: १८ : आत्मधर्म : पोष : २०००
भेद नथी जाणता; तेथी आ स्वांगोने ज साचा जाणी तेमां लीन थई जाय छे. तेमने सम्यग्द्रष्टि यथार्थ स्वरूप
बतावी, तेमनो भ्रम मटाडी, शांत रसमां तेमने लीन करी सम्यग्द्रष्टि बनावे छे.’ (पान ७०)
उपरनुं अवतरण सिद्ध करे छे के, सभामां मिथ्याद्रष्टि जीवोने सम्यग्द्रष्टि अध्यात्मनुं स्वरूप समजावे छे,
अने तेओ यथार्थ समजे छे अने ते हेतु माटे श्री समयसार शास्त्र छे.
सर्व वांचे, पढे ते माटे हिंदी वचनिका लखी छे, एम पंडित ज्यचंद्रजी जणावे छे.
श्री समयसारनी हिंदी वचनिका करवी के नहीं ते पंडित ज्यचंद्रजीए विचार्युं हतुं. ते विचारी जणावे छे
के, ‘सर्वे आ अध्यात्म ग्रंथ वांचे पढे’ ते माटे तेमणे भाषा वचनिका करी छे, तेमणे विचारेल वांधो अने तेनो
जे नकाल कर्यो तेनो सार नीचे मुजब छे.
वांधो:– आ समयसार अध्यात्मग्रंथ छे. तेने देशनी भाषामां लखशो तो लोको भ्रष्ट थई जशे, स्वछंदी
थशे, प्रमादी थशे, श्रद्धा विपर्यय थई जशे; माटे पहेलांं मुनि थाय, द्रढ चारित्र पाळे अने व्यवहार मात्रथी ज
सिद्धि थशे एवो तेनो आशय थई गयो होय तो शुध्धात्मा सन्मुख करवा माटे तेने आ शास्त्र संभळाववुं
जोईए; माटे देशभाषा वचनिका करवी व्याजबी नथी.
उपरना वांधानो निकाल :– आ शास्त्रमां शुध्धनयनुं कथन मुख्यपणे छे, व्यवहारनयनुं पण गौणताए छे.
आचार्ये ते स्वरूप जे रीते समजाव्युं ते रीते समजतां श्रद्धान विपर्यय न थाय, पण जे बगडवाने पात्र छे ते तो
शुध्धनय सांभळे के अशुध्धनय सांभळे. विपर्यय ज समजशे, तेने सर्व उपदेश निष्फळ छे.
चार प्रयोजनो :– ए वांधानो निकाल करी आ ग्रंथ देशभाषामां लखवाना चार प्रयोजनो जणाव्यां छे. तेनो
सार नीचे प्रमाणे छे.
१ जैनो कर्मवादी नथी. :– १:–बीजा दर्शनवादीओ माने छे के, जैनो कर्मवादी छे. तेमनामां आत्मानी कथनी
नथी, अने आत्मा जाण्या वना मोक्ष थाय नहीं, माटे जो आ कथनी प्रगट न थाय तो भोळा जीवो अन्य
दर्शनीओनुं सांभळे त्यारे भ्रम उपजे, अने आ कथन प्रगटे तो श्रध्धाथी खसे नहीं.
२ भ्रमटळे :– २:–आ गं्रथनी वचनिका [पंडित राजमयजीकृत समयसार कलश टीका हींदी] आगळ पण थई
छे. तेने अनुसरी बनारसीदासे कलशना कवित रच्यां छे, ते जैन तथा बीजा दर्शनीओमां प्रसिध्ध थया छे, तेनो
लोक सामान्य अर्थ समजे छे. पण खुलासावार न समजे तो पक्षपात थई जाय. तेथी आ वचनिकामां नय
विभागनो अर्थ स्पष्ट खुल्लो करवामां आव्यो छे, के जेथी भ्रम टळे.
३ बधां वांचे–जाणे :– ३:– काळदोषथी बुध्धिनी मंदताने कारणे प्राकृत संस्कृतना भणवावाळा थोडा छे; वळी
स्वपरमतनो विभाग समजी यथार्थ तत्त्वना समजनारा थोडा छे; जैन गं्रथोनी गुरु आम्नाय कमी थई रही छे,
स्याद्वादना मर्मनी वात कहेवावाळा गुरुओनी व्युच्छिति देखाय छे; माटे श्री समयसारनी वचनिका विशेष
अर्थरूप थाय तो सर्वे वांचे–भणे अने कांई भ्रम थयो होय तो मटी जाय. आ शास्त्रनुं यथार्थ ज्ञान थई जाय तो
अर्थमां विपर्यय थई शके नहीं.
४ उपदेश सांभळी बंधनो अभाव करे. :– ४:– श्री समयसारमां शुध्ध नयनो विषय जे शुध्धात्मा तेनी
श्रध्धाने सम्यग्दर्शन एक ज प्रकारे नियमथी कह्युं छे. लोकमां आ कथन बहुधा प्रसिद्ध नथी, तेथी व्यवहारने ज
लोक समजे छे. शुभनो ज पक्ष पकडवामां आवे तो शुभथी मोक्षमार्ग माने, अने तेथो तो मिथ्यात्व ज द्रढ थयुं.
व्यवहार शुभाशुभरूप छे, ते बंधनुं कारण छे. तेमां तो प्राणी अनादि–काळथी प्रवर्ते छे; शुध्धनयरूप कदी थयो
नहीं, तेथी तेनो उपदेश सांभळी तेमां लीन थाय तो व्यवहारनुं अवलंबन छोडे त्यारे बंधनो अभाव करी शकाय.
उपरना कथननो सार :– उपरनुं कथन बराबर लक्षमां लेवानी जरूर छे, ते उपरथी खातरी थशे के:–
(१) जीवो मंद बुद्धि होई पोतानी भाषामां शास्त्र होय तो सर्व वांचे–भणे.
(२) जैनधर्मनुं यथार्थ स्वरूप समजे तो अन्य दर्शनीओनुं सांभळी भ्रम थाय नहीं.
(३) खुल्ला स्पष्ट अर्थ समजे.
(४) आ उपदेश सांभळी तेमां लीन थाय तो सम्यग्दर्शन