शब्द वापर्यो छे. मति वगर–परथी निराळा आत्मानी श्रद्धा वगर ब्रह्मचर्य पाळीने नवमी ग्रैवेयक सुधी जई
आव्यो, पण साथे ‘कांईक परनी मदद’ एवी ऊंधी मान्यताने कारणे चोराशीना जन्म–मरण एके टळ्या नहीं.
तेथी अहीं परथी निराळा स्वरूपना भान सहित ब्रह्मचर्य पाळे ते मतिमान छे. वळी तेमणे ज कह्युं छे के:–
मन–वचन–कायाए कोई सेवतो होय ते प्रत्ये अनुभोदवुं नहीं ए नव प्रकारे) ब्रह्मचर्य पाळे ते ‘नववाड
विशुद्धथी’ छे. एवुं शियळ जे सेवे तेने भव रहे नहीं. अगर ‘लव’ रहे एटले एकाद भव रहे. प्रथम आ
पात्रतानी जरूर छे; आत्मा तो त्रिकाळ आनंदमूर्ति ज छे, तेमां पुण्य–पापतो क्षणिक विकार छे. तेने स्वभाव
पराश्रये थाय छे, ते आत्माने लाभ करी शके नहीं. शुभभावथी स्वर्ग के राज्यादिनो कोई संयोग मळे ते
आत्मानी चीज नथी; आत्मानुं सुख–शांति तो अंदर ज भर्युं छे, तेनी रुचि वगर–साची प्रतीत वगर–स्वलक्ष
वगर ते प्रगट थाय नहीं–बंधन तूटे नहीं. जेटले दरज्जे एक आत्मा पोताना सुख माटे परनो ओशियाळो
माने तेटले दरज्जे बंधन छे.
कोई देव–देवी मने संसारनो (धन पुत्रादिनो) कांई पण लाभ करी देशे एवी जेने मान्यता छे तेने तो पुण्यनी
पण श्रद्धा नथी, एटले महान ऊंधी द्रष्टि छे; ज्यां जुओ त्यां पैसानी मांडी छे, पण पैसा उपर तथा पुण्य उपर
तो अहीं कोरडा पडे छे. पुण्यना एक पण कणीयाने ईच्छे तो ते मिथ्या द्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टिने पुण्यनी रुचि होय
नहीं, एक म्यानमां बे तलवार न रहे तेम स्वरूपनी श्रद्धा होय अने पुण्यनी रुचि पण होय एम बने नहीं.
छतां ज्ञानीने पण वीतराग न थाय त्यां सुधी शुभभाव होय खरा–पण अंतरमां रुचि नथी. ‘ते पुण्य भाव
साची श्रद्धामां सत्देव, सत्गुरु अने सत्शास्त्रना निमित्तो आवे छे. तेमनुं स्वरूप:–
सद्गुरु:– जेने आत्माना भान सहित निग्रंथ दशा वर्ते छे ते सद्गुरु.
सत्शास्त्र:– एकेक आत्मानी स्वाधीनता तथा अनंत गुणोनी पूर्णतानी जे शास्त्रमां परुपणा होय ते
रमे छे ते राखने माटे रत्नने बाळे छे.