: मागशर : २००० आत्मधर्म : ५:
पंचपरमेष्ठिनुं स्वरूप
णमो अरहंताणं। णमो सिध्धाणं। णमो आयरियाणं। णमो उवज्जायाणं। णमो लोए सव्व साहुणं।
आ प्राकृत भाषामय नमस्कार मंत्र छे. ते महा मंगल स्वरूप छे. तेनुं संस्कृत नीचे प्रमाणे छे.
नमोऽर्हद्दम्य.। नमः सिध्धेभ्यः। नमः आचार्यभ्यः। नमः उपाध्यायेभ्यः। नमः लोके सर्व साधुभ्यः।
अर्थ:– लोकमां वर्तमान सर्व अरिहंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो अने साधुओने नमस्कार. ए प्रमाणे
नमस्कार कर्या छे. तेथी तेनुं नाम नमस्कार मंत्र छे.
हवे अहीं जेने नमस्कार कर्या छे तेनुं स्वरूप–चिंतवन करीए छीए. कारण के स्वरूप जाण्या विना ए नथी
समजातुं के, हुं कोने नमस्कार करुं छुं अने ते सिवाय उत्तम फळनी प्राप्ति कयांथी थाय? माटे प्रथम अरिहंतनुं स्वरूप
विचारीए.
अरिहंतनुं स्वरूप
जे गृहस्थपणुं छोडी मुनिधर्म अंगीकार करी, निज स्वभाव साधन वडे चार घाती कर्मोनो क्षय करी अनंत
चतुष्टय रूपे बिराजमान थया छे. त्यां अनंत ज्ञान वडे तो पोत पोताना अनंत गुण, पर्याय सहित समस्त जीवादि
द्रव्योने युगपत् विशेषपणाए करी प्रत्यक्ष जाणे छे. अनंत दर्शन वडे तेने सामान्य पणे अवलोके छे. अनंत वीर्य वडे
उपर्युक्त सामर्थ्यने धारे छे. तथा अनंत सुख वडे निराकुल परमानंदने अनुभवे छे.
वळी जे सर्वथा सर्व राग–द्वेषादि विकार भावोथी रहित थई शांत रस रूप परिणम्या छे, क्षुधा, तृषादि समस्त
दोषोथी मुक्त थई देवाधिदेवपणाने प्राप्त थया छे. आयुध, अंबरादि वा अंगविकारादि जे काम, क्रोधादि निंद्य भावोना
चिह्न छे, तेथी रहित जेनुं परम औदारिक शरीर थयुं छे, जेना वचन वडे लोकमां धर्मतीर्थ प्रवर्ते छे, जे वडे अन्य
जीवोनुं कल्याण थाय छे, अन्य लौकिक जीवोने प्रभुत्व मानवानां कारण रूप अनेक अतिशय (परम अद्भूत प्रभाव)
तथा घणा प्रकारना वैभवनुं जेने संयुक्तपणुं होय छे. तथा जेने पोताना हित अर्थे श्री गणधरादि मुनिओ अने
ईन्द्रादि उत्तम जीवो सेवन करे छे. एवा सर्व प्रकारे पूजवा योग्य श्री अरिहंत देवने अमारा नमस्कार हो.
हवे श्री सिद्ध प्रभुनुं स्वरूप कहीए छीए.
सिद्धनुं स्वरूप.
जे गृहस्थावस्था तजी, मुनिधर्मसाधन वडे चार घाती कर्मोनो नाश थतां अनंत चतुष्टय भाव प्रगट करी
केटलांक काळ वित्ये चार अघाती कर्मोनी पण भस्म थतां परम औदारिक (आ शरीरमां निगोद जीव रहेता नथी. धातु,
उपधातु–सर्वशुद्ध कपुर समान निर्मल थई जाय छे.) शरीरने छोडी ऊर्ध्वगमन स्वभावथी लोकना अग्रभागमां जई
बिराजमान थया छे, त्यां जेने संपूर्ण परद्रव्योनो संबंध छूटवाथी मुक्त अवस्थानी सिद्धि थई छे, चरम [अंतिम]
शरीरथी किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् जेना आत्मप्रदेशोनो आकार अवस्थित थयो छे. प्रतिपक्षी कर्मोनो नाश थवाथी
समस्त ज्ञान दर्शनादि आत्मिक गुणो जेने संपूर्ण पणे स्वभावने प्राप्त थया छे. जेने भावकर्मोनो अभाव थवाथी
निराकुल आनंदमय शुद्ध स्वाभाविक भावनुं विज्ञान थाय छे जे वडे पोताने सिद्ध समान थवानुं साधन थाय छे, तेथी
साधवा योग्य पोतानुं शुद्ध स्वरूप तेने दर्शाववा माटे जे प्रतिबिंब समान छे. एवी निष्पन्नताने पामेला सिद्ध
भगवानोने अमारा नमस्कार हो.
हवे आचार्य, उपाध्याय अने साधुनुं स्वरूप अवलोकीए छीए:–
आचार्य, उपाध्याय अने साधुनुं स्वरूप
जे विरागी बनी समस्त परिग्रह छोडी शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करी, अंतरंगमां तो ए शुद्धोपयोग
वडे पोते पोताने अनुभवे छे, परद्रव्यमां अहं बुद्धि धारता नथी. पोताना ज्ञानादिक स्वभावने ज पोताना माने छे.
परभावोमां ममत्व करता नथी, परद्रव्य वा तेना स्वभावो जे ज्ञानमां प्रतिभासे छे तेने जाणे छे तो खरा, परंतु ईष्ट
अनिष्ट मानी तेमां राग–द्वेष जे करता नथी, शरीरनी अनेक अवस्था थाय छे, बाह्य नानां प्रकारना निमित्तो बने छे,
परंतु त्यां कंईपण सुख दुःख जे मानता नथी, वळी पोताने योग्य बाह्यक्रिया जेम बने छे तेम बने छे. परंतु तेने
खेंची–ताणी जे करता नथी, जेओ पोताना उपयोगने बहु भमावता नथी, पण उदासीन थई निश्चल वृत्तिने धारण करे
छे. कदाचित् मंद रागना उदयथी शुभोपयोग पण थाय छे. ते वडे तेओ शुध्धोपयोगना बाह्य साधनोमां अनुराग करे
छे. परंतु ए राग भावने पण हेय जाणी दूर करवा ईच्छे छे, तीव्र कषायना उदयना अभावथी हिंसादिरूप
अशुभोपयोगरूप परिणतिनुं तो अस्तित्व ज जेने रह्युं नथी एवी अंतरंग अवस्था थतां बाह्य दिगंबर सौम्य
मुद्राधारी थया छे, शरीर संस्कारादि विक्रियाथी जेओ रहित थया छे, वनखंडादि विषे जेओ वसे छे. जेओ अठ्ठावीश
मूल गुणोनुं अखंडित पालन करे छे. बावीश परितहने जेओ सहन करे छे. बार प्रकारना तप जेओ आदरे छे.
कदाचित् ध्यान मुद्रा धरी प्रतिमावत् निश्चल थाय छे. कदाचित् अध्ययनादि बाह्य धर्मक्रियामां प्रवर्ते छे. कोई