Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ५० : आत्मधर्म : फागण : २००० :
टके? माटे प्रथम असंयोगी तत्त्वनी रुचि–श्रद्धा करवा माटे पात्रता (लायकात) जोईए.. पुण्य–पापथी आत्मानुं
कल्याण नथी एवी प्रतीति–श्रद्धा थया वगर त्रणकाळमां कोईनी मुक्ति नथी उपर कह्युं के.......... ‘पात्र थवा
सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान.’ आमां सिद्धांत शुं छे? के आत्मा सिवाय पर तरफना विषय (संयोगी भाव)
मां जे तीव्र आसक्ति वडे सुख मानी रह्या छे तेने जुदुं तत्त्व असंयोगी स्वभाव ख्यालमां आवशे नहीं.
‘अब्रह्म’ एटले पर संयोगना कारणे आत्मामां जे भाव थाय ते संयोगी भावने पोतानुं स्वरूप मानवुं ते.
आमां बे वात आवी (१) शरीरादि बधा पर छे, अने (२) पुण्य–पापना भाव पण पर छे; कारण के ज्यां
सुधी पर उपर लक्ष करी तेमां पोतापणुं माने छे त्यांसुधी पुण्य–पापना भाव थाय छे पण ते स्वभावमां नथी
तेथी टाळी शकाय छे; जो ते पुण्य–पापना भाव स्वभावमां होत तो कदी ते टाळीने मुक्त थई शकात नहीं.
असंयोगी स्वभाव समजाशे नहीं.
आत्मा परथी तद्न निराळी चीज, तेमां कर्मना [पर वस्तुना] निमित्ते आत्मा पोते ऊंधो पडीने जे
भाव करे ते स्वभाव भाव नथी. संयोगी–विकारी भाव छे; ते रहित असंयोगीनी श्रद्धा माटे प्रथम ब्रह्मचर्यनो
रंग जोईए; तेथी जेने अब्रह्मचर्य वर्ते छे एटले के पर वस्तुमां जेने सुख बुद्धि मानी छे तेने परथी निराळा
शुद्ध आत्मानी श्रद्धा थवानी पात्रता नथी.
अहीं पात्र थवा माटे ‘ब्रह्मचर्यनो रंग’ जोईए एम कह्युं छे, एटले कांई बधा ज्ञानीओने ज्ञान थतां
तुरत परनो बधो संग छूटी जतो नथी. पण पर पदार्थमां जे तीव्र आसक्ति ते अंतरमां नथी. मारु सुख आत्मा
सिवाय कोई परमां–स्वर्गमां के राजपदमां क्यांय नथी, एवी प्रतीति पछी राग–द्वेषनी अल्प अस्थिरता होय
पण संयोगमां सुख बुद्धि नथी; ज्यारे अज्ञानीने तो ऊंडे ऊंडे पर संयोगमां सुखनी तीव्र आसकित पडी छे,
पुण्यनी मीठाश छे; तेने आत्मा शुद्ध चैतन्य परथी नीराळो छे, तेनी श्रद्धानी पात्रता नथी.
आत्मा सिवाय पर पदार्थनुं संयोगी सुख ते साचुं सुख नथी, मात्र पोतानी खोटी कल्पना छे. जे सुख
भगवान आत्मामां त्रिकाळ पूर्ण भर्युं छे ते न माने अने परमां [ज्यां कदी पण सुख नथी त्यां] सुख माने छे
तेणे पोताने नमाली चीज मानी छे; आत्मानी श्रद्धा नथी तेथी परमां सुख मानी बेठो छे, पण असंयोगी
आत्मानी श्रद्धा वगर साचुं होय ज नहीं.
“आत्मा परथी जुदो निर्दोष निर्लेप तत्त्व छे. तथा स्वतंत्र ‘पोताना गुणे जीवनारो’ छे, पुण्य–पापथी
आत्माने लाभ नथी.” एवी यथार्थ मान्यता वगर त्यागी थईने मरी जाय तो पण लाभ न थाय, अने समजी
जाय के तरत ज त्यागी थई जाय एम बधा माटे बनतुं नथी. आत्मानुं यथार्थ स्वरूप समज्या पछी पण
पूर्वना पुण्यना योगे (ज्ञानी पण) चक्रवर्ती राज्यमां होय; भरत, श्रेणिक ऋषभदेव भगवान वगेरे स्वरूपना
भानसहित चक्रवर्ती–छ खंडना धणी अगर राजाओ हता. संसारमां होवा छतां अने अमुक राग–द्वेष
(पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे) होवा छतां ‘आ मारुं स्वरूप नथी, हुं चिदानंद निर्विकारी पूर्ण शुद्ध छुं.’ एवुं
शुद्ध द्रष्टिनुं भान हतुं. भान वगर कोई हजारो राणीओ तथा राजपाट छोडीने त्यागी (बाह्यमां) थई जाय तो
पण धर्म न थाय. पुण्य–पाप रहित स्वरूपनी स्वतंत्र ओळखाण वगर ते बधुं ‘एकडा वगरना मींडा’ छे.
ज्ञानीओ संसारमां राजपाट स्त्री आदिना संयोगमां रह्या छतां ते बधाने रोगरूप माने छे. स्वरूपनुं जोर छे के
मारा स्वभावनुं सुख मारामां ज छे, आ बधा (परसंयोगभाव) स्वतंत्रतानुं खून करनार छे.
– : आमंत्रण : –
पूज्य सद्गुरु देव श्री कानजीस्वामी राजकोटथी फागण सुद ४ रविवार ता. २७–
२–४४ ना रोज विशार करवाना छे. ते प्रसंगे तथा फागण सुद २ ता. २५–२–४४ना
रोज श्री भगवान सीमंधर प्रभुना सनातन जैन मंदिरनो वार्षिक महोत्सव राजकोट
मुकामे उजववानो छे माटे सर्वे मुमुक्षु भाई बहेनोने ते प्रसंगनो लाभ लेवा विनंति छे.