Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००० : आत्मधर्म : ५१ :
आ उपरथी नक्की थाय छे के ‘जे समजे ते बधां छोडीने चाल्या ज जाय अथवा जे छोडे ते बधा समजु
ज होय एवो कोई सिद्धांत नथी; एटले बहारथी जोवानुं नथी, पण अंदरमां आसकित केटली छे ते उपर माप
छे. ज्ञानी अज्ञानी बन्नेनी बहारनी क्रिया सरखी देखाय, पण अंदर आसकित भावमां घणो फेर छे. बिलाडी
तेनां बच्चाने मोढेथी पकडे छे अने ऊंदरने पण मोढेथी ज पकडे छे छतां बच्चां उपर वहाल छे अने ऊंदरने
मारी नांखवा माटे पकड्यो छे, एम बाह्यमां सरखुं होवा छतां अंदर “पक्कड पक्कड में फेर है.”
मारुं स्वरूप स्वतंत्र छे; कोई पण पर मने लाभ के नुकसान करवा त्रणकाळ त्रणलोकमां समर्थ नथी,
एवी तत्त्वबुद्धि जेने प्रगटी छे एवा ज्ञानीओ अने जे परथी लाभ नुकसान मानी रह्या छे एवा अज्ञानी
वच्चेनो आंतरो मुमुक्षुने जणाया वगर रहेशे नहीं. सगी माता अने धाव माता बन्ने पुत्रनुं पालन सरखी
रीते करे छतां अंतरमां आंतरा छे, एकने तेमां उपर खरो प्रेम छे ज्यारे बीजी पैसा माटे करे छे, ते समजे छे के
“आ छोकरो मारो नथी; कमाईने मने आपवानो नथी.” तेम ज्ञानी एटले धर्म बुद्धिवाळाने ‘आ शरीरादि
मारा घरनी चीज नथी; तेम ज आ पुण्य–पापना कोई पण भाव मारा स्वभावथी आवता नथी माटे मारा
नथी.’ एम अंतर द्रष्टिमां ज्ञानीने परनो नकार वर्ते छे; अने अज्ञानी परना संयोगमां लाभ–नुकसान मानी
रह्यो छे. एटले परने पोतानुं मानी रह्यो छे. बन्नेनी द्रष्टिमां मोटुं अंतर छे........ कह्युं छे के:– ‘
बालः
पश्यतिलिंगम्’ जोवानी द्रष्टिमां फेर छे.
• • • वस् श्व स् • • •
वस्तु अकृत छे अर्थात् कोईए बनावी नथी. वस्तु स्वयंसिद्ध छे अर्थात् अनादि
अनंत छे. वस्तुनो स्वभाव वस्तुथी अभिन्न छे. वस्तु अनादि अनंत होवाथी वस्तुनो
स्वभाव जे धर्म ते पण अनादि अनंत छे. ‘
वत्थुसहावो धम्मो’ =वस्तुनो स्वभाव ते
धर्म छे. स्वभाव ते वस्तुनो धर्म होवाथी धर्म कोईए नवो शोध्यो नथी, अनादिथी ज
चाल्यो आवे छे. अनादिथी चाल्या आवता धर्मनो सत्पुरुषोए प्रकाश पाडयो छे
अर्थात् धर्मने समजाव्यो छे–कर्यो नथी. विचार द्वारा कोईए उपजावी काढ्यो नथी, पण
जेम छे तेम सर्वज्ञ भगवाननी वाणी द्वारा जणायो छे.
वस्तुनो स्वभाव (एटले के गुण) कायम एकरूप रहेतो होवाथी त्रणकाळ
त्रणेलोकमां धर्म ते एकरूप ज रहे, बदले नहि. गुणनी अवस्था समये समये बदले छे.
वस्तु टकीने बदलती होवाथी अखंड एकरूप वस्तु प्रत्ये लक्ष जाय तो शुद्धता प्रगटे छे,
अवस्था प्रत्ये लक्ष जाय तो अशुद्धता प्रगटे छे. वस्तु अने तेनो धर्म अभिन्न होवाथी
(शुद्धता रूपी) धर्म अंतरमांथी प्रगटे छे. बहारथी आवतो नथी (शक्तिरूपे) छे ते
व्यक्त थाय छे. धर्म प्रगटवा माटे मात्र अंदरना स्वभावनी प्रतीति अने प्रतीति
प्रमाणे स्वरूपस्थिरतानी ज जरूर छे.

१–तद्न अज्ञानी मात्र वेषने ज जुए छे.
२–बीजा नंबरना अज्ञानी बाह्य प्रवृत्ति
[क्रिया] ने जुए छे, अने
३–ज्ञानी तो तेनी अंदर बुद्धि शुं छे तथा स्व–परनो विवेक केवो छे? एम तेना अंतरना भावने जुए
छे. खरेखर, अंतरथी ज ज्ञानीनुं माप छे; ज्ञान थया पछी द्रष्टिमां परनुं धणीपणुं ज उठी जाय. आत्मा स्वाधीन
वस्तु छे, तेमां द्रष्टिनी ऊंधाईथी ज बंधन थाय छे. प्रश्न:– ऊंधी मान्यतानुं लक्षण शुं? उत्तर:– एक आत्मा
सिवाय कोईपण पर चीज मने लाभ नुकसान करे एम मान्युं ते ज परने पोतानुं मानवारूप ऊंधी मान्यता छे;
तेमां बे तत्त्वोने एक माने छे. एक तत्त्वने बीजी चीजथी लाभ–नुकसान माने छे, तेने असंयोगी तत्त्वनी खबर
नथी. ज्यां सुधी संयोगोमां मीठाश वर्ते छे त्यां सुधी असंयोगी आत्माना स्वतंत्र सुख स्वभावनी वात बेसती
नथी, तेथी प्रथम ‘पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्यमचर्य मतिमान.’ एम श्रीमदे कह्युं छे.
एकला (भानवगर) शियळ तरफनुं वलण ते शुभभाव छे;