Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००० : आत्मधर्म : ५५ :
बीजो मित्र:– कुटुंबने धर्म साथे संबंध नथी. कुटुंब तो पर वस्तुओनो संयोग छे, अने धर्म तो पोताना
आत्मानो स्वभाव छे.
पहेलो मित्र:– पण भगवान महावीरने अने तेमणे कहेलुं ते सत्य एम मानीए छीए तेनुं केम?
बीजो मित्र:– भगवान महावीरने तमे नामथी मानो छो के तेना गुणथी? जो तमे गुणथी मानता हो तो कहो
के तेमने सम्यक्दर्शन गुण केवी रीते प्रगट्यो हतो?
पहेलो मित्र:– ए तो हुं नथी जाणतो–पण तेमने केवळज्ञान हतुं एम जाणुं छुं.
बीजो मित्र:– केवळज्ञानना यथार्थ स्वरूपनी तमने खबर होय तो ते टुंकामां कहो.
पहेलो मित्र:– हुं तो ए जाणतो नथी. भगवान केवळ ज्ञानी हता एम बधा कहे छे तेथी हुं पण कहुं छुं.
बीजो मित्र:– लोकोमांथी केवळज्ञाननुं स्वरूप केटला जाणे छे, ए तमे नक्की कर्युं छे, के जेम बीजाओ कहे छे,
तेम तमो कहो छो?
पहेलो मित्र:– में ते नक्की कर्युं नथी; नक्की कर्या वगर बीजाओना कह्या प्रमाणे–कहेवुं अने अर्थ न समजवो ते
तो दोष छे एम विचारता लागे छे. तमे जे कहो छो ते प्रमाणे तो हुं भगवान महावीरना
स्वरूपने के तेमणे कहेला धर्मना स्वरूपने जाणतो नथी; तेमना स्वरूपने न जाणुं त्यां सुधी हुं
खरो अनुयायी न कहेवाउं. आजे आपणे सारी चर्चा थई मारे बीजुं अत्यारे काम छे माटे
आपणे छुटा पडीशुं?
बीजो मित्र:– खुशीथी, तमे कहेशो त्यारे आपणे मळीशुं. (बन्ने मित्रो जुदा पड्या.)
(अनुसंधान पान १३ नुं चालु)
भोग:– संसारना भोगनो भोगवटो मान्यो तेणे आत्माने मान्यो ज नथी. एक समयमां रागादि रहित
परिपूर्ण स्वभावने प्रगट पर्यायमां भोगववानो स्वभाव छे; अज्ञानी जीव पण विकार भावने ज भोगवे छे.
परने कोई आत्मा भोगवतो नथी. पोताना संपूर्ण स्वभावनी परिपूर्ण अवस्थाने भोगववानो स्वभाव छे
तेनी प्रतीत कर्या वगर आत्मानी प्रतीत पण करी नथी.
प्रथम तो परिपूर्ण आत्मा कहेवो कोने?
शुं नानी–सुनी के ऊणी वस्तु ते आत्मा छे? आत्मा तो ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि अनंत गुणोथी अखंड
परिपूर्ण छे; आवो स्वभाव मान्यो तेणे ज परिपूर्ण आत्मा मान्यो छे. परिपूर्णनी मान्यता वगर परिपूर्णनो
पुरुषार्थ उगशे ज नहीं.
एक समयमां परिपूर्ण अवस्थानो भोगवटो करवानो मारो स्वभाव छे; एकवार भोगवाय ते पर्याय
अने वारंवार भोगवाय ते गुण. [भोग अने उपभोग] ज्ञानादिनी ऊणी अवस्थाथी रहित छुं, एम एकलो
परिपूर्ण स्वभाव न माने त्यां सुधी आत्माने मान्यो नथी आवा परिपूर्ण आत्मस्वभावनुं भान थया पछी
एक पण विकारनो पोते कर्ता थाय नहीं. ऊणी ऊघडेली अवस्था जेटलो हुं नहीं एवी मान्यता पछी स्वभावनी
स्थिरता सहित आगळ वधे अने कषायनी ओछप थईने विशेष स्थिरता थाय त्यारे पांचमी–श्रावकनी भूमिका
कहेवाय. त्यार पछी छठ्ठी भूमिकाए निर्गं्रथ मुनि दशा थई जाय. अस्थिरतानो भाव घणो घटी जाय; माताए
जन्म्या तेवा तद्न निर्ग्रंथमुनि थई जाय (आ भान सहितनी वात छे.) अने तत्त्वज्ञान पूर्वक स्वरूपना जोरनी
द्रष्टिनी एकाग्रतामां स्थिरता वधतां शरीर उपरनुं लक्ष (वृत्ति) ऊठी जाय, मात्र आयुष्य बाकी छे अने शरीर
टकवानुं छे तेथी आहारनी वृत्ति रही छे ते पण स्वरूप चारित्रना नभाव माटे. ‘मात्र सयंमना हेतुए’ वर्ते छे.
त्यां (–छठ्ठा गुणसथाने) स्थिरता थतां त्रण कषाय टळी गया छे, मात्र शरीरना कारणे निर्दोष आहारनी वृत्ति
छे ते सिवाय वस्त्र मात्रनी वृत्ति पण त्यां होई शके नहीं. आ प्रमाणे भूमिका अनुसार बाह्य निमित्तोनो त्याग
होय छे. एवो निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे. सम्यग्दर्शन विना एटले के परथी परिपूर्ण निराळा स्वरूपना भान
विना कोई श्रावक के साधु होई शके नहीं.
गमे तेवा तुच्छ विषयमां प्रवेश छतां उज्जवल
आत्माओनो स्वत: वेग वैराग्यमां झंपलाववुं ए छे.