Atmadharma magazine - Ank 005
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २००० आत्मधर्म : ७१ :
श्रित मानतो हतो ते मान्यतानो, भ्रांतिनो नाश थतां आखी वस्तुनी (वस्तुना स्वरूपनी) खबर पडी के
विकारीपणुं के पराश्रयपणुं मारा स्वरूपमां नथी, जो हुं रागादिवाळो होत तो...... ते टळीने पूर्ण ज्ञानस्वभावनो
लाभ मने केम थात? माटे ते राग मारुं स्वरूप न हतुं. ते क्षणिक हतो–अनात्मा हतो.
अनात्मा:–राग, पुण्यादिना विकल्प ते बधा अनात्मा छे,–कारणके ते आत्मानुं स्वरूप नथी, जे आत्मानुं
स्वरूप नथी ते बधो अनात्मा छे. सम्यग्ज्ञान थतां ते अनात्मानो परिहार नक्की थाय छे. व्रत–अव्रतनो विकल्प
के जे बधो अनात्मा ज छे तेनो परिहार नक्की थाय छे के “आ हुं नहीं, पण ज्ञान एज हुं.”
कोई अज्ञानी एम माने के पहेलांं आपणे राग–द्वेष घटाडवा मांडो–एटले छेल्ले एकलो शुद्ध आत्मा रही
जशे!
पण स्वरूपना भान वगर राग–द्वेषनो सर्वथा नाश थई शके नहीं; क्षणिक विकारना लक्षे त्रिकाळी
स्वभावनो पुरुषार्थ जागे नहीं पण शुद्ध स्वभावना लक्षे “आ मारुं नथी” एम नक्की थाय छे. एम थवाथी कर्म
जोरावर थतुं नथी. अर्थात् रागादि रहित शुद्ध स्वभावनुं भान थतां कर्मोनुं अटकवुं थाय छे. प्रथम
(भ्रांतिदशामां) पोते निमित्त (पोते निमित्तमां जोडाईने विकारी भाव करे त्यारे निमित्त आधीन थयो कहेवाय
पण कर्म पराणे विकार करावतुं नथी.) आधीन थईने विकार करतो हतो– पण भ्रांति टळ्‌या पछी पोते विकार
करतो अटके छे. एटले कर्म पण अटके छे. आत्मा पोते ज्यांसुधी विकारने पोताना माने छे त्यांसुधी ते कर्मो
आधीन पोते विकार करे छे, पण कर्मो विकार करावता नथी. ज्यां द्रष्टिनुं जोर फरी गयुं
[पर उपरथी स्व उपर
आव्युं] त्यां कर्माधीन थतो नथी त्यारे कर्मनुं जोर नथी एम कहेवाय छे.
आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत
सां – २० ना फागण सुद २ ना मांगळिक दिवसे
मुमुक्षुमंडळना एक अग्रसेवक राजकोटना भाई मोहनलाल
काळीदास जसाणी (उ. व. ५२ – ५३) तथा तेमनां पत्नी अ. सौ.
शीवकुंवरबेन ए बन्नेए आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत परमपूज्य श्री
सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी समीपे अंगीकार कर्युं छे.
पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी पासे वींछीआमां फागण
प्र क्ष् जा जी
ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर्युं.
अहो! समयसार ग्रंथ! ४१५ गाथामां तो सर्वज्ञनी वाणीनो साक्षात् धोध ऊतारी दीधो छे! श्री कुंदकुंद
प्रभुए साक्षात् भगवान त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमात्मा पासेथी सांभळीने तेनो आ शास्त्रोमां धोध वहाव्यो छे;
ते त्रण काळ त्रण लोकमां सत्य ज छे; ते ज अहीं समजावाय छे, समजाय तेम समजो.
आत्मा एक सममां ज्ञानथी परिपूर्ण शुद्ध छे तेनी श्रद्धा थतां स्वभाव आधीन थयो एटले
कर्म ‘जोरावर’ थई शकतुं नथी. अहीं ‘जोरावर’ शब्द वापर्यो छे एटले हजी रागादिमां अल्प जोडाण छे, जो
सर्वथा छूटी गया होय तो वीतराग थई गया होय. छठा सातमा गुणस्थाने झुलतां मुनिने पण अल्प
अस्थिरता होय छे, पण त्यां कर्म जोरावर थई शकतुं नथी. छठा–सातमा गुणस्थाने झुलतां मुनिने एक दिवसमां
अनेकवार छठुं–सातमुं बदलाय छे, त्यां छठानो काळ सातमा करतां डबल होय छे.
आ तो बधा शाश्वत टंकोत्किर्ण शब्दो छे, एटले ते शब्दोनी पाछळनो ‘वाच्य भाव’ त्रण काळमां भूंसाय
तेम नथी. आ निर्जरा अधिकार छे. स्वरूपना भान पछी रागादिमां अल्प जोडाई जवाय छे, पण भान छे के
आ पुरुषार्थनी नबळाई छे. पहेलांं जे ऊंधी मान्यता हती ते खसी गई, एटले पछी कर्मना आधीन जोडाण
हतुं ते छूटी गयुं. पण हजी सर्वथा छूटयुं नहीं होवाथी सर्वज्ञ दशा थई नथी. भगवान तीर्थंकर पण छद्मस्थ
दशामां होय (तेज भवे मोक्ष थवानो होय) त्यारे तेमने पण अल्प अस्थिरता कोईवार आवी जाय छे, अने
घणे भागे स्थिरता वर्ते छे; पण कर्म जोरावर थई शकतुं नथी.
आ बधुं ज्ञानना अवलंबननुं ज फळ आवे छे, चैतन्यज्योत ज्ञानथी ज भरपूर– तेना ज्ञाननी ज वात
छे, एक समयमां चैतन्य परिपूर्ण आनंदघन भरेलो छे, तेनुं ज अवलंबन करवाथी, स्वभावनी स्थिरताना जोरे
निमि–