Atmadharma magazine - Ank 063-064
(Year 6 - Vir Nirvana Samvat 2475, A.D. 1949)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >

Download pdf file of magazine: http://samyakdarshan.org/DGH
Tiny url for this page: http://samyakdarshan.org/Gi6EO5

PDF/HTML Page 15 of 33

background image
: ७२ : आत्मधर्म : पोष–माह : २४७५ :
आत्मा परने जाणतो नथी, ज्ञान परने जाणतां तेमां एक थईने जाणतुं नथी, तेथी तेमणे हर्ष–शोकवाळा जीवो
जाण्या तेओना हर्ष–शोकनो अनुभव तेमने होतो नथी. पोताना स्वरूपमां तन्मयपणे रहे छे अने पर तो सहज
जणाई जाय छे. जो परने जाणतां तेमां एकमेक थता होय तो परनां सुख–दुःखनो अनुभव थाय. पण अहीं कहे
छे के परमां एकमेक थईने जाणतां नथी माटे परमार्थे परने जाणता नथी, तेथी ज तेमने परनां सुख–दुःखनुं
वेदन नथी. स्वमां तन्मय रहीने स्वने अने परने जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे. सिद्धनी जेम संसारी जीवो
पण पर साथे एकमेक थईने परने जाणता नथी. एकमेक थईने एटलेके निश्चयथी जो परने जाणता होय तो
परनां सुख–दुःखमां तेओ तन्मय थई जाय. पण परनां सुख–दुःखने कोई आत्मा वेदतो नथी. अहीं तो कहे छे के
आत्मानो जे ज्ञान स्वभाव छे ते परमार्थे पोतामां ज तन्मय छे, माटे परमार्थे स्वने ज प्रकाशे छे, परने प्रकाशे
छे ते व्यवहार छे. अहीं सिद्धने राग–द्वेष नथी माटे सुख–दुःख नथी अने संसारीने राग–द्वेष छे तेथी सुखदुःख
छे. ए अत्यारे बताववुं नथी पण ज्ञानस्वभावना स्व–पर प्रकाशकपणामां निश्चय अने व्यवहार बतावे छे.
ज्ञान पोते पोताने जाणे छे ते निश्चय छे, अने ज्ञान परने जाणे छे ते व्यवहार छे.
पर पदार्थोनुं ज्ञान थाय छे ते तो यथार्थ छे, पर पदार्थोने जाणनारुं ज्ञान ज्ञानपणे परमार्थ छे. परंतु
आत्मानुं ज्ञान परद्रव्योने जाणे एम कहेवामां पर साथेनो संबंध आवे छे, माटे पर संबंधनी अपेक्षाथी ते
व्यवहार छे. अने आत्मा पोते पोताने जाणे छे ते परमार्थ छे, तेमां परनो संबंध आवतो नथी.
जो अभेद विवक्षाथी जोईए तो ‘आत्मा पोते पोताने जाणे छे’ एम कहेवामां भेद पडे छे माटे ते पण
व्यवहार छे; त्रिकाळी अभेद आत्मस्वभाव ते निश्चय छे. पण ते विवक्षा अहीं नथी.
परने जाणवुं एम कहेवुं ते व्यवहार छे, परंतु पोते पोताना ज्ञानने जाणतां तेमां परनुं ज्ञान आवी जाय
छे. ए रीते पोतानुं ज्ञान तो निश्चय छे. ज्ञान परने जाणे एम कहेवुं ते व्यवहारनय छे, पण ज्ञान परनुं कांई
कार्य करे एवी मान्यता तो प्रगट मिथ्यात्व छे.
() त्त् : ? : कोईकने शरीरमां रोग थयो होय त्यां तेने जाणतां ज्ञान शुं शरीरमां
पेसी जाय छे? अथवा तो शुं सामाना दुःख साथे ज्ञान तन्मय थई जाय छे? ज्ञान तो जुदुं ज रहीने जाणे छे.
सामाना रोगने जाणती वखते रागी जीवने जे दुःख थाय छे ते दुःख केम थाय छे? सामा अजीवतत्त्वने कारणे
दुःख नथी, पोते जाण्युं ते ज्ञान तो जीवतत्त्वनुं छे, ते जीवतत्त्वने लीधे दुःख नथी, पण दुःख उपर जे द्वेष आव्यो
छे ते पापतत्त्व ज दुःखनुं कारण छे. जो अजीवतत्त्व दुःखनुं कारण होय तो बधायने दुःख थाय, ज्ञानमां जाणवुं
ते दुःखनुं कारण होय तो केवळी भगवानने दुःख थाय; माटे अजीवतत्त्व के तेने जाणनारुं ज्ञान (–जीवतत्त्व)
दुःखनुं कारण नथी, पण जीव ते वखते जे द्वेषभाव करे छे ते पापतत्त्व छे, ते ज दुःखनुं कारण छे.
स्त्र िि
“बे अभिनिवेश आडा आवी ऊभा रहेता होवाथी जीव मिथ्यात्वनो त्याग करी शकतो नथी. ते
आ प्रमाणे:– लौकिक अने शास्त्रिय. क्रमे करीने सत्समागम योगे जीव जो ते अभिनिवेश छोडे तो
मिथ्यात्वनो त्याग थाय छे, एम वारंवार ज्ञानी पुरुषोए शास्त्रादि द्वाराए उपदेश्युं छतां जीव ते छोडवा
प्रत्ये उपेक्षित शा माटे थाय छे? ते वात विचारवा योग्य छे.”
“आत्मार्थ सिवाय, शास्त्रनी जे जे प्रकारे जीवे मान्यता करी कृतार्थता मानी छे, ते सर्व शास्त्रीय
अभिनिवेश छे. स्वच्छंदता टळी नथी, अने सत्समागमनो योग प्राप्त थयो छे, ते योगे पण स्वच्छंदना
निर्वाहने अर्थे शास्त्रना कोई एकवचनने बहुवचन जेवुं जणावी, जे मुख्य साधन एवा सत्समागम
समान के तेथी विशेष भार शास्त्र प्रत्ये मूके छे, ते जीवने पण अप्रशस्त शास्त्रीय अभिनिवेश छे.
आत्मा समजवा अर्थे शास्त्रो उपकारी छे, अने ते पण स्वछंदरहित पुरुषने; एटलो लक्ष राखी
सत्शास्त्र विचाराय तो ते शास्त्रीय अभिनिवेश गणवायोग्य नथी. संक्षेपथी लख्युं छे.”
(बाळबोध बीजी आवृत्ति पृ. ४५३)
–श्रीमद् राजचंद्र–