Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 21

background image
: फागण : २००० : आत्मधर्म : ५७ :
श्री समयसार बंध अधिकार गाथा २८७ उपर सद्गुरुदेव
श्री कानजी स्वामीनुं व्याख्यान ता. २७–१२–४३

स्वभाव छे, तेमां वर्तमान जे उणप देखाय छे ते हुं नहीं.
[वीर्य आत्मबळ]
आ तो हजी प्रथम श्रद्धा करवानी वात छे, प्रथम परिपूर्णनी श्रद्धा वगर वीतरागता आवशे क्यांथी?
आत्माने यथार्थपणे अनंत काळथी मान्यो ज नथी; मात्र विकारी अवस्थाने अने रागादिने मान्यां, पण
परिपूर्ण स्वरूपने मान्युं नहीं. परिपुर्ण स्वरूपनी श्रद्धा प्रगट्या विना धर्मनी गंध पण होय शके नहीं. अखंड
परिपूर्णनी श्रद्धा वगर व्रत के महाव्रत पण साचां होय नहीं.
दान अने लाभ:– “एकेक समयमां मारी परिपूर्ण शक्ति छे ते प्रगट करीने लाभ लई शकुं एवो
स्वभाव छे; एक क्षणनी अंदर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य आदि बधा परिपुर्ण गुणोनो लाभ लई शकुं
अने मने दान (एटले मारा स्वरूपनी परिपुर्णतानुं लेवुं–देवुं) करी शकुं, अने एक ‘क्षणमां जेवुं देवुं एवुं लेवुं
करी शकुं छुं.’ आम मान्युं तेणे परिपुर्ण आत्माने मान्यो छे. जेने हजी परिपुर्ण स्वभावनी श्रद्धा ज नथी तेने
परिपुर्णनी रुचि नथी अने रुचि वगर वीर्य नथी. परिपुर्ण आत्म स्वभावनी श्रद्धा अने प्रतीत वगर
परिपुर्णनो पुरुषार्थ होई शके नहीं.” हुं ज्ञानादि अनंत गुणोए परिपुर्ण छुं, ऊणप ते मारुं स्वरूप नथी. आम
ज्यां सुधी खरेखरुं स्वरूप न माने त्यां सुधी धर्मनी शरूआत पण नथी.
एक समयमां स्वरूपदान (अरागी भावनुं दान) मने करी शकुं छुं, रागादि रहित जे पुर्ण स्वभाव तेने
एक समयमां परिपुर्ण प्रगट करी शकुं छुं अने ते पुर्ण पर्यायने जीरवी शकवानी शक्ति [वीर्य, बळ] पण मारी
ज छे, एम मानवुं ते ज आत्मदान छे. थोडा घणा पैसा खरचे त्यां तो घणुं दान कर्युं. एम पैसा वगेरेथी लाभ
माने अने आत्मामां पोते पोताने परिपुर्ण पर्यायनुं दान आपे एवो राग–रहित स्वभाव छे, ते परिपुर्ण
स्वभावने न माने त्यां सुधी समकित नथी. ते वगर साचां वृत–तप के चारित्र होय नहीं. प्रथम परिपुर्णनी
श्रद्धा जोईए पछी क्रमे करीने चारित्र अने वीतराग थाय.
कोई पुछे के आ पैसा वगरनुं दान कई जातनुं?
तेनो उत्तर:– आ पोताने स्वरूपनुं दान छे. पैसा वगेरेनो राग मटया वगर आ दान थई शकशे नहीं.
निर्ममत्त्व स्वभावनी श्रद्धा वगर ‘स्वरूपनुं पुर्ण दान पर्यायमां लई शकुं छुं अने पुर्ण शक्तिनुं दान आपी शकुं
छुं’ एवी प्रतीति थाय नहीं............
पैसा वगेरेथी आत्माने दान अने लाभ मान्या तेने आत्मानुं भान नथी. आत्मामां पुर्ण दान शक्ति
भरी छे, अने ते ज दाननो लाभ पर्यायमां लेवानी मारी शक्ति छे; परिपुर्ण स्वभावनी प्राप्ति करी लऊं एवो
दान अने लाभनो एक क्षणमां परिपुर्ण स्वभाव छे. जेणे ऊणो–अधूरो स्वभाव मान्यो तेणे आत्माने ज
मान्यो नथी, अने आत्माने मान्या वगर एक पण निर्मळ पर्याय ऊघडे नहीं.
कोई कहे–आवुं दान तो सारुं पैसा देवानुं मटी गयुं, एटले पैसा पण रहेशे अने दान पण थशे!
तेने कहे छे के–भाई रे! पैसा विगेरेनुं ममत्त्व छूटे तेने ज आ स्वरूपनुं दान प्रगटे छे. पैसा विगेरेनो
राग राखीने कदी अरागी स्वभाव प्रगटतो नथी; माटे ते ममत्त्व–राग रहित पोतानुं स्वरूप संपुर्ण अरागी छे
तेनी श्रद्धा थतां जे निर्मळ पर्याय उघडे छे ते ज दान छे, अने ते ज खरो लाभ छे.
आ प्रमाणे ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, आनंद, वीर्य, दान अने लाभ ए आठ गुणोनी परिपुर्णता कही.
हवे ‘भोग–उपभोग’ गुण कहे छे. [अनुसंधान पान ११]