Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००० : आत्मधर्म : ४९ :
जीवने आ संसार नवो नथी; अनादिथी पराधीन मान्यताथी जीव परिभ्रमण करी रह्यो छे, कदी शुद्ध
थयो नथी, जो एकवार पण आत्मा शुद्ध थाय तो फरी कदी संसार [अशुद्धता] न थाय. [जेम माखणनुं घी
थया पछी फरीथी घीनुं माखण न थाय तेम.] पण मान्यतानी भूल अनादिनी छे; पुण्य पाप बन्ने विभावथी
उत्पन्न थयेला छे. स्वभाव नथी. जो स्वभावना होय तो कदी नाश थाय नहीं. जे परनी चीज छे तेने स्वभावनी
मानवी ते ज अनंता जन्ममरणनुं कारण छे.
आत्मा पोते ज परमात्मा छे. आत्मा अने परमात्मामां फेर एटलोज छे के–परमात्माए पोतानुं
अविकारी स्वरूप प्रगट कर्युं छे, अने आ आत्माए विकारने पोतानो मान्यो छे, ज्यारे विकार रहित स्वरूप
मानी ते प्रगट करे त्यारे आत्मा पोते ज परमात्मा कहेवाय छे. पण पोताना विकार रहित स्वरूपने माने नहीं
अने पराधीन भावने पोतानो माने अने कहे के– ‘स्वतंत्र थवुं छे.’ तो स्वतंत्र वस्तुने जाण्या वगर स्वतंत्र
क्यांथी थशे? जेम छे तेम आत्माने नहीं माने तो बीजे क्यांक वस्तु तो मानशे ने? स्वभावनी खबर नथी
तेथी पुण्य–पाप जेटलो हुं पुण्य–पाप ते हुं, एम मानशे! पण ज्यां सुधी पुण्य–पापने पोतानुं स्वरूप माने छे,
तेनाथी मदद माने छे त्यां सुधी बंधन छे; अने पुण्य–पाप ते मारुं स्वरूप नथी, पुण्य पण मदद कर्ता नथी एम
पराश्रय रहितनी श्रद्धा ते ज बंधनथी छूटवानो उपाय छे.
ज्यां गुण होय त्यां ज तेनी ऊंधी अवस्था [विकार] होई शके, लाकडामां क्रोध नथी कारणके तेमां क्षमा
गुण नथी. ज्यां क्षमा गुण होय त्यां तेनी ऊंधाईथी क्रोध थई शके, जळमां शीतळ गुण छे, तेथी ते अग्निना
निमित्ते उष्ण थाय छे, पण उष्णता तेनो वास्तविक स्वभाव नथी. पण शीतळता गुणनो विकार छे–गुणनी
ऊंधाई छे; आत्मामां जे क्रोधादि विकारी भाव छे ते एम सुचवे छे के तेनी पाछळ क्षमा वगेरे गुणो त्रिकाळ
पड्या छे. विकारी भाव ते अविकारी गुणनी ऊंधी स्थिति छे; जेटलो विकार देखाय ते गुणनी ऊंधी अवस्था छे.
शरीरादि पर छे एम तो बधा बोले छे. पण खरेखर तेम मानता नथी. आत्मामां जे कांई क्रोधादि
विकार जणाय छे ते, जो आत्मानो अविकारी स्वभाव न होय तो विकार थाय क्यांथी? क्षमा गुण वगर क्रोध
थाय नहीं. जे क्रोधादि विकार जणाय छे ते आत्माना स्वभावनो गुण नथी पण क्षमा गुणनी ऊंधाई छे. गुणनी
ऊंधाई के परथी लाभ माने ते ज बंधन छे, पुण्य–पापना बधा विकारी भावो आत्माना अविकारी गुणनी
ऊंधाईथी थाय छे. ते ऊंधा भावथी
[पुण्य–पापथी] आत्माने लाभ मानवो ते बंधन छे; बंधन एटले
पराधीनता, दुःख; लोको पण कहे छे के:–
‘पराधीनता स्वप्नेय सुख नहीं.’
तेनो अर्थ लोको नोकरी वगेरेनी पराधीनता माने छे; पण ते व्याख्या साची (यथार्थ) नथी स्थुळ छे.
आत्मा त्रिकाळ शुद्ध निर्दोष वीतराग स्वरूपे छे तेवो न मानतां शरीर आदि तथा राग–द्वेषवाळो मानवो ते ज
खरेखर तो पराधीनता छे, अने तेमां स्वप्ने पण सुख नथी. संसारना लाभमां (धन, स्त्री आदि तथा
पुण्यमां) लीन थई जाय, पण तेना सरवाळे लाभमां मींडा अने पापना ढगला छे. पुण्य–पापनो बंधन भाव
अने ते रहित स्वाधीन स्वभावनी वहेंचणी करतां न आवडे त्यां सुधी सुखनी गंध स्वप्ने पण नथी.
अनादिथी पुण्य–पापना विकारी भावने तथा शरीर, मन, वाणीने पोताना मानीने बंधन भाव ऊभो
कर्यो छे. स्वतंत्रतत्त्वमां पराश्रये सुख, बुद्धि ते ज स्वाधीनतानुं खून छे; सम्यक्ज्ञान वगर सवळो भाव
समजाय नहीं अने बंधन टळे नहीं. पोते ज्ञानानंद शुद्ध स्वरूपी छे तेने भूलीने जेटलो परनो आधार माने ते
बधुं बंधन छे–दुःख छे.
तत्त्व समजवा माटे शरूआतमां ब्रह्मचर्यनो रंग जोईए श्रीमदे कह्युं छे के:–
‘पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान;
पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान.’
आत्मामां पात्रता न आवे तो पात्रता वगर वस्तु शी रीते