: ७२ : आत्मधर्म चैत्र : २०००
त्ताधीन भाव विशेष थतो नथी, स्वभावना ज्ञानना अवलंबनना भावे राग–द्वेष मोह उत्पन्न थतां नथी,
जेटलुं स्वभावनुं जोर वध्युं तेटलुं मोह–(भ्रांति, राग–द्वेष) नुं जोर घट्युं, अने राग–द्वेष ते प्रमाद छे, ते
प्रमाद टळतां फरी रागादि उत्पन्न थता नथी, अने रागादि विना फरी आस्रव थतो नथी, आस्रव वगर फरीने
कर्म बंधातुं नथी, अने पूर्वे बंधायेलुं कर्म ते भोगवायुं थकुं निर्जरी जाय छे. स्वरूपना भानमां रस्ते पडतां
[एकाग्र थतां] जूना कर्म भोगवाईने निर्जरा थई जाय छे.
आत्मा कर्मने भोगवतो नथी; घणीवार कहेवायुं छे के कर्मनी अवस्था आत्मामां नथी. आत्मा चैतन्य
स्वरूप अनंत गुणोनो दळ छे; अने कर्म तो अनंत जडरजकणोनुं दळ छे; ते कर्मनुं फळ कर्ममां (जडमां) आव्युं
छे, अज्ञानीने पण कर्मनुं फळ आत्मामां आवतुं नथी, मात्र तेनी द्रष्टि कर्म उपर छे एटले कहे छे के:–
‘उदय महा बळवान है नहीं पुरुष बळवान,
शक्ति मरोळे जीवनी, उदय महा बळवान.’
आ तो यथार्थ भान पछी पर्यायनी नबळाईनुं भान कराववा माटे निमित्तथी कथन छे, कर्मने तो खबर
पण नथी के पोते कोण छे अने कयां छे? बधाने जाणनारो पोते अने महिमा करे परनो! जेनी द्रष्टि कर्म उपर
छे ते कर्मनुं जोर माने छे, अने कहे छे के– ‘नीकाचीत अने निगत (भोगावळी) कर्म बांध्या ते कदी छूटे? ते कर्मे
शक्तिने रोकी राखी छे, भगवान महावीरने पण कर्मो भोगववा पड्यां!’ त्यां ‘कर्मे आत्मानी शक्तिने रोकी’
एवुं कथन तो पुरुषार्थनी वर्तमान नबळाई बताववा निमित्तथी छे; कर्म आत्माना कोई गुणने रोकी शके एम
त्रण काळ त्रण लोकमां बनी शकतुं नथी पण ज्यारे पोते पुरुषार्थमां अटक्यो त्यारे कर्मने निमित्त कहेवायुं. जे
विकारी पर्याय थाय छे ते कर्मना निमित्ते थाय छे माटे तारा स्वरूपमां नथी, एम बतावीने निर्विकार
स्वभावना पुरुषार्थनुं जोर बताववुं छे, कर्मनुं जोर बताववुं नथी.
भगवान जे उपदेश आपे छे ते ‘तुं लायक नथी पण हुं तने समजावुं छुं, तुं समजीश नहीं छतां कहुं छुं’
एम कहीने उपदेश आप्यो नथी, पण ‘हुं अने तुं सरखा छीए, हुं जे कहुं छुं ते तुं बराबर समजी जईश’ एम
कहीने कह्युं छे. आचार्य देवे प्रथम गाथामां ज बधाने सिद्ध समान स्थापीने शरूआत करी छे; ‘तुं नहीं समज
माटे कहुं छुं’ एम कह्युं नथी.
जैनधर्म ए वस्तु प्रदर्शक धर्म छे, वस्तु त्रिकाळ छे वस्तुनो स्वभाव त्रिकाळ छे, वस्तु प्रदर्शक धर्मने
काळनी केदथी [मर्यादाथी] रोकी शकाय नहीं; कारणके वस्तु अने वस्तुनो स्वभाव देखाडनार ए जैन धर्म छे
अने वस्तु त्रिकाळ छे तेथी धर्मपणत्रिकाळ ज छे; धर्मने काळनी मर्यादामां बांधी शकाय नहीं; वस्तु त्रिकाळ छे
माटे तेनो प्रदर्शक धर्म पण त्रिकाळ होय ज.
सत्य तो नग्न ज छे, ते कोईनुं राखे तेम नथी, सत्य त्रिकाळ एक रूप ज छे; “एक होय त्रण काळमां
परमारथनो पंथ” परमार्थनो पंथ अर्थात् सत्यधर्म त्रिकाळ एक ज होय, काळनी असर तेमां होय नहीं;
महावीर भगवान वखते बीजो मार्ग अने त्यारपछी तेनाथी जुदो मार्ग एम बने नहीं.
जैनधर्मनुं कथन त्रिकाळी वस्तु स्वभावना आधारे छे, अनुभव ते जैन धर्मनो पायो छे, युक्तिवाद ते
जैन धर्मनो आत्मा छे; सत्यमार्ग कोईथी रोकाय तेम नथी, जे रोकवा माटे करशे ते पोते ज चारगतिना
भ्रमणमां रोकाई जवाना! तत्त्व कोई व्यक्तिना आधारे नथी के कोईथी तेनी उप्तत्ति नथी; सर्वज्ञ थया माटे धर्म
थयो नथी; वस्तु त्रिकाळ छे, वस्तुना धर्मने रोकी शकनार कोई नथी; चोथो काळ होय के पंचमकाळ होय
कोई काळ धर्मने असर करी शके नहीं. धर्म जेम छे तेम ज त्रिकाळ छे.
सुखडी त्रणे काळ घी–गोळ अने लोट ए त्रण वस्तुनी ज बने, ए सिवाय कदी रेती पाणी अने
कांकरानी सुखडी बनती नहती अने कदी बनशे पण नहीं. एम मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्र ए त्रण थईने ज छे, ए सिवाय पुण्यादिथी मोक्षमार्ग त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी.
एकला ज्ञाननुं अवलंबन ए ज मोक्षनो उपाय छे; एकला चैतन्य ज्ञान स्वभावना अवलंबन सिवाय
बीजा कोई उपाये मोक्ष नथी. एकला ज्ञानना अवलंबने पूर्वे बंधायेलुं कर्म निर्जरी जाय छे, अने समस्त कर्मोनो
नाश थतां साक्षात् परिपूर्ण मोक्षदशा प्रगटे छे. आवो सम्यग्ज्ञाननो महिमा छे.