Atmadharma magazine - Ank 004
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ५२ : आत्मधर्म : फागण : २००० :
एवुं भान वगरनुं ब्रह्मचर्य तो जीवे अनंतवार पाळ्‌युं, तेथी अहीं एकलुं ब्रह्मचर्य नथी कह्युं पण साथे ‘मतिमान’
शब्द वापर्यो छे. मति वगर–परथी निराळा आत्मानी श्रद्धा वगर ब्रह्मचर्य पाळीने नवमी ग्रैवेयक सुधी जई
आव्यो, पण साथे ‘कांईक परनी मदद’ एवी ऊंधी मान्यताने कारणे चोराशीना जन्म–मरण एके टळ्‌या नहीं.
तेथी अहीं परथी निराळा स्वरूपना भान सहित ब्रह्मचर्य पाळे ते मतिमान छे. वळी तेमणे ज कह्युं छे के:–
‘जे नव वाड विशुद्धथी धरे शियळ सुखदाई;
भव तेनो लव पछी रहे, तत्त्व वचन ए भाई!’
आमां पण ‘विशुद्ध’ शब्द मूक्यो छे; विशुद्ध एटले चैतन्य आत्मा परथी निराळो ज्ञाता–द्रष्टा तेना भान
सहित जे नव कोटीए (मन=वचन कायाए विषय सेववो नहीं, मन, वचन, कायाए सेवराववो नहीं अने
मन–वचन–कायाए कोई सेवतो होय ते प्रत्ये अनुभोदवुं नहीं ए नव प्रकारे) ब्रह्मचर्य पाळे ते ‘नववाड
विशुद्धथी’ छे. एवुं शियळ जे सेवे तेने भव रहे नहीं. अगर ‘लव’ रहे एटले एकाद भव रहे. प्रथम आ
पात्रतानी जरूर छे; आत्मा तो त्रिकाळ आनंदमूर्ति ज छे, तेमां पुण्य–पापतो क्षणिक विकार छे. तेने स्वभाव
माने छे ते मान्यता ज तत्त्वने ऊंधुंं मनावे छे–ते ज बंधनुं कारण छे.
पर पदार्थ साथे आत्माना बंधन भावने निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे. आत्मा जो पोताना ज्ञान
स्वभावमां रहे तो बंधन थतुं ज नथी अने पराश्रयबुद्धिमां बंधन थया वगर रहेतुं ज नथी. बंधन भाव
पराश्रये थाय छे, ते आत्माने लाभ करी शके नहीं. शुभभावथी स्वर्ग के राज्यादिनो कोई संयोग मळे ते
आत्मानी चीज नथी; आत्मानुं सुख–शांति तो अंदर ज भर्युं छे, तेनी रुचि वगर–साची प्रतीत वगर–स्वलक्ष
वगर ते प्रगट थाय नहीं–बंधन तूटे नहीं. जेटले दरज्जे एक आत्मा पोताना सुख माटे परनो ओशियाळो
माने तेटले दरज्जे बंधन छे.
प्रथम आत्मामां अनंतगणो स्वतंत्र छे. तेने न समजावे एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने माने त्यां सुधी
खोटी श्रद्धा टळे नहीं, अने ज्यां सुधी सत्देव–सद्गुरुना निमित्त मळे नहीं त्यां सुधी साची श्रद्धा थाय नहीं.
कोई देव–देवी मने संसारनो (धन पुत्रादिनो) कांई पण लाभ करी देशे एवी जेने मान्यता छे तेने तो पुण्यनी
पण श्रद्धा नथी, एटले महान ऊंधी द्रष्टि छे; ज्यां जुओ त्यां पैसानी मांडी छे, पण पैसा उपर तथा पुण्य उपर
तो अहीं कोरडा पडे छे. पुण्यना एक पण कणीयाने ईच्छे तो ते मिथ्या द्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टिने पुण्यनी रुचि होय
नहीं, एक म्यानमां बे तलवार न रहे तेम स्वरूपनी श्रद्धा होय अने पुण्यनी रुचि पण होय एम बने नहीं.
छतां ज्ञानीने पण वीतराग न थाय त्यां सुधी शुभभाव होय खरा–पण अंतरमां रुचि नथी. ‘ते पुण्य भाव
टाळुं त्यारे ज वीतरागता थशे’ एम जेने विवेक नथी, श्रद्धा नथी तेने जरापण धर्म प्रगट्यो कहेवाय नहीं.
साची श्रद्धामां सत्देव, सत्गुरु अने सत्शास्त्रना निमित्तो आवे छे. तेमनुं स्वरूप:–
सत्देव:– जेने आत्मानी त्रिकाळ परमात्म पूर्ण दशा प्रगट छे ते सत्देव.
सद्गुरु:– जेने आत्माना भान सहित निग्रंथ दशा वर्ते छे ते सद्गुरु.
सत्शास्त्र:– एकेक आत्मानी स्वाधीनता तथा अनंत गुणोनी पूर्णतानी जे शास्त्रमां परुपणा होय ते
सत्शास्त्र.
धर्म:– आत्मानुं स्वरूप जेम छे तेम यथार्थ माने, मारा आत्मामां ज मारो लाभ छे, सत्देव–गुरु–शास्त्र
पण पर चीज छे एवी प्रतीति ते धर्म.
साची श्रद्धा थया पछी शुं करवुं तेनो संदेह रहे नहीं, परथी निराळो ज्ञाता, सहजात्म स्वरूप पुण्य–पाप
रहित छुं एवा भान सहित आत्मानी प्रतीत ते सम्यग्दर्शन छे, ते प्रगट्या पछी ज क्रमे करीने वीतरागता थाय.
छेवट आचार्य देव कहे छे के एक तत्त्वने बीजुं तत्त्व कांई पण लाभ के नुकसान करी शके एम मानवुं ते
ज पराधीनता छे, अने स्वतंत्र स्वाधीन तत्त्वनी श्रद्धा ते ज सुखनो उपाय छे.
दुर्लभ मनुष्यपणुं पामीने जे विषयोमां
रमे छे ते राखने माटे रत्नने बाळे छे.