Atmadharma magazine - Ank 005
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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समजण एज धर्म अने अज्ञान एज संसार


सर्व जीवो सुख ईच्छे छे, पण सुखनो साचो
उपाय नहीं जाणता होवाथी–पराश्रये सुख मानी बेसे
छे तेथी सुखने बदले दुःख ज थई रह्युं छे..
पराधीनता एज दुःख छे–अने स्वाधीनता एज सुख
छे..........
सुख–दुःखनुं स्वरूप शुं? यशोविज्यजी कहे छे के,
सघळुंय परवश ते दुःख कहीए,
निजवश ते सुख लहीए रे.....
ए द्रष्टिए आतमगुण प्रगटे,
कहो सुख ते कोण कहीए रे.....
भविका वीर वचन अवधारो.....
अर्थ:–आत्माने पोताना सुख माटे परनी
ईच्छा ते ज दुःख छे, आत्माने आधीन होय ते ज
सुख कहेवाय. पुण्य–पाप के कोई परने आधारे मारुं
सुख नथी एवी द्रष्टिए आत्मानो (सुख) गुण प्रगटे
छे; तो सुख कोने कहेवुं तेनो विचार करो! हे भव्य!
तमे वीर प्रभुना वचनने सांभळो एम श्री
यशोविज्यजी कहे छे. ‘तुं कोण छो’ ते जाण! तो तारा
भानमां तने बंधन छे ज नहीं. अने भान वगर गमे
तेम कर तो पण बंधन ज छे..... (परद्रव्यथी पोताने
कांईपण लाभ–नुकसान मानवुं ते ज बंधन)
आत्मा स्वत: सिद्ध वस्तु छे.... बंधनुं कारण
पर नथी. तारी मान्यता ज छे. दरेक वस्तुनो जेवो
स्वभाव छे ते ते वस्तुथी ज स्वतंत्रपणे छे, कोई
वस्तुनो स्वभाव परने आश्रये नथी...... पुण्यने
आधारे धर्म नथी.....धर्म पोताना ज आधारे छे....
आत्मानी स्वतंत्रता कोई लूटी शके नहीं–शत्रु
आवे तोय सवळा भावने फेरवी शके नहीं अने मित्र
आवे तो पण ऊंधा भावने टाळी शके नहीं. प्रभु पोते
ज छे.
[भान करे तो] प्रभु, तारी प्रभुता तारामां ज
छे.....सवळा अवळा भाव पोते ज करे छेे.
जे ज्ञानस्वभावमां निरंतर परिणमे छे तेने
पुण्य पाप के कोई परथी अज्ञान थतुं नथी. एटले
तेनाथी ते पोताने लाभ के नुकसान मानता
नथी.....ज्ञानी सर्व संयोगोमां ज्ञानपणे ज परिणमे
छे–कदी अज्ञानपणे थतो नथी.....
ज्ञानीने कहे छे के हे ज्ञानी–सर्व संयोगोने
जाणी ले! तने कोई संयोगो नुकसान करी शके तमे
नथी.....माटे शंका न कर के “पर मने नुकसान तो
नहीं करे ने!” स्वतंत्रताना भानवगर पंचमहाव्रत
करे तो पण पापी (अधर्मी)छे.....अने भान छे ते
राजपाटमां होवा छतां धर्मी छे.....
कोई पर वस्तु बंधनुं कारण नथी. आत्माने
तेना भावनुं ज लाभ के नुकसान छे, पर बंधनुं कारण
नथी. द्रष्टिनी भूल एज बंधनुं कारण–भावार्थमां
वस्तु दरेक स्वतःसिद्ध छे, दरेकनो स्वभाव पोताने ज
आधीन छे. एक द्रव्य बीजाने परिणमावी शके नहीं.
आ बधुं शा माटे कहेवाय छे लोको परथी
लाभ नुकसान माने छे ते मान्यता टळे तथा..... तारा
भावमां कोई भागीदार नथी......तारा भावनुं फळ
सोए सो टका तने ज छे.
ज्ञानीने कहे छे के:– “पर संयोग वधारे छे
तेथी मने नुकसान तो नहीं करे ने? ” एवी शंका न
कर! कारणके परवस्तु नुकसाननुं कारण नथी. तारो
अज्ञान भाव ज नुकसाननुं कारण छे. एक पदार्थने
बीजा पदार्थथी लाभ के नुकसान मानवुं ए मान्यता
ज बंधन छे.
अहीं कोई प्रश्न करे के पर वस्तु बंधनुं कारण
नथी, तो सारुं सारुं खावा पीवामां पण वांधो
नथीने? तेनो उत्तर:–ज्यां तें तहे खावाथी सुख मान्युं
एटले परथी सुख मान्युं तेमां ज तारी ऊंधी
मान्यतानुं पाप छे.....परने भोगववानो भाव ते ज
मिथ्यात्व. (ज्ञानी के अज्ञानी कोई परने भोगवी
शकतुं नथी.)
प्रतिकूळ संयोग बंधनुं कारण नथी. पण जो
तारा स्वभावने चूक्यो तो ज बंधन छे. ज्ञानी
अनुकुळ अने प्रतिकूळ बन्ने जातना संयोगोथी लाभ
के नुकसान मानता नथी, तेथी एकेमां सलवाता नथी.
तारो धर्म तारामां–तारे आधीन छे तेने परनी मददनी
जरूर नथी, नरकनी अगवडता धर्मने रोकी शके नहि
के स्वर्गनी सगवडता धर्ममां मदद करी शके नहीं.
धर्मी–ज्ञानी गमे तेवी अगवडतामां पण
मूंझाता नथी; शंका करता नथी, गरीब मजुरने पण
धर्म थई शके छे. स्वभावने जाणतो ज्ञानी निशंक छे के
मारा स्वभावने हानि पहोंचाडवा कोई समर्थ नथी.
(अनुसंधान टा. पा, ७९)