: ६८ : आत्मधर्म चैत्र : २०००
आत्मामां जे एक समय पुरती आत्मामां जे एक समय पुरती
विकारी अवस्था ते संसार अने अविकारी अवस्था ते मोक्ष
आ निर्जरा अधिकार छे; ‘निर्जरा’ ए जैन दर्शननो पारिभाषिक शब्द छे, तेनो अर्थ–आत्मामां कर्मना
संयोगाधीन थयेली विकारी अवस्थानो नाश अने शुद्ध स्वभावनी निर्मळ अवस्थानुं उत्पन्न थवुं ते निर्जरा छे.
आत्मा आनंदमूर्ति छे, त्रिकाळ सहजानंदनो रसकंद छे, पण वर्तमानकाळनी एक समयनी अवस्था
द्रष्टिए [पर्याय द्रष्टिए] बीजा ‘कर्म’ नामना पदार्थना संयोग आधीन थतो विकारी भाव तेने लईने संसार
छे, ते विकारी भाव आत्माने विषे क्षणिक–एक समय पूरतो छे. वर्तमानमां अनंत आत्माओ छे ते बधा
भगवान स्वरूप छे, पण तेनी वर्तमान अवस्थाद्रष्टिए एक समय पूरती दुःख दशा देखाय छे, ते एक समय
पूरती विकारी अवस्था सिवाय आखुं त्रिकाळी स्वरूप निर्विकारी सुखरूप छे.
वस्तुना बे विभाग पाड्या (१) तत्त्वद्रष्टि अथवा निश्चयद्रष्टि, अने (२) अवस्थाद्रष्टि अथवा
व्यवहार द्रष्टि.
१–निश्चयद्रष्टि:–त्रणे काळे भगवान आत्मानो स्वभाव अखंड परिपूर्ण छे, ते स्वभाव उपरनी द्रष्टि ते
शुद्धद्रष्टि–धर्मद्रष्टि के सुखद्रष्टि जे कहो ते बधानो अर्थ एक ज छे.
२–व्यवहारद्रष्टि:–एक समय पूरती पराश्रित भेदरूप अवस्थानी द्रष्टि ते व्यवहारद्रष्टि–दुःखदायकद्रष्टि के
संसारद्रष्टि छे.
आत्मामां त्रिकाळी स्वभाव तो अखंडानंद भर्यो छे, तेमां विकार एक समयनी अवस्था पूरतो छे, ते
एक समय बदली पछी बीजे समये अने बीजो समय बदली त्रीजे समये एम अवस्था बदली बदलीने थाय ते,
ते समयनो नवो विकार छे. संसार पण एक समयनी अवस्था पूरतो छे, पहेलो समय जाय त्यारे बीजे समये
बीजो विकार थाय; अर्थात् एक समयनी पर्यायनो व्यय त्यारे बीजा समयनी पर्यायनो उत्पाद, एमां बे समय
भेगा थाय नहीं. व्यवहारद्रष्टि एक समयनी अवस्था पूरती छे, ते द्रष्टि कषाय अने विकार उपर होवाथी
विकारी अवस्था एक समयनी ज होवा छतां ते द्रष्टिमां असंख्य समये तेना ख्यालमां आवे छे. विकारी अवस्था
समये समये बदलीने अनादिथी सळंग प्रवाह रूपे थती आवे छे छतां विकारनो समय एक करतां वधारे
समयनो नथी.
तत्त्व द्रष्टि (निश्चय द्रष्टि) मां आत्मा त्रिकाळ एकरूप शुद्ध ज छे, तेमां [तत्त्वद्रष्टिमां] काळ के बीजुं
कांई पण लागु पडे तेम नथी. एक समय पूरती विकारी अवस्था पाछळ ते ज समये एक समयमां अखंड
परिपूर्ण त्रिकाळी ध्रुव–स्वभाव भर्यो छे, आ रीते वस्तु एक समयमां परिपूर्ण छे. दरेक समये द्रव्य अखंड ध्रुव
छे; तेमां पराश्रित एक समय पुरती विकारी अवस्था अने ते सिवाय [ते ज समये] अखंड परिपूर्ण शुद्ध
स्वभाव ए बन्ने थईने आखुं द्रव्य छे.
एक समयमां ज्ञानादि अनंत गुणनो रसकंद, सामान्य ध्रुव ते वस्तु; वस्तुनो स्वभाव कदी विकारी थतो
नथी.
आ जीव अगियार अंग अने नव पूर्व भणी गयो, पण पोतानुं स्वरूप शुं? एकेक समये परिपूर्ण
स्वभाव शुं छे? ते कदी जोयुं नथी; स्वसन्मुख अंतर व्यापार करीने अनादिमां एक समय पण ‘यथार्थ हा’
पाडी नथी. आत्मा त्रिकाळ आनंद मूर्ति छे अने विकार तो एक समय पुरतो छे ते मारा स्वरूपमां नथी एम
यथार्थ समजीने ‘हा’ लाववी जोईए.
सम्यग्ज्ञान ए ज भ्रांतिना नाशनुं कारण छे. अने ए ज धर्म छे; सम्यग्ज्ञानना अवलंबन सिवाय बीजा
कोई उपायथी निर्जरा के भ्रमनो नाश त्रणकाळमां नथी.
संसारमां अनंत आत्माओ छे; दरेक आत्मा एक समय पुरती विकारी अवस्था सिवाय ते ज समये
परिपुर्ण अखंड शुद्ध स्वभावी छे; विकारी एक समय पुरती पर्याय ते संसार छे; अने ‘ते