: मागशर : २००० आत्मधर्म : ९:
आ विषय आत्मार्थी बन्धु श्री. रामजीभाई माणेकचंद दोशीनी नोंधपोथीमांथी
लीधेल छे. ते क्रमश: दरेक अंके प्रगट थतो रहेशे.
निश्चय ए प्रमाणे थाय छे, तेथी गाथानो अर्थ नीचे प्रमाणे छे.)
अर्थ:– सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप. सम्यक्विनय, सम्यक्समिति अने सम्यक्गुप्तिमां जे
जीव भावक्रियानो रुचिवाळो छे ते खरो ‘क्रियारुचि’ ना नामथी कहेवाय छे.
प्रकरण २ जा
ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्षः भाग–२
१:–पहेलां प्रकरणमां आत्मानी शुद्ध अने अशुद्ध क्रिया एम बे प्रकारनी क्रिया कही, ते संबंधे वधारे स्पष्टता
अहीं करवामां आवे छे.
२:–आत्मानी शुध्ध क्रियाने ज्ञानादिक्रिया कहेवामां आवे छे, अने आत्मानी अशुद्ध क्रियाने क्रोधादिक्रिया
कहेवामां आवे छे; पहेली एटले ज्ञानक्रिया कोई पण ज्ञानी निषेधता नथी. अने बीजी एटले क्रोधादिक्रिया अनंत
ज्ञानीओए निषेधी छे. ‘ क्रोधादि ’ ए शब्दनो अर्थ ‘जीवना मिथ्यात्व अने राग–द्वेषरूप भाव’ एवो थाय छे; आ
संबंधमां श्री समयसारमां नीचे प्रमाणे गाथा ६९–७० नी टीकामां भगवान श्री अमृतचंद्र आचार्य देवे फरमाव्युं छे: –
‘जेम आ आत्मा जेमने तादात्म्यसिद्ध संबंध छे एवा आत्मा अने ज्ञानमां विशेष [तफावत; जुदां लक्षणो]
नहि होवाथी तेमनो भेद नहि देखतो थको, निशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे, अने त्यां [ज्ञानमां पोतापणे]
वर्ततो ते ज्ञानक्रिया स्वभावभूत होवाने लीधे निषेधवामां आवी नथी माटे, जाणे छे–जाणवारूप परिणमे छे, तेवी रीते
ज्यां सुधी आ आत्मा, जेमने संयोगसिद्ध संबंध छे एवा आत्मा अने क्रोधादि आस्त्रवोमां पण पोतानां
अज्ञानभावने लीधे विशेष नहि जाणतो थको तेमनो भेद देखतो नथी त्यां सुधी निःशंक रीते क्रोधादिमां पोतापणे वर्ते
छे; अने त्यां [क्रोधादिमां पोतापणे] वर्ततो ते जो के क्रोधादि क्रिया परभावभूत होवाथी निषेधवामां आवी छे, तो पण
ते स्वभावभूत होवानो तेने अध्यास होवाथी क्रोधरूप परिणमे छे. राग, रूप परिणमे छे. मोहरूप परिणमे छे. ×*
३:–ज्ञान क्रियाने ‘ज्ञप्ति क्रिया’ पण कहेवामां आवे छे. अने क्रोधादि क्रियाने ‘करोति क्रिया’ पण कहेवामां आवे
छे ते अशुद्ध क्रियाना बीजां पण नामो छे. ते हवे पछी कहेवामां आवशे.
४:–करवा रूप क्रियानी अंदरमां जाणवा रूप क्रिया भासती नथी. अने जाणवारूप क्रियानी अंदरमां करवारूप
क्रिया भासती नथी. माटे ज्ञप्ति क्रिया अने करोति क्रिया बन्ने भिन्न छे.
‘ हुं पर द्रव्यने करुं छुं. ’ एवा भावे ज्यारे आत्मा परिणमे छे, त्यारे ते कर्त्ताभाव रूप परिणमन क्रिया करतो
होवाथी अर्थात् करोतिक्रिया करतो होवाथी कर्ता ज छे, अने ज्यारे ‘ हुं परद्रव्यने जाणुं छुं. एम परिणमे छे, त्यारे
ज्ञाताभावे परिणमतो होवाथी अर्थात् ज्ञप्ति क्रिया करतो होवाथी ज्ञाता ज छे.
(जुओ गुजराती समयसार पानुं १८६ कलश ९७)
उपरना नियमथी सिद्ध थयुं के आत्मानुं ज्ञान अने जडनी क्रिया ए बे भेगा थवाथी मोक्ष थाय छे, एम कोई
ज्ञानीए स्वीकार्युं नथी; पण आत्माना सम्यग्ज्ञान अने ज्ञाननी स्थिरतारूप क्रिया एटले के शुद्ध ज्ञाननी क्रियावडे मोक्ष थाय
छे, एम अनंत ज्ञानीओए स्वीकार्युं छे. ज्ञप्ति क्रियाने सम्यक्दर्शन–ज्ञानपूर्वकनुं सम्यक्चारित्र पण कहेवामां आवे छे.
५:–जगतमां जे क्रिया छे ते बधी परिणाम= (अवस्था, हालत, दशा.) स्वरूप होवाथी खरेखर परिणामथी
भिन्न नथी, (परिणाम ज छे.) परिणाम पण परिणामीथी [द्रव्यथी] भिन्न नथी, कारण के परिणाम अने परिणामी
अभिन्न वस्तु छे, (जुदी जुदी बे वस्तु नथी.) माटे एम सिद्ध थयुं के, जे कोई क्रिया छे ते बधीए क्रियावानथी
[द्रव्यथी] भिन्न नथी; आम वस्तु स्थितिथी ज अर्थात् वस्तुनी एवी ज मर्यादा होवाने लीधे क्रिया अने कर्तानुं
अभिन्नपणुं सदाय तपतुं होवाथी, जीव जेम व्याप्यव्यापक भावथी पोताना परिणाम करे छे, अने भाव्यभावक भावथी
तेने ज अनुभवे छे. तेम जो व्याप्यव्यापक भावथी पुद्गल कर्मने पण करे अने भाव्यभावक भावथी तेने ज भोगवे
तो ते जीव, पोतानी अने परनी भेगी मळेली बे विधिथी अभिन्नपणानो प्रसंग आवतां स्व–परनो परस्पर विभाग
अस्त थई जवाथी [नाश पामवाथी] अनेक द्रव्य स्वरूप एक आत्माने अनुभवतो थको मिथ्याद्रष्टिपणाने लीधे
सर्वज्ञना मतनी बहार छे. बे द्रव्योनी विधि भिन्न ज छे, जडनी क्रिया चेतन करतुं नथी. चेतननी क्रिया जड करतुं
नथी. जे पुरुष एक द्रव्यने बे क्रिया करतुं माने ते मिथ्या द्रष्टि छे, कारण के बे द्रव्यनी क्रिया एक द्रव्य करे छे, एम
मानवुं ते जिननो मत नथी. (समयसार गाथा–८५ पानुं १२४–१२५) ए रीते क्रियानो अर्थ परिणाम, पर्याय.
हालत, दशा के वर्तमान अवस्था थाय छे; तेथी ‘ ज्ञान क्रियाभ्यामू मोक्ष ए सूत्रमां ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान अने विधिनो
अर्थ ‘ते ज्ञाननी ज्ञानमां स्थिरतारूप वर्तमान वर्तती अवस्था’