Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
वर्ष: १ फागण
अंक: ४ २०००
अशुभ भावथी बचवा माटे तो शुभनुं अवलंबन
बराबर छे, पण ते शुभभाव वडे धर्म त्रण काळ त्रण
लोकमां थाय नहि, अहीं तो मान्यताने बदलाववानो
उपदेश छे. धर्म तो आत्मानो अविकारी स्वभाव छे, ते
स्वभावने गुरुगमथी जाणी, साची समजणनो अभ्यास
करी, खोटी मान्यता छोडी, विकारनो कर्ता नथी, पुण्यना
शुभ विकल्प मारा स्वभावमां नथी तेम ज ते मारुं कर्तव्य
पण नथी, एम मानीने तथा निर्मळ पर्यायना भेदनुं लक्ष
गौण करी, अखंड ज्ञायक धु्रव स्वभावने श्रद्धाना लक्षमां
लेवो ते शुद्धनयनो विषय छे, अने तेनुं फळ मोक्ष छे.
शुद्धनयनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. आ वात
श्रावक अने मुनि थया पहेलांंनी छे.
हुं आत्मा तो अखंड ज्ञायक ज छुं. परनो स्वामी के
कर्ता भोक्ता नथी, शुभ के अशुभ विकार मात्र करवा जेवो
नथी, एवुं स्वभावनुं अपूर्व भान गृहस्थ दशामां पण
थई शके छे. मोटो राजा होय के सामान्य माणस होय, स्त्री
होय के पुरुष होय, वृद्ध होय के आठ वर्षनुं बाळक होय
पण बधाय पोतपोताना स्वभावे स्वतंत्र पूर्ण प्रभु छे,
तेथी अंदरमां स्वभावनुं भान बधा करी शके छे.
ज्यां सुधी जीव व्यवहार–मग्न छे, अने बाह्य
साधनथी धर्म माने छे, क्रिया कांडनी बाह्य प्रवृत्तिथी गुण
माने छे त्यां वीधी परथी जुदो अविकारी अखंड ज्ञायक
आत्मा निरावलंबी छे, एवुं पूर्ण शुद्ध आत्माना
ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व तेने थई शकतुं नथी.
आ वातनुं खास श्रवण–मनन करवुं जोईए, अने
परमार्थ निर्मळ वस्तुनुं निरंतर बहुमान थवुं जोईए.
जातनी दरकार, धगश, पुरुषार्थ विना अपूर्व फळ आवे
नहीं.
[गाथा. ११]
मान्यता बदलो