्शनना
विषयभूत ‘शुद्धचिद्रूप’ना अभ्यासनी प्रवृत्ति थइ छे.
‘निजशुद्धचिद्रूप’नी रुचिना पोषण अर्थे, अध्यात्मयुग प्रवर्तक
परमपूज्य गुरुदेवश्रीनी पवित्र साधनाभूमि सोनगढमां प्रशममूर्ति पूज्य
बहेनश्रीनी मंगलवर्षिणी छायामां प्रवर्तमान देवगुरुभक्तिभीनी अनेक
गतिविधिना अंगभूत सत्साहित्यप्रकाशनविभाग द्वारा, ‘पूज्य गुरुदेव श्री
कानजीस्वामी-जन्मशताब्दी’ वर्षना मंगल अवसरे, आ ‘तत्त्वज्ञान -