अहिंसानुं स्वरूप
पूज्य सद्गुरुदेवना मागशर वद ८ सोमवार तारीख २०–१२–४३ ना व्याख्यान उपरथी
‘अहिंसा परमो धर्म’ ए वाकयनो अर्थ एवो थाय छे के, आत्मा शुध्ध ज्ञायक स्वभावे अखंड छे. तेनी
अंतरश्रद्धा करी तेमां एकाग्र रहेवुं तेनुं नाम अहिंसा अने ते ज परमधर्म छे.
परने मारवानुं के जीवाडवानुं कोई करी शकतुं ज नथी, मात्र तेवा भाव करे, परने मारवाना भाव ते
अशुभ–पापभाव छे; अने परने जीवाडवाना भाव ते शुभ भाव–पुण्य छे, पण ते खरी अहिंसा नथी; कारण के
पोते परने मारी के जीवाडी शकतो नथी, छतां हुं परने मारी के जीवाडी शकुं एम मान्युं एटले पोताने परनो
कर्ता मान्यो तेमां ज स्वभावनी हिंसा छे. लोको परनी दया पाळवी तेने अहिंसा कहे छे ते खरेखर तो अहिंसा
ज नथी.
हिंसा–अहिंसानी साची व्याख्या ज घणा भागे लोको जाणता नथी; तेनी साची व्याख्या नीचे मुजब छे:–
लोको जड शरीर अने चैतन्य आत्माने जुदां पाडवां तेने हिंसा कहे छे, पण ते व्याख्या खरी नथी.
कारणके शरीर अने आत्मा तो कायम जुदां ज हतां, तेने जुदां पाडवां एम कहेवुं ते उपचार मात्र छे. आत्मा
पोताना शुध्ध ज्ञायक शरीरे अभेद छे, ते पुण्य पापनी वृत्ति विनानो चैतन्य ज्ञानमूर्ति छे, तेवा स्वरूपने न
मानता पुण्य–पापने पोताना मान्यां तेणे चैतन्य आत्माने तेना ज्ञायक शरीरथी जुदो पाड्यो, (जुदो मान्यो)
ते ज स्वहिंसा छे; अथवा तो पोताने भूलीने जेटली परमां सुख बुद्धि मानी तेटली स्वहिंसा ज छे. परनी हिंसा
कोई करी शकतुं नथी.
• तीर्थंकर प्रकृति उपादेय नथी. •
सम्यग्द्रष्टि जीव रत्नत्रय रूप परिणत थयेला आत्माने ज मोक्ष मार्ग जाणे छे.
तेमने जो के सम्यक्त्त्वादि गुणनी भुमिकामां रागना कारणे तीर्थंकर नाम प्रकृति आदि
शुभ [पुण्य] प्रकृतिओनो (कर्मोनो) अवांछित वृत्तिथी बंध थाय छे, तो पण तेने ते
उपादेय मानतो नथी. कर्म प्रकृतिओने त्यागवा योग्य ज समजे छे. [परमात्म प्रकाश–]
आत्मा स्वतंत्र वस्तु छे. जे वस्तु होय ते त्रिकाळ पोताना आधारे टके; तेथी आत्मा पोताना स्वभावथी
ज टके छे. हवे आत्मा स्वथी टके छे छतां तेने पुण्य के रागादिनो आश्रय मानवो. अर्थात् रागादिने पोतानां
मानवां एटले के स्वभावने न मानवो–(स्वभावनो घात करवो) ते हिंसा छे के अहिंसा?
आत्माना संगथी खसीने अने पर द्रव्यना संगथी अथवा ज्यारे स्वभावथी च्यूत थईने पर उपर लक्ष
कर्युं त्यारे ज पुण्य–पापनी वृत्ति थाय छे, ते वृत्तिने पुण्य–पाप रहित स्वभावमां खतववी, अगर तेनाथी
स्वभावने कांई पण लाभ मानवो ते ज चैतन्यना स्वभावनुं खून (मान्यतामां) कर्युं छे; अने ते ज पोतानी
खरी हिंसा छे. अने ते पुण्य पापने पोताना न मानतां मात्र ज्ञायकपणे पोताने जुदो ‘छे तेवा स्वभावे’ राख्यो
ते ज साची अहिंसा छे.
चैतन्यतत्त्व परथी तद्न निराळुं छे ते स्वथी टके छे. छतां चैतन्यतत्त्वने पराधीन मानवुं के परनी
मददनी जरूर मानवी ते ज हिंसा छे, अने ते पराधीन मान्यतानुं टळवुं ते अहिंसा छे.
प्रश्न:– अनादिथी चाली आवती ऊंधी मान्यतानो नाश करवो ते खून न कहेवाय?
उत्तर:– योगीन्द्रदेवे एक वखत कह्युं छे के, अहो! अनादिना साथे रहेला बांधवोनो (विकार अज्ञाननो)
ज्ञानीओए घात कर्यो, ते बंधुनो घात कर्यो छे, पण ते हिंसा नथी, कारण के ते बांधवोनो तो नाश करवा योग्य
छे. ते ज अहिंसा छे.
आ प्रमाणे हिंसा–अहिंसानुं यथार्थ स्वरूप छे. हिंसा–अहिंसा परमां नथी, पण पोताना भावमां ज छे.
लोको हिंसा–अहिंसा बहारथी जुए छे, अने माने छे, ते यथार्थ नथी.