Atmadharma magazine - Ank 005
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ७० : आत्मधर्म चैत्र : २०००
तत्त्वना निर्णय वगर सम्यक्दर्शन–सम्यग्ज्ञान थई शके नहीं.
सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान वगर सम्यक्चारित्र थई शके नहीं; अने सम्यक्चारित्र वगर मोक्ष थई शके नहीं,
माटे पहेलांं तो भगवानना आगम द्वारा स्वरूपनो निर्णय करवो पडशे. आमां आगम तो निमित्त छे–निर्णय
पोताने करवो पडशे. भगवानना आगम द्वारा पोताना आत्माथी जाणीने आत्म स्वभावभूत एक ज्ञाननुं ज
अवलंबन करवुं.
‘अखंड चैतन्यमूर्ति ज्ञायक स्वभाव ए ज हुं छुं, ज्ञान सिवाय मारो स्वभाव नथी, परिपूर्ण ज्ञान स्वरूप
चैतन्य ज्योत छुं’ एवा ज्ञाननुं एकनुं ज अवलंबन करवुं ए सिवाय बीजुं परनुं अवलंबन करवुं तेम कीधुं
नहि ते ज अनेकान्त छे.
उपरमां ‘एकनुं ज’ अवलंबन करवुं एम भार दईने कह्युं छे, एटले ज्ञाननी जे मतिश्रुत आदि पांच
अवस्थाना भेद तेनुं लक्ष ते भेद द्रष्टि छे–तेनुं अवलंबन नहीं–पण एकलो ज्ञानमूर्ति छुं तेनुं ज एकनुं ज
अवलंबन करवुं ते ज्ञान सिवाय कदि धर्म के सम्यक्दर्शन पण थाय नहीं. अवलंबन एक ज्ञाननुं ज छे.
अहीं कोई कहे के वाड वगर वेलो चडे? अर्थात् पराश्रय वगर आगळ वधाय? तो एम कहेनारनी
(पराश्रये धर्म माननारनी) द्रष्टि ऊंधी छे; जे वेला चडे छे ते लीला चडे छे के सुकायेला? वाड होवा छतां पण
सुकायेलो वेलो चडी शकतो नथी माटे जे वेलो चडे छे ते पोतानी ज शक्तिथी चडे छे. अने ज्यां वेलाने वधवानुं
होय त्यां वाड होय ज! आ प्रमाणे पराश्रयनी द्रष्टि फेरवी नांख!
जगते ओशियाळुं जीवन मान्युं छे एटले धर्म पण पराश्रये माने छे, पण आत्मानो स्वतंत्र स्वभाव
एज धर्म छे. आ बधी वात गरीब के तवंगर कहेवाता बधाने एक सरखी लागु पडे छे. आत्मा गरीब के
तवंगर नथी. पूर्व कर्मना निमित्ते मळेला संयोगना ढगलाना कारणे तेने “पैसावाळो” एवुं नाम अपाय छे,
पण बोलवा प्रमाणे माने
[आत्माने पैसावाळो माने] तो ते मिथ्या द्रष्टि छे. (लोको पण बोलणी प्रमाणे अर्थ
करता नथी. घीनो घडो एम बोलाय पण ते शब्दो प्रमाणे अर्थ थाय नहीं.) ज्यां विकारी अवस्था पण
आत्मानी नथी तो पैसादि जड तो आत्माना क्यांथी होय? आत्मा पैसावाळो नथी तेम गरीब पण नथी.
वस्तुमां क्यां ऊणप छे? संयोगनी ऊणपना कारणे लोको “गरीब” पणानो आरोप आपे छे, पण वस्तुमां
गरीबाई नथी.
प्रभु, तारी प्रभुता! एक समयमां ज्ञानादि अनंत गुणोथी परिपुर्ण छो! एक क्षण पुरतो वर्तमान
अवस्थानो विकार ते पण तारूं स्वरूप नथी. वर्तमानमां ज परिपुर्ण स्वरूप छे. उपयोग एक समयमां एक ज
होय; अवस्था उपर लक्ष न आपतां, ज्ञानीनुं लक्ष एक समयमां परिपुर्ण स्वभाव उपर छे जो वस्तु अने
वस्तुना गुण वर्तमान एक समयमां पूरा न होय तो बीजे समये आवशे क्यांथी? एक समयमां परिपूर्ण
ज्ञानगुण तेमां ‘विकार के भेद’ (मति–श्रुत वगेरे पर्याय) न लेतां पूर्ण ज्ञाननुं ज अवलंबन करवुं तेज मोक्षनो
उपाय छे.
विकार अने भेद एवा बे शब्दो उपर वापर्या छे;
विकार:–जे ऊणी अधूरी पर्याय तेनुं अवलंबन नहीं.
भेद:– मति श्रुत के केवळ ए आदि जे पांच भेद तेनुं लक्ष नहीं; विकार के भेद रहित एकला ज्ञानना
अवलंबनथी ज मोक्षनी प्राप्ति छे.
अहो! श्री समयसार! अने तेमां अमृतचंद्राचार्यनी टीका! एक एक शब्दे आनंद–रसना [ज्ञानना] घन
भर्या छे. हुं मात्र ज्ञान ज करूं, जाणुं; जाणवा सिवाय कांईपण करवा हुं समर्थ नथी, एवा भावमां भ्रांतिनो
नाश थाय छे. ज्ञान सिवाय कोई पर मने मदद करी दीए के वळावीओ थाय एवी पराश्रित बुद्धि ते एक
समयमां त्रणेकाळना जुठाणानुं सत्त्व अर्थात् तीव्र मिथ्यात्व छे; ते भ्रांति भाव– मिथ्यात्त्वभाव मात्र
सम्यग्ज्ञानथी ज नाश पामे छे; ते भ्रांतिनो नाश थतां आत्माना शुद्ध स्वभावनी प्राप्तिनो लाभ थाय छे एटले
के ज्ञान थया पहेलांं जे शुद्धतानो लाभ पर्यायमां न हतो ते ज्ञान थया पछी पर्यायमां आत्माना स्वभावनी
शुद्धदशानो लाभ थयो. पर्यायनो लाभ ते आत्मानो लाभ एवो आरोप करीने अहीं कह्युं छे. प्रथम आत्माने
विकारी अने परा–