Tattvagyan Tarangini-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अध्याय-८ ][ ६७
क्षीरथी नीर, कर्दमथी जळ, ने तलथी तेल जुदां नीकळे,
तेम ज्ञानी प्रज्ञाए, चिद्रूप, निज तनथी विभिन्न कळे. २.
अर्थ :आ जगतमां जेम सुवर्णपाषाणमांथी सुवर्ण, मेलथी
वस्त्र, सुवर्णमांथी तांबु रूपुं वगेरे अथवा लोहमांथी अग्नि, शेरडीमांथी
रस, कादवमांथी जळ, मोरना पींछामांथी त्रांबु, तल आदिमांथी तेल,
तांबा वगेरे धातुमांथी जेम चांदी, दूधमांथी पाणी अने घी उपाय करीने
पृथक् करवामां आवे छे; तेम ज्ञानी वडे आत्माने शरीरथी भिन्न
करवामां आवे छे.
देशं राष्ट्रं पुराद्यं स्वजनवनधनं वर्णपक्षं स्वकीय
ज्ञातिं संबंधिवर्गं कुलपरिजनकं सोदरं पुत्रजाये
देहं हृद्वाग्निभावान् विकृतिगुणविधीन् कारकादीनि भित्वा
शुद्धं चिद्रूपमेकं सहजगुणनिधिं निर्विभागं स्मरामि
।।।।
देश राज्य पुर वर्ण पक्षके परिजन वन धान कुल स्वजनो,
पुत्र भ्रात भार्या संबंधाी, स्वकीय ज्ञाति तन मन वचनो;
सर्व विभाव कारक पर मुजथी विकृतहेतु भिन्न करुं,
निर्विभाग निर्मल निज चिद्रूप एक सहज गुण निधिा स्मरुं. ३.
अर्थ :देशने, राज्यने, पुर-नगर आदिने, स्वजन, वन,
धनने, ब्राह्मण आदि वर्णना पक्षने, पोतानी ज्ञातिने, संबंधी वर्गने, कुळ
परिवारने, भाईने, स्त्री-पुत्रने, शरीरने, मनने, वाणीरूप विभावोने
विकार करनारा कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोने भिन्न करीने, अखंड,
एक स्वाभाविक गुणना धामरूप, शुद्ध चिद्रूपने हुं स्मरुं छुं. ३.
स्वात्मध्यानामृतं स्वच्छं विकल्पानपसार्य सत्
पिवति क्लेशनाशाय जलं शैवालवत्सुधीः ।।।।
सौ विकल्पसेवाल खसेMी, निर्मल जलवत् ज्ञानीजनो;
स्वात्मधयान निर्मल अमृतने, पीवे कलेश हरवा भवनो. ४.