: १० : आत्मधर्म २००० : मागशर :
थाय छे. अने ते रीते ज सर्व विकारनो नाश थाय छे. ते पवित्रतानुं नाम मोक्ष एटले के विकार (अपवित्रता) थी
मुक्तपणुं छे.
नोट – व्यापक–फेलावनार; व्याप्य–फेलायेली दशा; भावक–भोगवनार; भाव्य–भोगववा लायक दशा; व्यापक
द्रव्य छे, व्याप्य तेनी पर्याय छे, भावक द्रव्य छे, भाव्य तेनी (भोगववा लायक) पर्याय [अवस्था] छे.
प्रकरण – ३ जाुं
ज्ञप्तिक्रिया: भाग १
१:– अहीं ज्ञप्तिक्रियानुं विशेष स्वरूप बताववामां आवे छे; तेनुं स्वरूप समयसारमां नीचे प्रमाणे आप्युं छे:–
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यक्तरोति किम्।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।। ६२।।
अर्थ:– आत्मा ज्ञान स्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे; ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा परभावनो कर्ता छे
एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञात्) छे. [गुजराती समयसार कलश–६२–पानुं १४३]
२:– आत्मानी क्रिया बे प्रकारनी छे; एक ‘ज्ञप्तिक्रिया अने बीजी ‘ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया; तेमां ज्ञाननी राग–
द्वेष, मोहरहित जाणवारूप क्रियाने ज्ञप्तिक्रिया कहेवामां आवे छे, अने जे राग–द्वेष मोहथी पदार्थनुं जाणवुं ते क्रियाने
‘ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया’ कहेवामां आवे छे. ज्ञेयार्थ परिणमन क्रियाथी बंध थाय छे, अने ज्ञप्ति क्रियाथी थतो नथी.
[प्रवचनसार अध्याय १. गाथा–पर नीचेनी टीका–पानुं ६८.]
३:– केटलाक कहे छे के:– ‘ज्ञान ते कांई क्रिया कहेवाय? बीजुं कांईक करवुं जोईए. ’ तेमने एटलो उत्तर बस छे
के:– ‘आत्मा ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करी शके? कां तो ज्ञान करे अगर तो अज्ञान करे. ’ ज्ञाननी अनादिथी चाली
आवती भूल टाळवी अने मिथ्याज्ञानने टाळी सम्यग्ज्ञान प्रगट करवुं ते ज्ञाननी क्रिया छे; ते ज्ञाननी क्रिया सम्यग्द्रष्टिने
[चोथा गुणस्थानने प्रगटे छे, अने ते ज्ञानमां स्थिर रहेवारूप क्रिया वधतां वधतां ते ज्ञाननी स्थिरतारूप पूर्ण क्रिया ते
‘यथाख्यात चारित्र’ छे. सम्यगद्रष्टिने ज आ ‘ज्ञप्ति क्रिया’ होय छे. अने मिथ्याद्रष्टिने ते क्रिया होती नथी. जीव क्रिया
संपन्न होवाथी मिथ्याद्रष्टिने ‘करोति क्रिया, ’ एटले के ‘ज्ञेयार्थ परिणमन क्रिया’ होय छे. उपरना पाना–२ मां मोहनो
अर्थ मिथ्यात्व थाय छे. अने राग–द्वेषनो अर्थ अनंतानुबंधीनो राग द्वेष थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने तेवो राग–द्वेष मोह
होतो नथी, तेथी सम्यद्रष्टिने राग–द्वेष मोह रहित जाणवानी क्रिया एटले के ज्ञप्तिक्रिया होय छे, आ संबंधमां श्री
समयसारमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे.–
‘ अहीं कोई पूछे छे के, अवरित सम्यग्द्रष्टि आदिने ज्यां सुधी चारित्र मोहनो उदय छे; त्यां सुधी ते कषायरूपे
परिणमे छे. तो तेने (करोति क्रियानो) कर्ता कहेवाय के नहि? तेनुं समाधान अवरित सम्यग्द्रष्टि वगेरेने श्रद्धा–ज्ञानमां
परद्रव्यना स्वामीपणारूप कर्तापणानो अभिप्राय नथी, कषायरूप परिणमन छे, ते उदयनी बळजोरीथी छे, तेनो ते
ज्ञाता छे, तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं तेने नथी. × × +’
ए रीते अवरित सम्यग्द्रष्टि आदिने द्रष्टि अपेक्षाए ज्ञप्ति क्रिया छे, पण करोति क्रिया नथी.
४:– आ ज्ञप्ति क्रियाने ‘ज्ञान क्रिया’ पण कहेवामां आवे छे तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे श्री समयसार नाटकमां आप्युं छे.
ज्ञान क्रियानुं स्वरूप दोहा (साध्य, साधक द्वार)
विनसि अनादि अशुद्धता, होई शुद्धता पोख
ता परिनतिको बुध कहै, ज्ञान किया सौं मोख।।३८।
अर्थ:– अनादिनी अशुद्धतानो नाश थाय अने शुद्धता पुष्ट थाय ते परिणतिने (आत्मानी शुध्ध अवस्थाने)
ज्ञानीओ ज्ञान क्रिया कहे छे. अने तेथी मोक्ष थाय छे.
प– क्रियानो अर्थ शुध्ध ज्ञानमां स्थिरतारूप चारित्र थाय छे. साचुं (सम्यक्) चारित्र, सम्यक् दर्शन अने
सम्यक्ज्ञान पूर्वक ज होई शके. एकला सम्यक् दर्शनथी मोक्ष थई शकतो नथी. तेम सम्यक् दर्शन विनाना चारित्रथी
मोक्ष थई शकतो नथी. तेथी ते बन्नेनुं एकपणुं थाय त्यां ज मोक्ष थाय छे. एम बताववा माटे ‘ज्ञान क्रियाथी मोक्ष
थाय छे. ’ एम कह्युं छे. आत्मानुं ज्ञान अने शरीरनी क्रिया ए बेना एकपणाथी मोक्ष थाय एम बताववा माटे कह्युं
नथी. समवाय सूत्रमां १३६ मी गाथामां द्वादशांगीनुं स्वरूप कह्युं छे, तेमां एक बोल ‘से एवं’ छे, तेनो अर्थ नीचे
प्रमाणे ‘एवं आयत्ति’ ना पेटामां कर्यो छे:– ‘आ (आचारांग) भावथी सम्यक् प्रकारे त्रणे रीते आ प्रमाणे आत्मा
थाय छे. (आत्मा आचाररूप ज थाय छे.) केमके ते [आचारांग] मां कहेली क्रियाना परिणामथी अभिन्न
(परिणामरूप) होवाथी ते आत्मा पण तद्रूप ज थाय छे. आ (एवं आय) सूत्र पुस्तकोमां जोयुं नथी. परंतु
नंदीसूत्रमां देखाय छे, तेथी अहीं तेनी व्याख्या करी छे. आ प्रमाणे ज्ञाननो सार क्रिया ज छे एवुं जणाववा माटे
क्रियानुं परिणाम कहीने हवे ज्ञानने आश्रिते कहे छे. ’ (समवायांग भावनगरनी प्रसिध्धि पानुं– –१२३)
उपरथी पण सिद्ध थाय छे के आत्माना शुद्धरूप (तद्रुप) परिणमनने क्रिया कहेवामां आवे छे.