
जाण्या तेओना हर्ष–शोकनो अनुभव तेमने होतो नथी. पोताना स्वरूपमां तन्मयपणे रहे छे अने पर तो सहज
जणाई जाय छे. जो परने जाणतां तेमां एकमेक थता होय तो परनां सुख–दुःखनो अनुभव थाय. पण अहीं कहे
छे के परमां एकमेक थईने जाणतां नथी माटे परमार्थे परने जाणता नथी, तेथी ज तेमने परनां सुख–दुःखनुं
पण पर साथे एकमेक थईने परने जाणता नथी. एकमेक थईने एटलेके निश्चयथी जो परने जाणता होय तो
परनां सुख–दुःखमां तेओ तन्मय थई जाय. पण परनां सुख–दुःखने कोई आत्मा वेदतो नथी. अहीं तो कहे छे के
आत्मानो जे ज्ञान स्वभाव छे ते परमार्थे पोतामां ज तन्मय छे, माटे परमार्थे स्वने ज प्रकाशे छे, परने प्रकाशे
छे ते व्यवहार छे. अहीं सिद्धने राग–द्वेष नथी माटे सुख–दुःख नथी अने संसारीने राग–द्वेष छे तेथी सुखदुःख
छे. ए अत्यारे बताववुं नथी पण ज्ञानस्वभावना स्व–पर प्रकाशकपणामां निश्चय अने व्यवहार बतावे छे.
ज्ञान पोते पोताने जाणे छे ते निश्चय छे, अने ज्ञान परने जाणे छे ते व्यवहार छे.
कार्य करे एवी मान्यता तो प्रगट मिथ्यात्व छे.
सामाना रोगने जाणती वखते रागी जीवने जे दुःख थाय छे ते दुःख केम थाय छे? सामा अजीवतत्त्वने कारणे
दुःख नथी, पोते जाण्युं ते ज्ञान तो जीवतत्त्वनुं छे, ते जीवतत्त्वने लीधे दुःख नथी, पण दुःख उपर जे द्वेष आव्यो
छे ते पापतत्त्व ज दुःखनुं कारण छे. जो अजीवतत्त्व दुःखनुं कारण होय तो बधायने दुःख थाय, ज्ञानमां जाणवुं
ते दुःखनुं कारण होय तो केवळी भगवानने दुःख थाय; माटे अजीवतत्त्व के तेने जाणनारुं ज्ञान (–जीवतत्त्व)
दुःखनुं कारण नथी, पण जीव ते वखते जे द्वेषभाव करे छे ते पापतत्त्व छे, ते ज दुःखनुं कारण छे.
मिथ्यात्वनो त्याग थाय छे, एम वारंवार ज्ञानी पुरुषोए शास्त्रादि द्वाराए उपदेश्युं छतां जीव ते छोडवा
प्रत्ये उपेक्षित शा माटे थाय छे? ते वात विचारवा योग्य छे.”
निर्वाहने अर्थे शास्त्रना कोई एकवचनने बहुवचन जेवुं जणावी, जे मुख्य साधन एवा सत्समागम
समान के तेथी विशेष भार शास्त्र प्रत्ये मूके छे, ते जीवने पण अप्रशस्त शास्त्रीय अभिनिवेश छे.