Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ६२ : आत्मधर्म : फागण : २००० :
छे, ज्ञानना विवेक भावे नथी पण द्वेष भावे छे. साचा सुख स्वभावना भान विना खरेखरो त्याग के वैराग्य
होतो नथी.
त्याग क्यारे कहेवाय? के ज्यारे ज्ञान मूर्ति निर्मळ चैतन्य घन आनंद स्वरूप छुं, मारूं सुख मारामां छे
एवी द्रष्टिना जोरमां राग टाळ्‌यो अने राग टाळता रागना निमित्त सहज टल्यां ते ज त्याग ज्ञान गर्भित छे,
अने ते ज सत्य त्याग छे. बाकी तो जेने आत्मानुं भान नथी ते तो मात्र ‘आ बायडी छोकरामां सुख नथी माटे
चालो छोडी दईए’ एवा द्वेष भावथी त्याग करे छे, ते त्यागी नथी पण अंतरमां तेने भोगनी रुचि पडी छे.
आत्माना भान विना निर्विकारी क्रिया कोने कहेवी, अने रागनी विकारी क्रिया कोने कहेवी तेनी
ओळखाण होई शके नहीं अने ते ओळखाण विना पुण्य–पापनो अने आत्मानो विवेक थशे नहीं. ..............
राजा चक्रवर्ती राजमां होवा छतां तेने विवेकनुं भान हतुं. ओळखाण हती के निर्मळ ज्ञान स्वरूप निर्विकल्प छुं
छतां हजी अवस्थामां पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे शुभ–अशुभ राग हतो त्यां पण अंतरथी तेनी रुचि खसीने
आत्मानी रुचिना जोरमां एकावतारी थई गया, ए रीते अनंता एकावतारी थई गया छे. एटले अविकारी
स्वभावनी भावना सहित जेने राग–द्वेषनो त्याग छे ते ज खरो त्यागी छे; अज्ञानी बहारनो त्यागी
[द्वेष
भावे] थाय पण ते अंदरमां विकारनो भोगी छे, अने अनंत संसारमां रखडवानो छे.
चैतन्य शुद्ध आनंदघन निजानंद प्रभु हुं पोते छुं–दरेक आत्मा प्रभु छे, एवा भानमां सम्यग्द्रष्टि
राजपाटमां रह्यां होय छतां अंतरमां तेनी रुचि नथी. अंतर स्वभावनी रुचिमां तेने पुण्यनी रुचि नथी तेथी ते
कर्म तेने फळ आपतुं नथी.
भावार्थ:– अज्ञानीने रागनी रुचि छे. अज्ञानी रंजित परिणाममां चडेलो प्राणी उदयागत कर्मने रंजित
थईने सेवे छे तेथी ते कर्म पण तेने रंजित फळ आपे छे. ज्ञानी उदयागत कर्मने रंजित थईने भोगवतो नथी.
तेथी रागनो रंग अंतरमां चडी जतो नथी, अज्ञानी तो रागमां लीन थई जाय छे, तेने रागनी रुचिमां
आत्मानी वात रुचती नथी.
साची समजणनी जरूरियात
दरेक जीव पोते तो भगवान स्वरूप छे, पण पोतानी मान्यतामां अनादिथी जे भूल छे ते टाळता
परसेवो उतरी जाय छे, [एटले के अनंतो सवळो पुरुषार्थ जोईए छे एम अहीं कहेवुं छे.] खरी वात तो साचुं
ज्ञान ज अनादिथी थयुं नथी. साची समजण थाय तो रागमां रंजितपणुं टळ्‌या वगर रहे नहीं. अज्ञानी शुभ
भावमां धर्म माने छे एथी तेने एकला रागनी रुचि छे, तेने रागनी रुचिमां संसार फळवानो छे.
साची समजण थाय तो साचुं सुख शुं अने तेनो उपाय शुं तेनो विवेक वर्ते. एक दान देवामां पहेलांं ते
दान आबरू कीर्ति अर्थे आप्युं छे के नहीं ए जो! जो आबरू कीर्ति माटे न होय तो पछी ए जो, के दानना
शुभभावनी तने रुचि तो नथीने? जो ते शुभरागना रंगमां रंगाई जतो हो तो ते रागनी रुचि ज तने बंधन
कर्ता छे अने ते रागनी रुचि छोड तो ज साचो त्याग भाव छे. अने ए त्याग ज मुक्तिनुं कारण छे. जेने
स्वभावनुं भान होय तेने ज अंतरनो खरो त्याग सूझे छे, पण जेने अंतर स्वभावनुं भान नथी तेनी द्रष्टि
बाह्य त्याग उपर पडी छे, एटले वर्तमान कदाच भोग छोडवानी वात होय पण ऊंडाणमां तो तेने ‘भविष्यमां
आथी सारा भोग मळशे’ एवी रागनी रुचि छे–भोगनी रुचि छे, ते खरेखर त्यागी नथी. वळी ते एम माने
छे के ‘बायडी, छोकरां, मकान बंधन कर्ता छे माटे तेने छोडुं;’ पण ते तरफनो पोतानो राग ज बंधन कर्ता छे
एम ते जाणतो नथी जो खरेखरे त्यागनी भावना होय तो ते प्रत्येना रागने छोडने!
त्याग एटले जे पोताना स्वभावमां नथी तेने छोडवुं ते.
पुण्य–पापनो कोईपण विकार मारा स्वभावमां नथी एवा भान विना पुण्य–पापनो त्याग खरेखर
अंतरथी आवशे नहीं, अने अंतरना त्याग विना बाह्य त्याग पण साचो नथी.
अहीं तो न्यायथी अने सत्यनी ज वात छे, ज्ञानथी तेनो विवेक करो!
अज्ञानी व्रत–तप करे छे ते पण आगामी भोगनी मीठाशना कारणे करे छे. वर्तमानमां जे बाह्य त्याग
करे छे. तेमां पण अनंतगणा भोग लेवानो तेनो आशय छे. जेने वर्तमानमां ज स्वाभाविक सुखथी भरेला
आत्मानी खबर नथी ते रागनी रुचिमां रंगाई जशे. अने ज्ञानी जेने स्वभावनी खबर छे तेने वीतराग न
थाय त्यां सुधी शुभनो विकल्प आवे छतां तेनी रुचि नहीं होवाथी उदयागत भोग तेने बंधनुं कारण नथी. अने
भविष्यमां तेनुं विशेष फळ मळवानुं नथी.