
भेदज्ञानी धर्मात्माने शरीरादिमां पोतापणानी कल्पना कदी थती नथी. चेतनागुण तो
आत्मानो छे, ते कांई शरीरनो नथी, शरीर तो चेतनारहित जड छे,–एवुं जाणनार ज्ञानी
पोतानी ज्ञानक्रियाने शरीरमां नथी जोडता, आ ईन्द्रियो वडे हुं जाणुं छुं–एम नथी मानता,
आत्माने भिन्नभिन्न जाणीने आत्मामां ज ज्ञानने जोडे छे–तेमां ज एकता करे छे.
शरीरादिनी क्रियाओ पण जाणनार ज छे, पण तेनी क्रियानो करनार आत्मा नथी.
उत्तर:– आत्मा न होय त्यारे शरीर स्थिर रहेलुं छे ते पण तेनी एक क्रिया ज
एक क्रिया छे तेम स्थिर रहेवुं ते पण एक क्रिया छे. आत्मा होय त्यारे पण शरीरनी
क्रिया शरीरथी थाय छे, ने आत्मा न होय त्यारे पण शरीरनी क्रिया शरीरथी ज थाय
आत्मा ते भाषानो जाणनार ज छे, पण अज्ञानी भ्रमथी एम माने छे के “हुं भाषा
बोल्यो.” ज्ञानी पोतानी ज्ञानक्रिया सिवाय देहादिनी कोई क्रियाने पोतानी मानता नथी;
ते तो ज्ञानस्वभावने ज पोतानो जाणीने तेमां ज एकाग्रता करे छे.
विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शिनः।।९३।।
बधी ज अवस्था भ्रमरूप छे; ते भले भणेलो–गणेलो ने डाह्यो होय, जागतो होय,
तोपण पोताने देहादिरूप मानतो होवाथी ते भ्रममां ज पडेलो छे, मोहथी ते उन्मत्त ज
छे. जगत कहे छे के डाह्यो छे, ज्ञानी कहे छे के गांडो छे. हुं चैतन्य छुं एवुं जेने भान
नथी ने देहने ज पोतानो मानी रह्या छे ते गांडा ज छे.