: पोष : २००० आत्मधर्म : १७ :
सभामां अध्यात्म उपदेश
लेखांक २ जो
भगवान योगीन्द्रदेव शुं कहे छे?
सभामां निश्चयमोक्षमार्गनो उपदेश आपे ते ‘उपाध्याय’ परमेष्टी छे. एवी व्याख्या परमात्म प्रकाशनी
गाथा ७ नी टीकामां (पानुं–१२) करवामां आवी छे. आ विषयने लगती संस्कृत टीका नीचे मुजब छे:–
‘पञ्चास्तिकाय षट् द्रव्य सप्त तत्त्व नव पदार्थेषु मध्ये शुध्ध जीवास्तिकाय शुध्ध जीव द्रव्य शुध्ध
जीव तत्त्व शुध्ध जीव पदार्थ संज्ञं स्वशुध्धात्मभावमुषादेयं तस्माच्यान्यद्धेयं कथयंति। शुध्धात्म स्वभाव
सम्यक् श्रध्धान झानानुं चरणरूपामेदरत्नत्रयात्मक निश्चय मोक्ष मार्गं चये कथयन्ति ते भवन्त्यु
पाध्यायास्तानहं बन्दे।।
अर्थ:– पांच अस्तिकाय, छ द्रव्य, सात तत्त्व अने नव पदार्थो मध्ये शुध्ध जीवास्तिकाय, शुध्ध जीव द्रव्य,
शुध्ध जीव तत्त्व अने शुध्ध जीव पदार्थथी ओळखातो शुध्ध आत्म भाव उपादेय छे, अने तेथी बीजुं ते हेय
(छोडवा लायक) छे; एम जे उपदेश आपे छे, तथा शुध्धात्म स्वभाव जे सम्यक् श्रध्धा, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्
अनुचरण (स्वरूप स्थिरता) रूप अभेद रत्नत्रय बतावनारो निश्चय मोक्षमार्गनो जे उपदेश आपे छे ते
‘उपाध्याय’ छे, तेने हुं वंदु छुं.
पंडित ज्यचंद्रजी कहे छे के, आत्मानुं सेवन करवानो उपदेश आपवो.
श्री समयसारमां ते संबंधे नीचे प्रमाणे कह्युं छे:–
‘दर्शन, ज्ञान, चारित्र त्रणे आत्मानी ज पर्यायो छे, कोई जुदी वस्तु नथी; तेथी साधु पुरुषोए एक
आत्मानुं ज सेवन करवुं ए निश्चय छे; अने व्यवहारथी [एटले के स्वरूपमांस्थिर न रही शकाय त्यारे]
अन्यने पण ए ज उपदेश अपवो.’ (पा. ४०)
ए उपरथी सिध्ध थाय छे के, साधु पुरुषोए एक आत्मानुं ज सेवन करवानो उपदेश आपवो.
मुमुक्षुओने श्री समयसार निरंतर संभळाववो, तथा निरंतर तेनो अभ्यास करवो.
श्री समयसार अध्यात्म ग्रंथ छे, तेनी हिंदीमां भाषावचनिका पंडित ज्यचंद्रे सं–१८६४ मां करी छे, ते
वचनिका पूरी करतां तेमणे नीचे प्रमाणे जणाव्युं छे:–
‘आ न्याये आ आत्मख्याति नामनी टीका पण अमृतचंद्र आचार्य कृत छे ज; तेथी तेने वांचनारा तथा
सांभळनाराओए तेमनो उपकार मानवो युक्त ज छे, कारण के तेने वांचवा तथा सांभळवाथी पारमार्थिक
आत्मानुं स्वरूप जणाय छे, तेनुं श्रद्धान तथा आचरण थाय छे, अने मिथ्याज्ञान श्रद्धान तथा आचरण दूर
थाय छे. अने परंपराए मोक्षनी प्राप्ति थाय छे; मुमुक्षुए आनो निरंतर अभ्यास करवो योग्य छे.’
(जुओ समयसार पा. प१९)
अल्प बुद्धिमाटे श्री समयसार छे.
वळी ते ज पाने, तेओए टीका पूर्ण करतां अंतिम मंगळ कवित रूपे कर्युं छे, तेमां त्रीजुं पद नीचे प्रमाणे छे:–
‘देशकी वचनिकामें लिखि ज्यचंद्र पढे संक्षेप अर्थ, अल्प बुद्धिकुं पावनुं;’
अर्थ:– अल्प बुद्धि जीव समजी शके माटे देश भाषामां संक्षेप अर्थ लख्या छे. (पा. ५१९)
सम्यग्द्रष्टि, मिथ्याद्रष्टिओनी सभाने श्री समयसार समजावे छे, तेथी मिथ्याद्रष्टिओ सम्यग्द्रष्टि थई जाय छे:–
श्री समयसारमां पहेली ३८ गाथाओ [जीव–अजीव अधिकारमां] पूर्वरंग रूप छे; ते समाप्त करतां
पंडितजी जणावे छे के, ‘अहीं प्रथम रंगभूमि स्थळ कह्युं, त्यां जोनारा तो सम्यग्द्रष्ठि पुरुष छे, तेम ज बीजा
मिथ्याद्रष्टि पुरुषोनी सभा छे. तेमने बतावे छे. नृत्य करनारा जीव–अजीव पदार्थो छे, अने बन्नेनुं एकपणुं,
कर्ताकर्मपणुं आदि तेमना स्वांग छे. तेमां तेओ परस्पर अनेक रूप थाय छे; आठ रस रूप थई परिणमे छे, ते
नृत्य छे. त्यां सम्यग्द्रष्टि जोनार जीव–अजीवना भिन्न स्वरूपने जाणे छे. ते तो आ सर्व स्वांगोने कर्मकृत जाणी
शांत रसमां ज मग्न छे, अने मिथ्याद्रष्टि जीव–अजीवनो