चैत्र : २००० आत्मधर्म : ७७ :
संसार टाळवा माटे
मिथ्यात्वनुं वमन करो
: संग्राहक : रा. मा. दोशी
उत्तर–भविष्यकाळनुं
अर्हंतपद अत्यारे निष्पन्न नथी
थयुं, छतां ते चोक्कस थवाना छे
तेथी ते थई गया ए ज कहेवुं
योग्य छे.
५
आ निर्मळ सम्यग्दर्शननी
भूमिकामां रागने कारणे ईन्द्रपदवी
चक्रवर्तीपणुं, अहमिंद्रपणुं, तथा
तीर्थंकरपद एवी कल्याण परंपरा
उत्तरोत्तर पदवी मळे छे. आ
सम्यक्त्व रत्न एटलुं किंमती छे के
देव अने असुरो सहित आ संपूर्ण
लोक पण प्रमाद करवामां आवे तो
पण तेनी किंमत
भरपाई थई शकती नथी, अर्थात्
संपूर्ण त्रिलोक आपवा छतां पण
सम्यक्त्व रत्न मळतुं नथी.
एक बाजु सम्यग्दर्शननो
लाभ अने बीजी बाजु त्रण
लोकनो लाभ ए बे लाभोमां
सम्यग्दर्शननो लाभ श्रेष्ट छे. त्रण
लोकनो लाभ मळवा छतां ते थोडा
काळने अंतरे नष्ट थाय छे. परंतु
सम्यग्दर्शननो लाभ जीवने
अविनाशी सुखने देवावाळी
मोक्षनी प्राप्ति करावे छे.
माटे सम्यग्दर्शननो लाभ
त्रण लोकना लाभथी श्रेष्ट छे माटे
ते मेळववा दरेक जीवे कोशिश करवी
जोईए.
१
संसारनुं मूळ कारण
मिथ्यात्व ज छे, अर्थात
मिथ्या श्रध्धा ज संसारनुं मूळ छे.
माटे हे जीव! तुं तेनो त्याग कर.
गुणोथी युक्त एवी बुध्धिने पण
मिथ्यात्व मुग्ध (मूर्छित) करी दे छे.
शंका–मिथ्यात्वने आप सर्व
दोषोमां पहेलो कहो छो ते योग्य नथी.
जेम मिथ्यात्व पोताना कारणथी
उत्पन्न थाय छे, तेम असंयमादिनी
उत्पत्ति पण पोत पोताना कारणे
थाय छे; माटे मिथ्यात्वनो दोष प्रथम
अने चारित्रनो दोष पछी उत्पन्न
थाय छे, एम कहेवुं असत् छे केमके
हंमेशां आत्मामां आठे कर्मोनो
सद्भाव छे.
उत्तर–सामान्यपणे सूत्रकारे
‘मिथ्यात्वाविरति प्रमाद कषाय
योगा बंध हेतवः’
ए सूत्रमां मिथ्यात्वनुं पहेलुं
स्थान आप्युं छे; अर्थात् बंधना
कारणोमां मिथ्यात्वनो प्रथम उल्लेख
छे. संसार बंध पूर्वक छे अने
संसारनुं मूळ कारण मिथ्यादर्शन छे.
२
आ मिथ्यात्व बुध्धिने
विपरीत करे छे. शुश्रुषा–सांभळवानी
ईच्छा शास्त्र श्रवण करवुं, श्रवण करी
तेने हृदयमां धारण करवुं, काळांतरमां
पण धारण करेलाने न भूलवुं ए
वगेरे बुद्धिना गुण छे. मिथ्यात्व तेने
पण विपरीत बनावे छे, अर्थात्
बुध्धि अने शुश्रूषादिक तेनां कारण
पण मिथ्यात्वना सहवासथी विपरीत
थाय छे.
३
माटे हे जीव, तुं ए
मिथ्यात्वनो त्याग कर अने
सम्यक्त्वनी आराधनामां पोताने
स्थिर कर.
शंका:–जे वस्तु जे स्वरूपनी
धारक नथी, तेने ज्ञान अन्यरूपे
केम जाणे?
उत्तर–ज्ञान विपरीत पण
थाय छे, केमके ज्ञानने विपरीत
करवानुं कारण मळे छे. द्रष्टांत–
सूर्यना प्रचंड किरणोथी ज्यारे
जमीन अत्यंत गरम थाय छे,
त्यारे तेनी उष्णता सूर्यना
किरणोमां मिश्र थई, पाणी समान
देखाय छे. तृषाथी जेनी आंखो
संतप्त थई रही छे, एवां हरणोने
ते समये सूर्यना किरणोमां जलनो
आभास थवा लागे छे, तेम
मिथ्यात्व दशामां आ जीवने
असत्य पदार्थ पण सत्य भासवा
लागे छे. अतत्त्वने मिथ्यात्व
ग्रस्तजीव तत्त्वरूप समजे छे.
४
मिथ्यात्वथी उत्पन्न थएल
भ्रमणा करतां, धतुराना सेवनथी
उत्पन्न थतुं उन्मतपणुं सारुं छे,
मिथ्यात्वथी उत्पन्न थएलुं
उन्मतपणुं अनेक कुयोनिओमां
जन्ममरणोनी वृध्धि करे छे.
धतुराना सेवनथी उत्पन्न थतुं
पागलपणुं जन्ममरणने वधारतुं
नथी, तथा थोडा दिवस सुधी
जीवमां रही शके छे. तेथी
अनंतकाळ सुधी विपरीत स्वरूप
देखाडनार मिथ्यात्वथी जन्य मोह
परिणाम अत्यंत निष्कृष्ट छे, एम
समजवुं जोईए.
जन्ममरणना प्रवाहथी
डरवावाळा हे जीव! तुं ए दुष्ट
मिथ्यात्वनो त्याग कर.