: मागशर : २००० आत्मधर्म : ११ :
प्रकरण – ४ थुं ज्ञप्तिक्रिया भाग २
१:–आगळना प्रकरणमां कह्युं के सम्यक दर्शन (ज्ञान) अने ज्ञानमां स्थिरतारूप चारित्रथी मोक्ष थाय छे, ते
बन्ने आत्माना गुणनी शुध्ध अवस्था छे; चारित्र कांई जड शरीरनी अवस्था नथी. आ संबंधमां श्री समयसार
नाटकमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे:– [हिंदी समयसार पा. ३६३–४]
ज्यां शुद्ध ज्ञान छे त्यां चारित्र छे. (सवैया एकत्रीसा) ‘जहां शुद्ध ज्ञाननी कळा उदोत दीसै तहां शुध्धता
प्रवांन शुध्ध चरित कौ अंश है = (सर्व विशुध्धद्वार गाथा–८२)
अर्थ:–ज्यां शुद्ध ज्ञाननी कळानो प्रकाश देखाय छे, त्यां तेने अनुसार शुद्ध चारित्रनो अंश रहे छे.
२:–आ शुध्ध चारित्रने क्रिया कहेवामां आवे छे, एम गाथा ८४–८५ मां कह्युं छे. ते गाथाओ नीचे मुजब छे.
ज्ञान चारित्र पर पंगु – अंधनो द्रष्टांत दोहा
‘ज्यां अंध के कंध पर, चढे पंगु नर कोई! वाके दग वाके चरन, होंहि पथिक मिलि दोई।। ८४।।
जहां ज्ञान किरिया मिले, तहां मोख–मग सोई वह जानै पद कौ मरम, वह पदमैं थिर होई’ ।। ८५।।
अर्थ:–जेम कोई लंगडो मनुष्य आंधळानी कांध पर चडे तो लंगडानी आंखो अने आंधळाना पगना योगथी
गमन थाय छे, तेम ज्यां ज्ञान अने चारित्रनी एकता छे, ते मोक्षमार्ग छे; केमके ज्ञान आत्माना मर्मने जाणे छे, अने
चारित्र ते आत्माना पदमां स्थिरता प्रगटावे छे.
नोंध–द्रष्टांत बे जुदा जुदा द्रव्योनुं छे, अने दृष्टांतमां आत्मा एक ज द्रव्य छे; अने ज्ञान चारित्र ते एक ज
द्रव्यना बे गुणोनी शुद्ध पर्याय छे. द्रष्टांत हमेशां दृष्टांतने एक अंशे ज लागु पडे, सर्वांशे लागु पडे नहि.
३:–आवुं शुद्ध चारित्र [क्रिया] सम्यग्ज्ञानीने ज होय छे. एम हवे बताववामां आवे छे:–
भेदज्ञानीनुं पराक्रम [सवैया एकत्रीसा]
‘जैसें कोऊ मनुष्य अजान महाबलवान, खोदी मूळ वृच्छने उखारै गहि बाहु सौं तैरौं मतिमान दर्वकर्म–
भावकर्म त्यागी, हूवै रहै अतीत मति ज्ञानकी दशा हुसौं ।।
याहि विधि अनुसार मिटै मोह अंधकार जगै ज्योति केवळ प्रधान सविता हुसों।
समयसार नाटक बंधद्वारा गाथा. ५८ पानुं २६८
अर्थ–जेम कोई अजाण्यो महा बळवान माणस झाडना मूळने पोताना हाथथी उखेडी खोदी काढी नांखे छे, तेम भेदज्ञानी पुरुष
भावकर्म अने द्रव्यकर्मने त्यागी तेथी पर [अतीत] थई मतिज्ञाननी दशामां रहे छे, ते ज्ञाननी क्रिया अनुसार मोह अंधकारनो नाश करे छे.
रत्नकणक
जेने सम्यग्दर्शन न होय तेने सम्यग्ज्ञान होतुं नथी; सम्यक्ज्ञान विना सम्यकचारित्र गुण होतो नथी.
निर्गुणीने मोक्ष (कर्मथी मुक्ति) नथी अने जेने मोक्ष न होय तेने निर्वाण नथी; अर्थात् संसार परिभ्रमण होय छे.
श्री उत्तराध्ययन सुत्र २८–३०
४:–सम्यग्द्रष्टि ज मोक्षमार्गनो साधक छे; अने तेथी ज कह्युं छे के; ज्यां मोक्षमार्ग साध्यो त्यां कह्युं के, ‘
सम्यक्दर्शन, ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: ’ तथा एम पण कह्युं के ‘ ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्ष’ ए बन्ने सूत्रोनो भाव
एक ज छे. (जुओ मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं–३६०)
प:–ज्ञप्तिक्रियाने जेम ‘ज्ञान क्रिया’ कहेवामां आवे छे, तेम तेने अनुभवनरूप क्रिया, ज्ञानवश क्रिया, शुद्ध
चैतन्य क्रिया, शुद्ध चारित्र ए नामो पण कहेवामां आवे छे. अनुभवनरूप क्रिया ए भाव नीचेनी स्तुतिमां आवे छे.
नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्व भाषांतरच्छिेद।। १।।
आ स्तुतिमां ‘स्वानुभूत्या चकासते’ ए पदनो अर्थ एवो छे के, जीव पोतानी ज अनुभवनरूप क्रियाथी प्रकाशे
छे, अर्थात् पोताने पोताथी ज जाणे छे. जुओ गुजराती समयसार पा. २.
प्रकरण प मुं ज्ञप्तिक्रिया भाग ३
१:–अहीं क्रियानो अर्थ ज्ञानमां स्थिरतारूप शुद्ध चारित्र छे, एम उपर बताव्युं छे, तेथी ‘चारित्र’ शुं छे ते
अहीं बताववामां आवे छे.
२:–खरेखर आत्मामां पोताना स्वरूपना आचरण रूप जे चारित्र छे, ते धर्म अर्थात् वस्तुनो स्वभाव छे. जे
स्वभाव छे ते धर्म छे; ते कारणे पोताना स्वरूपने धारण करवाथी ‘चारित्र’ नुं नाम धर्म कहेवामां आवे छे. जे धर्म छे
ते ज समभाव छे. समभाव ते मिथ्यादर्शन अने मिथ्याचारित्र रहित आत्माना परिणाम ने साम्यभाव (समभाव)
छे; एटले ‘वीतराग चारित्र’ ते वस्तुनो स्वभाव छे. वीतराग चारित्र, निश्चय चारित्र, धर्म समभाव, साम्यभाव,
सम परिणाम ए एकार्थवाचक छे. मोह कर्मथी जुदा जे आत्माना निर्विकार परिणाम स्थिररूप सुखमय छे ते चारित्रनुं
स्वरूप छे. शुद्ध चित्स्वस्वरूपे चरण ते चारित्र छे. प्रवचनसार पानुं ८–९.
३:–त्यारे हवे प्रश्न ए थाय छे के:– शरीरनी क्रिया ते निश्चय चारित्रने सहायक खरी के केम?