
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोगने आपे नहि;
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोगने देतां नथी.
तेने सुख उत्पन्न करनारा अनेक प्रकारना भोगो आपे छे. (पण ते सारां नथी एम अहीं कहेवुं छे.)
त्यागी थाय के साधु थाय पण ‘आ क्रिया रागनी छे के राग विनानी छे? दयादि ते शुभ रागनी छे. तथा
हिंसादि तीव्र–रागनी–पापनी छे, ते रागनी क्रियाथी आत्माने लाभ थाय नहि’ एम जेणे रागरहित आत्मानी
श्रद्धा–रुचि नथी ते जे कांई व्रत, तप, दान, पूजा, भक्ति आदि करे छे तेमां मंद कषायथी जे पुण्य थाय ते पुण्यने
ते संसारना सुखने माटे सेवे छे. अर्थात् तेने पुण्यनी रुचि छे. पण पुण्यनुं फळ–संसार सुख भोगववानो जे
जडनी रुचि छे, पुण्य–पाप रहित आत्मानी रुचि नथी.
क्रिया आत्माने बंधन छे. जेने आत्माना पवित्र ज्ञानस्वभावनुं भान नथी ते पुण्यनो भाव तेमां सुख मानीने
करे छे. जे भावे पुण्य बंधन थाय ते भावने सारो माने तो समजवुं के तेने जडनी रुचि छे, आत्मानी नथी.
संसारना सुख सामग्री मले छे एवा पुण्य भावनी रुचि पण टळवी ज जोईए, अने जे भावे ते रुचि टळे ए
भाव सेववो जोईए. जे ‘साधु’ ‘के धर्मी’ एवुं नाम मात्र धरावे छे, पण पुण्य–पाप रहित आत्माना
स्वरूपनी खबर नथी तेने पुण्यनी रुचि रहे छे. अहीं पुण्य करवां छोडी दो एम नथी कहेवुं, पापथी बचवा
पुरता पुण्य बराबर छे, पण तेनी रुचि न होवी जोईए; जेने पुण्यनी रुचि छे तेने जडमां सुख बुद्धि छे
एटले जडनी रुचि छे.
आत्मानुं सुख जडमां नथी. आत्मामां जे शुभराग थाय ते जो रुचे तो समजवुं के तेने संसार–सुखनी
पुण्य–पापना भावनी रुचि नथी त्यां समजवुं के तेने संसार सुखनी पौद्गलिक सुखनी रुचि नथी–ईच्छा नथी
अने आत्मानी रुचि छे.
जे सारो माने छे तेने प्रथम ज संसारिक सुखनी ईच्छा छे, अने तेनी रुचि छे. जीव जे पुण्य के पापना राग
भाव करे छे तेमां पाप तो दुःखनुं कारण छे ज तेनी तो वात