Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २००० आत्मधर्म : ८९ :
गणधर पद मळ्‌या पछी तेमणे ते ज दिवसे (अषाड वदी एकमे) रात्रिना आगला पाछला बे पहोरने एकेक
अंतमुहूर्तमां ज बार अंग अने चौदपूर्वनी रचना करी.
केवळ ज्ञाना अतिशयो
केवळज्ञान प्रगटतां दश अतिशयो केवळज्ञानी भगवंतोने प्रगटे छे ते प्रमाणे भगवान महावीरने
प्रगट्या, ते दश अतिशयोनां नाम नीचे प्रमाणे छे:–
१–उपसर्गनो अभाव, २–अदयानो अभाव, ३–शरीरनो पडछायो पडे नहीं, ४–चतुर्मूख देखाय, ५–
सर्वविद्यानुं प्रभुत्व, ६–नेत्रना टमकार नहीं, ७–एकसो योजनमां सुकाळ, ८–आकाशगमन, ९–कवळाहारनो
अभाव– १०–नख केश वधे नहीं.
तीर्थंकर भगवाने देवकृत १४ अतिशय होय छे.
तीर्थंकर भगवानने ३४ अतिशय होय छे; तेमां दश जन्मना अने दश केवळज्ञानना कहेवामां आव्या;
बाकीना चौद देवकृत छे तेना नाम नीचे प्रमाणे छे.
(१) सकल अर्धमागधी भाषा (२) बधा जीवोमां मैत्री भाव (३) सर्वे ऋतुना फळ फुल फळे (४)
दर्पण समान भूमि (५) कंटक रहित भूमि (६) मंद सुगंधी पवन (७) गंधोदक वृष्टि (८) विहार वखते पाद
तळे कमल रचना (९) सर्व धान्यनी निष्पत्ति (१०) दशे दीशानी निर्मळता (११) देवोना आव्हानन शब्द
(१२) आगळ धर्मचक्र चाले (१३) अष्टमंगळ द्रव्य आगळ चाले (१४) सर्वेने आनंद.
दिव्यध्वनिुं स्वरूप
भगवान वीतराग थया होवाथी तेओ ईच्छा रहित छे. पण पूर्वे बंधायेल वचनवर्गणा आत्माना सर्व
प्रदेशोथी छूटे छे; तेनो ओमकार ध्वनि होय छे, ते एकाक्षरी अथवा निरक्षरी कहेवाय छे, दरेक समये तेमां संपूर्ण
ज्ञाननुं कथन होय छे, सांभळनाराओ जे वस्तु समजवानो भाव करे ते दिव्यध्वनि सांभळी समजी ले छे पोत
पोतानी भाषामां समजी ले छे तेथी दिव्यध्वनिने ‘साक्षरी’ पण कहेवामां आवे छे.
भगवान उपदेशदाता अथवा धर्मप्ररूपक
भगवानने ईच्छा होती नथी तेथी तेओ उपदेश आपता नथी. सहेज स्वभावे वचन–वर्गणा दिव्य
ध्वनिरूपे छूटे छे, तेने सांभळी जीवो पोतानी पात्रताथी धर्म पामे छे, ते अपेक्षाए दिव्यध्वनि निमित्त थतां
भगवानने उपचारथी उपदेशदाता कहेवामां आवे छे. जेने लाभ थाय छे ते विनयथी कहे छे के भगवान उपदेश
दाता छे, ते अपेक्षा लक्षमां राखी कथन मात्रथी तेम कहेवानी पध्धत्ति छे.
भगवान संघना स्थापक
भगवान रागरहित छे. तेने संघ स्थापवानो भाव हतो एम मानवुं न्याय विरुद्ध छे. दिव्यध्वनिनो
उपदेश पात्र जीवोए सांभळ्‌यो तेने परिणामे चार प्रकारना भावसाधुओ थया तेथी भगवाने
चतुर्विधसाधुसंघनी स्थापना करी एम विनयथी कहेवामां आवे छे; ते मात्र उपचार छे; ते उपदेश सांभळीने
धर्म पामनारा जीवोना बीजी रीते चार विभाग–साधु, अर्जिका, श्रावक अने श्राविका थया, तेने पण चतुर्विध
संघ कहेवामां आवे छे.
• • • नश्चय व्यवहरन स्वरूप • • •
ोर् निश्चय–स्वाधीन भाव व्यवहार–पराधीन भाव
मुमुक्षुओ विचारो के–पराधीन भाव आत्माने लाभ करे, के पराधीन भाव त्रुटे अने
स्वाधीन भाव प्रगटे ते आत्माने लाभ करे?
दिव्यध्वनिमां कहेवामां आवेल वस्तुनुं टूंकुं स्वरूप.
१–जीव अनंत छे; दरेक जीव स्वयंसिध्ध पूर्ण चैतन्य स्वरूप वस्तु छे.
२–अनादिथी परवस्तुओथी मने लाभ नुकसान थाय छे एम पोतानी अवस्थामां माने छे तेथी ते दुःखी छे.
३–दरेक जीव पोते नित्य परिणामी वस्तु छे (पोतानी वर्तमान अधूरी पर्याय–हालत–विकल्प के निमित्त
उपर लक्ष न आपतां) जो पोताना नित्य, धु्रव चैतन्य स्वभाव तरफ लक्ष आपे तो भ्रमणा टळे अने सुख प्रगटे.
४–जड कर्मो अने शरीर साथे तारा आत्माने एक क्षेत्रावगाह मात्र संबंध छे.
५–जे एम माने छे के हुं पर जीवोने जीवाडुं छुं अने परजीवो मने जीवाडे छे–ते मूढ