Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ५६ : आत्मधर्म : फागण : २००० :
जेने हजी परिपूर्ण स्वभावनी श्रद्धा ज नथी तेने
परिपुर्णनी रुचि नथी अने रुचि वगर वीर्य नथी.

आत्मामां बंधन परपदार्थना निमित्त आधीन थता भावथी थाय छे. स्वाधीन स्वभाव चूके अने आत्मा
सिवाय परपदार्थने आधीन भाव थाय तो आत्माना गुणोनी हीनता थाय. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे तेमां परनी
जे रुचि के प्रीति ते बंधनुं कारण छे. ते परनी रुचि केम छूटे अने निर्मळ भूमिका केम वधती जाय, तथा केवा
प्रकारना संयोगो छूटता जाय ते मुनिना द्रष्टांतथी समजावे छे.
शरीरथी जुदो आत्मा पुण्य पापनो कर्ता नथी, एवुं भान थया पछी छठ्ठी भूमिकानी वात छे. आत्मा
ज्ञाता ज छे, शुभाशुभ लागणी ते उपाधी भाव छे–मारुं कर्तव्य नथी, हुं तो ज्ञाने करीने ज परिपूर्ण छुं एवो
निर्णय प्रथम करवो जोईए. वस्तुना स्वभावमां परिपूर्णता ज छे. वर्तमान ऊणप देखाय छे ते पराधीन
भावथी देखाय छे पराधीन भावे ते वस्तुनो स्वभाव नथी, तेथी वस्तुमां ऊणप नथी. जेणे परिपूर्ण
ज्ञानस्वभाव मान्यो तेणे राग–द्वेष पोताना नथी एम मान्युं.
आत्मानो स्वभाव जाणवुं; जाणवामां त्रणकाळ त्रणलोकनुं न जणाय अथवा तो अंदरना अनंत गुण
प्रत्यक्ष न जणाय एवी ज्ञाननी वर्तमान अवस्थामां जे ऊणप देखाय छे ते ऊणप स्वभावमां नथी. आत्मा
जाणनार छे; जेनो स्वभाव जाणवुं ते आवती कालनुं न जाणी शके एवो तेनो स्वभाव नथी. ‘न जाणवुं’ ते
स्वभावमां ज नथी. वर्तमान अवस्थामां जे ज्ञाननी शक्ति ऊणी देखाय छे ते अवस्थामां विकारने कारणेराग
द्वेष भावे जे जणाय तेने लईने ज्ञान ओछुं जणाय छे. राग–द्वेष ते स्वभाव नथी, ज्ञान स्वभाव परिपूर्ण छे
एम ज्यारे निर्णय थाय त्यारे आखो ज्ञान स्वभाव जाण्यो कहेवाय.
जेनो स्वभाव जाणवुं तेमां न जाणवुं के ओछुं जाणवुं केम आवे? छतां विकारने कारणे वर्तमान
अवस्थामां ओछुं जणाय छे. विकार ते ज्ञान स्वभावमां न होय माटे विकारनो नाश करीने परिपूर्ण ज्ञान
स्वभाव प्रगट करूं ते हुं; मारामां विकार नहीं; परिपूर्ण ज्ञान ते ज हुं.
आत्मामां त्रण काळनुं एक समये जाणवानी शक्ति छे. आत्मानो स्वभाव ज्ञान छे. तेनो त्रणकाळ
त्रणलोकने अने आत्माना अनंत गुणोने एक समयमां जाणवानो स्वभाव छे. वर्तमानमां जे कांई नथी जणातुं
ते विकारने कारणे ज्ञाननी ऊणी अवस्था छे, पण ऊणी अवस्था ते हुं नहि, अने रागादि हुं नहीं, मारो ज्ञान
स्वभाव परिपूर्ण छे. स्वभावमां हद, ऊणप के राग–द्वेष नहीं. जेणे ज्ञान परिपूर्ण मान्युं तेणे ‘राग–द्वेष नथी’
एम मान्युं अने जेणे रागादिरूपे पोताने मान्यो तेणे परिपूर्ण ज्ञान स्वभाव मान्यो नथी.
ज्ञान:– निमित्त आधीन विकारने कारणे अधूरूं ज्ञान ते हुं नहीं, परिपूर्ण ज्ञान स्वभाव ते ज हुं.
दर्शन:– देखवानी परिपूर्ण शक्ति ते ज हुं.
श्रद्धा:– श्रद्धा नामनो गुण आत्माने परिपूर्ण ज माने छे. तेम मानवुं ते मानवानो विषय परिपूर्ण अने
मान्यता पण परिपूर्ण.
चारित्र:– जे वर्तमानमां रागादि ओछा करी शके छे, तेनो चारित्रद्वारा पूर्ण स्थिरता करी वीतराग
थवानो स्वभाव छे. रागादि जे स्थिरतामां रोके छे ते स्वभाव नथी.
आनंद:– संसारादि तथा सुख दुःखनी कल्पना ते विकारी छे, ते हुं नहीं, ते रहित हुं एकलो परिपूर्ण छुं
एवी प्रतीति करवी ते ज आत्माना परिपूर्ण गुणनो स्वीकार छे.
वीर्य:– आत्म बळथी परिपूर्ण छुं–जे आत्मबळे ज्ञाननो परिपूर्ण केवळज्ञान प्रगट करवानो
परिपूर्ण आत्मस्वभावनी श्रद्धा अने प्रतीत वगर परिपूर्णनो
पुरुषार्थ होई शके नहि.