: ९० : आत्मधर्म : वैशाख : २०००
छे, अज्ञानी छे, ज्ञानी तेथी विपरीत छे.
६–जे एम माने छे के हुं पर जीवोने हणुं छुं अने पर जीवो मने हणे छे–ते मूढ छे, अज्ञानी छे, ज्ञानी
तेथी विपरीत छे.
७–जे एम माने छे के हुं पर जीवोने सुखी के दुःखी करी शकुं, पर जीवो मने सुखी दुःखी करी शके–ते मूढ
छे, अज्ञानी छे, ज्ञानी तेथी विपरीत छे.
८–हे भाई! हुं जीवोने सुखी–दुःखी करी शकुं, हुं जीवोने धर्म पमाडी शकुं, तेने मोक्ष पमाडी शकुं, तेने
बंधमां नांखी शकुं ए तारी मूढमति छे तेथी ते मिथ्या छे.
९–दरेक द्रव्यना द्रव्य–गुण–पर्याय परथी जुदा छे, दरेकना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव परथी तद्न जुदा
होवाथी, बीजा साथे एकरूप थई शके नहीं, तेथी कोई कोईने कांई पण करी शके नहीं; मात्र अज्ञानीओ पर
उपर लक्ष करे छे तेथी तेने विकार थाय छे. विकारपणे जीव थतां जड कर्म पोताना कारणे त्यां आवे छे, ‘जीवे
कर्म बांध्या’ अथवा ‘परनुं कर्युं’ एवो (स्वभावथी भ्रष्ट) अज्ञानीओनो विकल्प छे–भ्रम छे; अनादि अज्ञानने
लीधे एम कहेवानो प्रसिध्ध रुढ व्यवहार छे तेथी ज्ञानीओ तेमनी भाषामां एम कहे छे, पण शब्दो प्रमाणे अर्थ
थतो नथी, पण भाव प्रमाणे अर्थ थाय छे.
१०–जीवे प्रथम मिथ्यादर्शन टाळी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए, ते विना साचुं ज्ञान के चारित्र होतां नथी.
११–जे सम्यग्दर्शन सहित होय तेने ज साचां व्रत, दान के तप, शील होई शके, अज्ञानीने होय नहीं.
१२–जड द्रव्यना पांच भेद छे, तेमां चार अरूपी छे अने एक पुद्गल रूपी छे तेना विशेष गुण स्पर्श,
रस, गंध अने वर्ण छे, शब्द तेनी पर्याय छे.
१३–जीव पोतानुं स्वरूप समजवा जे वखते पुरुषार्थ करे ते वखते पोते समजी शके; पोते पात्र होय त्यारे
निमित्त पोतना (निमित्तना) कारणे हाजर होय छे निमित्त परनुं कांई करी शकतुं नथी–मात्र हाजररूप होय छे.
चैत्र वदी ११ बुधवार ता. १९ एप्रील १९४४ ना रोज सद्गुरुदेवनी सोनगढमां पधरामणी थएली छे
माटे तेओश्रीनी अमृत वाणीनो लाभ लेवा माटे सर्व मुमुक्षु भाई–ब्हेनोए हवेथी त्यां लाभ लेवा जवुं.
“सत्ता स्वरूप” पुस्तक चैत्र शुद १३ ना रोज बहार पड्युं छे तेनी कींमत ०–९–० आना छे माटे जेमने
जोईतुं होय तेमणे सोनगढथी मंगावी लेवुं.
१४–किंचित् मात्र आज सुधी परने (जीवने के जडने) लाभ के नुकशान तें कर्युं ज नथी.
१प–आज सुधी कोईए (जड के जीवे) किंचित् मात्र तने लाभ के नुकशान कर्युं नथी.
१६–हे जीव! तुं शा माटे डरे छे; जगतनी कोई वस्तु [जड के चेतन] तने दुःखी–सुखी करी शके तेम
नथी तुं पोते पूर्ण सुखथी नित्य भरेलो छो, तुं शा माटे तारा सुखने माटे जगतनी चीज [जड के चेतन]
पासेथी आशा राखी रह्यो छो?
१७–ज्यारे परथी तने सुख दुःख नथी त्यारे तारे परमां हर्ष
के शोक, ईष्ट के अनिष्टपणुं राग के द्वेष करवानुं शुं कारण?
बस! जो तुं आटलुं यथार्थ समज–तारा अखंड धु्रवस्वरूप चैतन्यस्वभाव तरफ लक्ष कर तो तने
सम्यग्दर्शन प्रगट थशे अने क्रमेक्रमे रागद्वेष टाळी संपूर्ण वीतराग थई जईश.
१८ धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे. पोतानुं स्वरूप यथार्थ समज्या वगर सम्यग्दर्शन थाय
नहीं–माटे स्वरूप यथार्थपणे समजी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं. अभव्य ज ते प्रगट करी शके नहि (प्रगट करवानो
पुरुषार्थ ते न करे) भव्य वृद्ध, बाळ, रोगी, निरोगी, सधन, निर्धन बधा ते प्रगट करी शके.
१९ सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या सिवाय कोई जीव खरो अहिंसक–खरो सत्यावलंबी, खरो अचौर्यभावी, खरो
ब्रह्मचारी के खरो अपरिग्रही अंशे के पूर्णताए थई शके नहीं.
२० (सम्यक्) दर्शन ते धर्मनुं मूळ छे, मिथ्यात्व ते संसारनुं मूळ छे. माटे जीवना विकारी भाव (पुण्य–
पाप, आस्रव बंध) अने अविकारी भाव (संवर–निर्जरा अने मोक्ष) समजी शुद्धता प्रगट करवी