Atmadharma magazine - Ank 003
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म माह : २०००
धर्मी जीवने ज्ञानीनो उपदेश छे के
आत्माने ओळखो
पूज्य सद्गुरु देवश्री कानजी स्वामीना
त्ििद्धस्त्र प्र



शास्त्रमां मोक्ष मार्गनुं कथन होय त्यां एमज आवे छे के पुण्य परिणाम सर्वथा हेय (त्यागवा योग्य)
छे. पांच महाव्रत आदि सर्व शुभ परिणाम ते आस्रव छे, कर्म भाव छे, माटे छोडवा योग्य छे. पण हजी जे जीव
परमार्थ तत्त्वने पाम्यो नथी, राग, द्वेष, अज्ञान भावमां टक्यो छे अने मंद कषायनो पुरुषार्थ छोडीने स्वछंद
अनाचारमां वर्ते छे तेने मुमुक्षुपणुं पण संभवे नहि. वळी धर्मात्मा साधकने हजी चारित्रनी अधुराश छे,
अभिप्रायमां रागादि अस्थिरता सर्वथा हेय (त्यागवा योग्य) छे, पण वच्चे शुभ परिणाम अने शुभ निमित्त
आवे ज. पण जे आ शुभनो निरोध करी अशुभमां वर्ते छे ते कंई समज्यो नथी. जे मुमुक्षु–मोक्षमार्गी छे ते
साधक स्वभावनो परमार्थभूत व्यवहार एटले निश्चय स्वरूपने लक्षे राग टाळवानो पुरुषार्थ करे ज छे. अने
ज्यां जेम घटे तेम ज साचुं समजे छे. शास्त्र कथनमां अनेक ठेकाणे कदाच कथनमां विरोध जेवुं देखाय तो तेनो
परमार्थ आशय नयनी अपेक्षाथी समजी ले. क्यांय मुंझाय नहि.
वळी शास्त्र ज्ञानमां शुभ परिणामथी बंध थाय छे एम कह्युं छे माटे मारे शुभ परिणाम [मंद कषाय]
न करवा; देव गुरु धर्मनी भक्ति ए वहेवारना विकल्पथी पुण्यबंध छे, एम एकांत पक्षने पकडीने कहे के मारे
तो आत्मानुं ध्यान करवुं छे; हुं विकल्प करूं, शास्त्र वांचु अथवा प्रभावना आदि कार्यमां जोडाउं तो मारा ज्ञान
ध्यानमां खलेल पडे पण साची द्रष्टिनुं लक्ष तारामां नथी. अंतर स्थिरता विना जोगनी स्थिरताथी तुं शुं
करवानो छो? त्यां आगळ जयसेन आचार्य टीकामां कहे छे के तुं गृहस्थ हो, कदी मुनि हो हजी तने तारा देह
माटे सगवडतानी सावध वृत्ति आवती होय, तने रोगथी क्षुधाथी पीडा तथा आकुळता थती होय, कोई मारी
सेवा करे ए आदि भाव होय तो देह उपर तने वहालप वर्ते छे, अने बीजा मुनिनी सेवा, वैयावृत्य भक्तिमां
तने उत्साह नथी तो तुं पापी छो. धर्मात्मा नथी. कदी तुं वीतरागी थई ठरी गयो हो तो कंई व्यवहारनो प्रश्न
रहेतो नथी; पण जे रागमां अटक्यो छो छतां विवेकहिन थईने देव–गुरु–धर्म तथा मुनि वगेरे पर पदार्थ छे,
पुण्यथी बंध थाय छे माटे ते हेय छे एम मानीने शुभ निमित्तने टाळतो अशुभमां प्रवर्ते छे. तेथी ते मिथ्याद्रष्टि
छे, कारण के तेने वीतराग धर्मनुं बहुमान नथी. ज्यां लगी पोतानी सगवडता टकी रहे एवा विषय कषायना
संसारभाव उभा छे त्यां लगी जिन–शासन टकी रहो, देव गुरु–धर्म, सत् स्वरूप जयवंत वर्तो एवो अपूर्व
भाव लावी ईष्ट निमित्तनी भक्ति, भक्तिनो उत्साह रहेवो जोईए. स्त्री, घर, कुटुंब आदि व्यापारमां राग बुद्धि
छे, ते संसारनो राग पाप बुद्धि छे. तेमांथी निवृत्ति लईने सत् देव गुरु धर्मनी भक्ति, सुपात्रे दान, वीतराग
शासननी प्रभावना, जिन पूजा, दानादि भक्ति अने वैयावृत्यने योग्य साधर्मी आत्मानी सेवा करवानो भाव
जेने नथी ते अधर्मी छे. हजी देहादि स्त्री पुत्रादि वगेरेमां प्रेम छे अने परमार्थ निमित्तमां प्रेम–आदर नथी, तेने
धर्मनी रुचि नथी. पापनी रुचिने पोषण आपे छे. अने पवित्र भावनाने पोषण आपनारा साचा देव, गुरु,