: ७८ : आत्मधर्म चैत्र : २०००
५
अनादिथीकाळथी जीवमां
मिथ्यात्व चाल्युं आव्युं छे. तेथी आ
जीवनुं सम्यक्त्वमां रमण नथी. आ
मिथ्यात्वनो ज स्वाद जीवने
अनादिकाळथी आज सुधी आवी
रह्यो छे. तेथी आ जीव सम्यक्त्वमां
रमतो नथी. ए माटे सम्यक्त्वमां
प्रयत्न करवानो जीवने वारंवार
उपदेश आचार्य करे छे के,
अनंतकाळथी मिथ्यात्वनो अभ्यास
होवाथी तेनो त्याग करवामां घणा
ज पुरुषार्थनी जरूर छे. जेम सर्प
पोताना चिर–परिचित (लांबा
काळना परिचयवाळा) बीलमां
जातां अटकाववा छतां, पण प्रवेश
करे छे, तेम आ जीवने वारंवार
मिथ्यात्वनो त्याग करवा माटे अने
सम्यक्त्वमां द्रढता लाववा माटे
वारंवार मिथ्यात्व त्यागनो उपदेश
करवो अयोग्य नथी.
६
अग्नि, विष, अने
काळासर्प वगेरे पदार्थोथी पण
जीवनी तेटली हानि थती नथी, के
जेटली मोटी हानि मिथ्यात्वथी थाय
छे, अर्थात् तत्त्वमां अश्रद्धा
करवाथी संसारमां भ्रमण करवुं पडे
छे.
अग्नि, विष अने काळा
सर्प वगेरे पदार्थोथी जीवनी हानि
एकज भवमां थई शके छे, परंतु
मिथ्यात्वथी अनेक क्रोडाक्रोड
भवोमां हानि थाय छे.
७
झेरथी लेपाएल बाण
शरीरमां दाखल थतां, तेनुं झेर
आखा शरीरमां फेलाई–मनुष्य
प्राणरहित थई जाय छे, अर्थात् ए
पुरुष उपर कांई ईलाज थई शकतो
नथी, तेम मिथ्यात्वना शल्यथी
विंधाएल मनुष्य तीव्र वेदनाओ
अनुभवे छे.
८
जो के हुं मिथ्यात्व युक्त छुं तो
पण में दुर्धर चारित्रनुं पालन कर्युं छे,
माटे ए दीर्घ संसारथी, मारुं रक्षण
करशे एवी आशा व्यर्थ छे.
तेनुं द्रष्टांत–शोभावाळी कडवी
तुंबडीमां नाखेलुं दुध कडवुं थई जाय
छे, अर्थात् तेनुं मधुरपणुं नष्ट
थई जाय छे, परंतु शोभारहित शुद्ध
तुंबडीमां राखेलुं दुध कडवुं थतुं नथी,
ते मधुर अने सुगंधित रहे छे.
९
तेम मिथ्यात्व एटले विपरीत
रुचिथी विपरीत बनेला जीवने तप,
ज्ञान, चारित्र अने वीर्य ए गुण नष्ठ
थाय छे, अर्थात् मिथ्यात्वरहित तप,
ज्ञान, चारित्र अने वीर्य ए मुक्तिनो
उपाय छे, परंतु एकेक तपादिक
मुक्तिना उपाय नथी. ज्यारे
सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे, त्यारे
तपादिकमां सम्यकपणुं आवे छे; तेना
अभावमां तपादिमां सम्यकपणुं
आवी शकतुं नथी. मिथ्यात्वनो त्याग
कर्यो छे, एवा जीवमां सम्यग्द्रष्टिमां
तपादिक सद्गुण सफळ थाय छे; एवा
तपश्चरणथी आलोकनुं सुख, अने इंद्र
पदनी प्राप्ति थाय छे, अने मोक्ष
सुखनो पण लाभ थाय छे. पूर्ण शुद्धि
थयां पहेलांं आयुष्य पूरुं थाय तो देव
थई मनुष्यमां दशांगी सुखमां जन्मी
साधुपणुं अंगीकार करी मोक्षपद पामे
छे, अने तेज भवे पूर्ण शुद्धि करे तो
तेज भवे मोक्ष पामे छे.
१०
भव्य अने अभव्य जीव
अनंतवार नवमी ग्रैवेके गया, ए
शास्त्रनुं सामान्य कथन छे. त्यारे हवे
प्रश्न ए थाय छे के जीव शुं करे तो ते
नवमी ग्रैवेके जाय? तेनो उत्तर
नीचे आपवामां आव्यो छे.
सम्यग्दर्शन वगर शील
अने तपथी परिपूर्ण त्रण गुप्ति
अने पांच समिति प्रत्ये सावधानी
भरेलुं, अहिंसादि पांच महाव्रतरूप
व्यवहार चारित्र पाळे तेनुं फळ
नवमी ग्रैवेक छे ते मिथ्याद्रष्टिनो
उत्कृष्ट शुभभाव छे; एटले जीवे जे
काम अनंतवार कर्युं अने फरीने ते
ज काम करे तो तेनुं तेज फळ आवे,
एटले के संसार ऊभो रहे माटे
जीवे अनंतकाळमां शुं नथी कर्युं ते
विचारवुं जोईए.
तटस्थ विचारकने मालुम
पडशे के जीव शुद्धात्मानुं स्वरूप न
समज्यो एटले के सम्यग्दर्शन प्रगट
न कर्युं तेथी ज ते संसारमां
भटक्यो–अर्थात् तेथी ज तेनुं दुःख
चालु रह्युं. माटे सम्यग्दर्शन प्राप्त
करवुं ते (पूर्वे करेलुं नहीं होवाथी)
अपूर्व छे एम नक्की करी ते प्राप्त
करवा पुरुषार्थ करवो जोईए. आ
उपरथी एम समजवानुं नथी के
पुण्य छोडीने पाप करवानुं
कहेवामां आवे छे. शुद्धता प्राप्त न
थाय त्यांसुधी पाप छोडी पुण्यमां
रहेवुं, पण तेने धर्म के धर्मनुं
कारण न मानवुं.
ए वस्तु लक्षमां राखवानी
जरूर छे के ज्ञाननो उघाड ते
सम्यग्दर्शन नथी. ज्ञाननो उघाड
पण जीवने अनंतवार एवो थयो
छे के–अगियार अंगनुं ज्ञान
मेळव्युं पण ‘शुध्ध ज्ञानमय
आत्माना ज्ञानथी शुन्य’ ते
(होवाने लीधे) आत्माए पोताना
यथार्थ स्वरूपने श्रध्धयुं नहीं.
ज्ञाननो उघाड अने स्वरूपनी
यथार्थ श्रध्धा ए बे तदन जुदा
गुणो छे.