Atmadharma magazine - Ank 001
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ६: आत्मधर्म २००० : मागशर :
वेळा मुनिधर्मने सहकारी शरीरनी स्थिति अर्थे योग्य आहारविहारादि क्रियामां सावधान थाय छे, ए प्रमाणे जेओ
जैन मुनि छे ते सर्वनी एवी ज अवस्था होय छे.
तेओमां सम्यग्ज्ञान–चारित्रनी अधिकता वडे प्रधानपदने पामी जेओ संघमां नायक थया छे, मुख्यपणे तो
निर्विकल्प स्वरूपाचरण विषे ज जेओ निमग्न छे. परंतु कदाचित् धर्मलोभी अन्य जीवादिने देखी राग–अंशना उदयथी
करुणा बुध्धि थाय तो तेमने धर्मोपदेश आपे छे. दीक्षाग्राहकने दीक्षा आपे छे; पोताना दोष प्रगट करे तेने प्रायश्चित
विधि वडे शुध्ध करे छे. एवा आचार पाळनारा–पळावनारा श्री आचार्य महाराजने अमारा नमस्कार हो. वळी जे
मुनि घणा जैनशास्त्रोना ज्ञाता होई संघमां पठन पाठनना अधिकारी बन्या होय, समस्त शास्त्रोना प्रयोजन भूत
अर्थने जाणी एकाग्र थई जे. पोताना स्वरूपने ध्यावे छे. परंतु कदाचित् कषाय–अंश ना उदयथी त्यां उपयोग न थंभे
तो पोते आगमनो स्वाध्याय करे छे, वा अन्य धर्मबुद्धिवानने भणावे छे. ए प्रमाणे समीपवर्ती भव्य जीवोने
अभ्यास कराववावाळा श्री उपाध्याय परमेष्ठिने नमस्कार हो. ए बे पदवी– धारक उपरांत मुनिपदना धारक छे. ते
समस्त मुनिओ आत्म स्वभावने साधे छे. पोतानो उपयोग पर द्रव्यमां ईष्ट–अनिष्टपणुं मानी फसाय नहि वा जाय
नहि तेम उपयोगने साधे छे, बाह्य साधन भूत तपश्चरणादि क्रियामां प्रवर्ते छे, वळी कदाचित् भक्ति वन्दनादि कार्यमां
पण प्रवर्ते छे, एवा आत्म स्वभावना साधक साधु परमेष्ठिने अमारा नमस्कार हो.
‘ए प्रमाणे अरहंतादिनुं स्वरूप वीतराग विज्ञानमय छे, ए वडे ज अरहंतादि स्तुतियोग्य महान थया छे.
केमके जीवतत्त्वथी तो सर्व जीवो समान छे, परंतु रागादि विकार वडे वा ज्ञाननी हीनता वडे जीव निंदा योग्य थाय छे.
हवे अरहंत–सिद्धने तो संपूर्ण रागादिनी हीनता तथा ज्ञाननी विशेषता थवाथी संपूर्ण वीतराग, विज्ञानभाव संभवे
छे; तथा आचार्य, उपाध्याय अने साधुने एकदेश रागादिनी हीनता तथा ज्ञाननी विशेषता थवाथी एकदेश वीतराग
भाव संभवे छे; माटे ए अरहंतादि स्तुति योग्य महान जाणवा.
तेमां पण एम समजवुं के ए अरहंतादि पदमां मुख्य पणे तो श्री तीर्थंकरनो तथा गौण पणे सर्व केवळीनो
अधिकार छे.
चौदमा गुणस्थानना अनंतर समयथी मांडी सिद्ध नाम जाणवुं.
वळी जेने आचार्यपद प्राप्त होय ते संघमां रहो वा एकाकी आत्मध्यान करो वा एकल विहारी हो वा
आचार्योमां पण प्रधानताने पामी गणधरपदना धारक हो ए सर्वनुं नाम आचार्य कहेवामां आवे छे.
पठन–पाठन तो अन्य मुनि पण करे छे. परंतु जेने आचार्य द्वारा उपाध्यायपद प्राप्त थयुं होय ते आत्म
ध्यानादि करता छतां पण उपाध्याय नाम ज पामे छे.
जे पदवी धारक नथी ते सर्व साधु संज्ञाना धारक जाणवा.
अहीं एवो कोई नियम नथी के पंचाचारना पालन वडे ज आचार्यपद होय छे, पठन–पाठनादि वडे उपाध्याय
पद होय छे, के मूलगुणना साधन वडे साधु पद होय छे. कारणके ए सर्व क्रियाओ तो सर्व मुनिजनोने साधारण रूप छे.
परंतु शब्दनयथी तेनो अक्षरार्थ आवो करवामां आवे छे; पण समभिरूढनयथी अपेक्षाए ज ए आचार्यादिनाम
जाणवां. जेम शब्दनयथी जे गमन करे तेने गाय कहे छे, परंतु गमन तो मनुष्यादि पण करे छे, एटले समभिरूढनयथी
पर्याय अपेक्षाए ए नाम छे; ते ज प्रमाणे अहीं पण समजवुं.
अहीं सिद्ध भगवाननी पहेलांं अरहंत प्रभुने नमस्कार कर्या तेनुं शुं कारण एवो कोईने संदेह उपजे तेनुं समाधान.
अरिहंत प्रभुने प्रथम नमस्कार करवानुं कारण.
नमस्कार करीए छीए ए तो पोतानुं प्रयोजन साधवानी अपेक्षाए करीए छीए. हवे अरिहंतथी उपदेशादिनुं
प्रयोजन विशेष सिद्ध थाय छे, माटे तेमने पहेलांं नमस्कार कराय छे.
ए प्रमाणे अरिहंतादिना स्वरूपनुं चिन्तवन करवुं; कारणके स्वरूपचिंतवन करवाथी कार्य विशेष सिद्ध थाय छे.
वळी ए अरिहंतादिने पंच परमेष्ठि पण कहीए छीए. कारणके जे सर्वोत्कृष्ट होय तेनुं नाम परमेष्ठ छे. ए पांच
परमेष्ठना समाहार [समुदाय] नुं नाम पंचपरमेष्ठि जाणवुं.
(मोक्षमार्ग प्रकाशक)
पांच महाव्रत, पांच समिति, पंचेन्द्रियनिरोध, छ आवश्यक, केश–लोच, स्नानाभाव, नग्तना, अंदतधोवन,
भूमिशयन, खडाभोजन, अने एक वखत आहारग्रहण–अठ्ठावीश मूल गुणो छे. ‘क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डांसमशक,
नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषधा (ध्यानासनथी अच्युति) शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श,
मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अने सदर्शन–बावीश परिषह छे. अनशन (उपवास) अवमौदर्य
(अल्पआहार) वृत्ति परिसंख्यान (वृत्तिनो संकोच), रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन (एकान्त पवित्र स्थानमां
शयन तथा आसन) कायकलेश (आतापना) आ छ बाह्य तप छे; प्रायश्चित (शुद्धि), विनय वैयावृत्य स्वाध्याय,
व्युत्सर्ग (बाह्य अने आभ्यंतर परिग्रहनो त्याग), ध्यान–आ छ आभ्यंतर तप छे.