: ३४ : आत्मधर्म माह : २०००
जिन प्रतिमानी भक्ति अने देव, गुरु, धर्मनुं बहुमान थाय तेवी भावना थवी जोईए. जो मननी वृत्ति तूटीने
वीतराग दशामां स्थिर थई गयो होय तो तेने कोई कहेतुं नथी के तुं विवेक लाव.
वळी जेने साची द्रष्टि छे ते नित्य शास्त्र वांचन, मनन, श्रवण अथवा ज्ञान, ध्यान अने सत् पुरुषनी
भक्तिमां जिन आज्ञामां वर्ततो होय ज. तेने ज्यां ज्यां जे जे परमार्थ घटे तेनी समजण अने समजणनो विवेक
होय ज.
अंतरंग अभिप्रायमां एम समजे के हुं पूर्ण शुद्ध वीतराग छुं, रागनो अंश मात्र मारामां नथी. आ
परमार्थ द्रष्टिमां स्थिर थवा टाणे तो शुभ विकल्पनो पण निषेध होय. अने स्थिरतानो पुरुषार्थ (राग
टाळवानो पुरुषार्थ) करतां मंद कषाय (शुभभाव) साथे थई जाय छे. अशुभमां उभेला शुभनो नकार करे तो
ते आत्मार्थी नथी.
गृहस्थ प्रसंगमां घरबार छोकराना लग्न वगेरे प्रसंगोमां घणी काळजी राखवानी वृत्ति राखे छे, संसारनुं
रूडुं देखाडवानी ईच्छा छे अने पवित्र वीतराग धर्मनी शोभा जिन शासननी उन्नति अर्थे तन, मन, धन
खर्चवामां संकोच करे तेने सत्नो अनादर छे. कदी तुं एम कहे के आत्मा शुद्ध छे, अकषाय छे. तेने ज्ञानी कहे छे
के तारे माटे ते नथी कारण के पवित्र ज्ञायक रहे तो ठीक छे. पण ज्यां ज्यां धर्म प्रभावना भक्तिना निमित्तोनी
जरूर जणाय त्यां ते रूडा निमित्तना ब्हाने लोभ कषाय घटाडवो जोईए. तेने बदले कोई लोभ वधारे अने कहे के
शुं करीए? अमे संसारी वहेवारमां बेठा छीए अमारे घर वहेवारमां तो धन खर्चवुं जोईए. आम धर्म
प्रभावना प्रत्ये दुर्लक्ष करनारने आत्मानी रुचि नथी.
आत्मज्ञान दशा पाम्यो होय ते पण ज्यां लगी निर्विकल्प स्थिर उपयोगमां न टकी शके त्यां सुधी शास्त्र,
अभ्यास, स्वाध्याय, देव, गुरु, धर्मनी भक्तिनुं परमार्थने लक्षे आलंबन ले छे. धर्मनी प्रभावना निमित्ते
यथाशक्ति बधुं करे छे. पोताने अकषाय [पूर्ण पवित्र थवुं छे] स्वभावमां जवुं छे तेथी कषाय घटाडवाना
निमित्तो पुरुषार्थ वडे मेळवशे. ईष्ट निमित्तो धर्म साधनमां धन खर्चीने अथवा पोतानो वीतराग (देव, गुरु,
धर्म) प्रत्येनो प्रेम वधारीने पण धर्मनी प्रभावना करशे. आत्मार्थी पोतानो पुरुषार्थ [शक्ति] गोपवे नहि,
शुभथी डरे नहि. वर्तमान घणा लोको निश्चयाभासमां वर्ते छे, अशुभमां वर्ते छे ते कदी धर्मनी वातो करता भले
होय पण तेने संसारनुं पोसाण छे, मोक्ष स्वभावनुं पोसाण नथी. कारणके तेओ एवुं माने छे के अमे पुण्यने
संसारनुं फळ मानीए छीए. पुण्यथी धर्म नथी, पण भाई रे! ऊभो रहे, विचार कर के हुं क्यां ऊभो छुं? कोना
तरफ वलण छे? कोनी रुचि छे? तेनो विवेक [समजण अथवा भेदज्ञान] होवो जोईए. धर्मी जीवने ज्ञानीनो
उपदेश छे के आत्माने ओळखो. परमार्थना लक्षे विषयकषाय घटाडो, स्वभावनी मोटाई जाणो अने धर्मनी रुचि
वधारवाना निमित्ते देव, गुरु, धर्मनी भक्ति, प्रभावना करो. तीव्र कषाय घटाडी मंद कषायनो पुरुषार्थ करवा
शुभनो उपदेश पण दीए आत्मार्थीने ज्यां जे निमित्त देखाय तेनो परमार्थ, समजी ले छे. द्रव्य स्वभावने शुद्ध,
अबंध, निरपेक्ष छे तेमज माने, अनेकांत न्यायद्रष्टिने यथास्थाने समजे, पुरुषार्थने उथापे नहि. पुरुषार्थ हेतु
वहेवारनो उपदेश पण परमार्थने लक्षे प्रेमथी सांभळे, नित्य स्वाध्याय, बार भावना, वांचन मनन तथा सत्
स्वरूपनी भावना वडे राग द्वेष, प्रमाद टाळवानो उपदेश ग्रहण करे. हुं अकषायी छुं, असंयोगी छुं परधर्मथी
भिन्न अखंड ज्ञानमात्र छुं; एमां स्थिर रहेवा माटे [अनुसंधान पान १प मुं]
साची सामायिक
एक सामायिक करे अने क्रोड सोना महोरनुं रोज रोज दान करे पण तेनाथी एक
सामायिकनुं फळ अनंतगणुं छे. पण ते कई सामायिक! आत्मा शुद्ध, अविकारी, वीतरागी
छे, पुण्य, पाप, विकल्प रहित अरागी छे एवी श्रद्धा ज्ञान अने ते अभेद स्वरूपमां
स्थिरता वर्ते छे तेज खरी सामायिक छे. अने ते सामायिकनुं फळ अनंत मण सोनाना
दानना फळ साथे पण सरखावी न शकाय. कारण जात जुदी छे. पण कांई यथार्थ अभ्यास
नहि अने पोतानो आग्रह छोडवो नथी तेवा जीवोने साची सामायिक क्यांथी होय!