Atmadharma magazine - Ank 001
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म २००० : मागशर :
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं
मासिक
आत्मधर्म
वर्ष १ लुं अंक १ मागशर २०००
दर महिनानी शुद २ ना प्रगट थाय छे. शरू थता नवा महिनाथी ज ग्राहक थई शकाय छे.
वार्षिक लवाजम रूा. २–८–० छुटक नकल ४ आना. परदेशनुं वा. ल. ३–२–० ग्राहको तरफथी सूचना आव्या वगर
नवा के जूना ग्राहकोने वी. पी. करवामां आवतुं नथी.
लवाजम पूरूं थये लवाजम पूरूं थयानी स्लीप छेल्ला अंकमां चोंटाडी ग्राहकने जाण करवामां आवे छे.
ग्राहक तरीके चालु रहेनारे कां तो मनी–ओर्डरथी लवाजम मोकली आपवुं अथवा वी. पी. थी लवाजम वसुल करवानी
सूचना लखी जणाववी.
म. ओ. के वी. पी. करवानी सूचना नहि आवे तो ग्राहक तरीके चालु रहेवा नथी ईच्छता एम समजी मासिक मोकलवुं
बंध करवामां आवशे.
नमुनानी नकल मफत मोकलवामां आवती नथी. माटे नमुनानी नकल मंगावनारे छ आनानी टिकिटो मोकलवी.
सरनामानो फेरफार अमोने तुरत जणाववो के जेथी नवो अंक नवा सरनामे मोकलावी शकाय.
ग्राहकोए पत्रवहेवार करती वखते पोतानो ग्राहक नंबर अवश्य जणाववा विनंति छे.
वर्षना कोई पण महिनाथी ग्राहको नोंधवामां आवता होवाथी, महिना करतां अंकना पूंठा उपर मोटा अक्षरे छापवामां
आवता संख्यांकनी ज गणतरी राखवामां आवे छे. जेटलामां अंकथी लवाजम भरवामां आवे ते अंकथी गणीने बार अंक
ग्राहकोने मोकलवामां आवे छे. एटले, ग्राहकोए पण महिनानी नहि पण अंकोनी संख्यानी ज गणतरी राखवी.
* सोल एजन्ट * शिष्ट साहित्य भंडार * विजयावाडी, मोटा आंकडिया काठियावाड *
अबुध्धस्य बोधनार्थं मुनिश्वरा देशयन्त्य भूतार्थ मू।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।।
६।।
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनि श्च यज्ञस्य।।
७।।
पुरुषार्थ सिध्धयुपाय।
आत्मानी अनादिनी सात भूलो
१. शरीरने पोतानुं मानवुं. [ते जीव तत्त्वनी विपरीत
श्रद्धा छे.]
२. शरीर उपजतां पोते उपज्यो अने शरीरनो नाश थतां
पोताना नाश थयो मानवो; [ते अजीव तत्त्वनी
विपरीत श्रद्धा छे.]
३. मिथ्यात्व रागादि प्रगट दुःखदायक छे. छतां तेनुं सेवन करी
सुख मानवुं. [ते आस्त्रव तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.]
४. शुभ अने अशुभ भाव बंध छे. तेना फळमां रति,
विपरीत श्रद्धा छे.)
५. वीतरागी विज्ञान आत्महितनुं कारण छे ते कष्टदायक
मानवुं [ते संवर तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.]
६. शुभाशुभ भावनी ईच्छाने न रोकवी अने पोतानी
[निज] शक्तिने खोवी. (ते निर्जरा तत्त्वनी विपरीत
श्रद्धा छे.)
७. निराकुळताने शिवरूप (मोक्षनुं स्वरूप) न मानवी. [ते
मोक्ष तत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.]
[छ ढाळानी बीजी ढाळनी गाथा ३–५–६–७ ने आधारे]
अर्थ–मुनिराज अज्ञानीने समजाववा अर्थे
असत्यार्थ जे व्यवहारनयने उपदेशे छे; परंतु जे केवल
व्यवहारने ज जाणे छे तेने तो उपदेश आपवो ज योग्य
नथी. वळी जेम कोई साचा सिंहने न जाणतो होय तेने तो
बिलाडुं ज सिंह छे; तेम जे निश्चयने न जाणतो होय तेने
तो व्यवहार ज निश्चयपणाने प्राप्त थाय छे.
व्रतादि छोडवाथी व्यवहारनुं हेयपणुं थतुं नथी.
प्रश्न:–तमे व्यवहारने असत्यार्थ अने हेय कहो छो
तो अमे व्रत, शील, संयमादि व्यवहार कार्य शा माटे
करीए? सर्व छोडी दईशुं.
उत्तर:–कांई व्रत, शील, संयमादिनुं नाम व्यवहार
नथी पण, तेने मोक्षमार्ग मानवो ए व्यवहार छे; ते छोडी
दे. वळी एवा श्रद्धानथी तेने तो बाह्य सहकारी जाणी
उपचारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे; पण ए तो परद्रव्याश्रित छे,
अने साचो मोक्षमार्ग तो वीतरागभाव छे ते स्वद्रव्याश्रित
छे. ए प्रमाणे व्यवहारने असत्यार्थ–हेय समजवो; पण
व्रतादि छोडवाथी कांई व्यवहारनुं हेय––पणुं थतुं नथी.
नीचली दशाए प्रवृत्तिमां शुभ भावने छोडवानुं फळ
व्रतादिने छोडी तुं शुं करीश? जो हिंसादिरूप
प्रवर्तिश तो त्यां तो मोक्षमार्गनो उपचार पण संभवतो
नथी, तेथी त्यां प्रवर्तवाथी शुं भलुं थशे? ऊलटो नरकादि
पामीश; माटे एम करवुं ए तो अविचार छे. जो व्रतादि
परिणति मटी केवल वीतराग उदासीन भावरूप थवुं बने
तो भले एम कर, पण नीचली दशामां एम थई शके नहि;
माटे व्रतादि साधन छोडी स्वच्छंदी थवुं योग्य नथी.