Atmadharma magazine - Ank 005
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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(अनुसंधान टा. पा. ६६ नुं)
सर्व संयोगो वखते एक ध्यान राखके एक
तत्त्व बीजा तत्त्वने कांई करवा समर्थ नथी–मारुं
चैतन्य स्वरूप मारामां छे, चैतन्य स्वभाव चूकीने
परमां सारुं मान्युं तेज अनंतु पाप छे. समजण ते ज
धर्म–अने अज्ञान ए ज संसार. दरेक जीव ज्ञानी के
अज्ञानी सौ स्वतंत्र छे. कोईना अभिप्राय फेरवी
शकवा बीजो कोई समर्थ नथी. रुचि तारा स्वभावनी
कर! तारा बेहद स्वभावने कोई पर द्रव्य लाभ–
नुकसान करवा समर्थ नथी.
चैतन्य ज्योत ज्ञानस्वरूप मुक्त ज छे!
पचास वरस पहेलांंना रागनुं ज्ञान करवामां ज्ञानमां
कांई राग आवतो नथी. रागरहित ज्ञान थई शके छे.
ज्ञान स्वरूप मुक्त छे तेने ज्ञान करवामां कोई द्रव्य–
क्षेत्र–काळ के भाव नडता नथी. मुक्त स्वरूपमां शंका
ते ज संसार छे.
भगवान आत्मा कई जात छे? ज्ञान स्वरुप
छे. ज्ञानमां पर कोई नडतां नथी तेथी परने कारणे
ज्ञानमां रागादि न रह्या. एकला स्वाश्रयना
ज्ञानने टकावी राखवुं तेज केवळज्ञान छे.
आवा तारा स्वभावमां शंका करीश तो ते
हाथ नहीं आवे. मुक्त स्वभावनुं जाणवुं ते धर्म.
अनादिथी पोतानी ज श्रद्धा बेसती नथी. अने
पर उपर, शरीरादि उपर लक्ष करे छे, पण खरेखर
तारा ज्ञान स्वभावमां कोई पर कांई करवा समर्थ
नथी. पूर्वना कारणे बाह्यसंयोग के अंदर क्षणिक
रागादि ते स्वभावमां नथी, ज्ञाननो उपाय ज्ञान ज
छे. अनंतकाळे नहीं करेल एवुं साचुं भान करवुं ते ज
अपूर्व छे. अने तेमां ज अनंतो पुरुषार्थ छे. सर्वज्ञ
भगवाने कहेली तारा स्वरूपनी स्वतंत्रता बतावाय
छे.
परद्रव्यथी लाभ नुकसान नथी एम कहीने
स्वेच्छाचारी बनवा कह्युं नथी. स्वेच्छाचार तो
स्वभावनो नाश करनार छे. कोई परने कांई करी शके
नहीं–आम होवाथी परने मारवा जीवाडवानो के
भोगववानो भाव टळी जवो जोईए. स्वरूपनी रुचि,
भान अने ते प्रकारनुं परिणमन ते ज धर्म छे, आ
समजे नहीं अने पोतानी ऊंधी मान्यता छोडे नहीं;
पूज्य गुरुदेव कहे छे के शुं थाय? सौ स्वतंत्र छे; प्रभु
छे, ऊंधाईमां पण स्वतंत्र छे. खमा, तने खमा! प्रभु
तारी अवस्था तुं ज कर! तारा तर्कनुं समाधान तुं कर
त्यारेज थाय! अहीं तो तारी स्वतंत्रताना ढंढेरा
पीटाय छे. ‘तुं प्रभु छो!’
शाश्वत सुख तारा स्वभावमां छे. परमां
लेशमात्र सुख नथी. आत्मानुं स्वरूप केवुं छे? स्त्री–
बाळक, सधन–निर्धन, रागी–द्वेषी, माणस–देव
कोई आत्मानुं स्वरूप नथी. स्वरूपनुं भान ए ज
उद्धारना रस्ता छे. अने भान वगर कोई रीते
उध्धारना मार्ग नीकळे तेम नथी;
अनादिथी यथार्थ चैतन्य स्वरूप जाण्युं नथी.
अने वस्तु स्वरूप समज्या विना कदी निवडा आवे
तेम नथी. माटे स्वभावनुं भान कर अने स्वभावना
जोरे रागादि सामे एकलो झुर! तने कोई नुकसान
करवा समर्थ नथी.
ज्यां परथी बंध मान्यो त्यां ज आत्माने
पराधीन मान्यो छे. कोई तीर्थंकर पण तने मदद करी
शके नहीं. निमित्तथी मात्र बोलाय के
तिथ्थयरा में
पसियंतु. पण खरेखर तीर्थंकर मदद करी शके नहीं;
मात्र विनयथी बोलाय छे. वीतराग कोईने मदद
आपता हशे?
परथी धर्म नथी तेम ज नुकसान पण नथी.
मफतनो परनो अहंकार करमां! परथी धर्म मानवो ते
अज्ञान छे. अज्ञानीने नुकसान तेना भावनुं ज छे–
परनुं नहीं. तारी शंकाए तने नुकसान छे अने तारी
ज निशंकताए तने धर्म छे. साची ओळखाण वगर
कदी निशंकता थाय नहि. अहिं उपभोगने भोगव
एम कहेतां परने भोगववानुं कह्युं नथी, पण ज्ञान
स्वभावनी ओळखाण करी तेमां द्रढ रहेवानुं कह्युं छे.
स्वभावनी द्रढता थतां पर संयोग आवीने छूटी जशे
ज्ञानीने कोई पर संयोगनो आदर नथी.
जे भावे तीर्थंकर नाम कर्म बंधाय ते भावनो
पण ज्ञानीने द्रष्टिमां आदर नथी.
अहीं स्वभावनी स्वतंत्रतानुं वर्णन कर्युं छे के
बापु! तारा स्वभावना भानमां कोई पण पर वस्तु
तने नुकसान करवा समर्थ नथी.
मुद्रक: – चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य
मुद्रणालय विज्यावाडी, मोटा आंकडिया काठियावाड.
ता. ५ – ४ – ४
प्रकाशक : – जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ, वती
जमनादास माणेकचंद रवाणी, विज्यावाडी,
मोटाआंकडिया काठियावाड..