: वैशाख : २००० आत्मधर्म : ९१ :
अनकन्त स्वरूप
केटलाको कहे छे के भगवानने केवळ ज्ञान थयुं त्यारे जगतमां जे धर्मनी मान्यताओ चालती हती तेनो
समन्वय करवा अनेकान्तवादनी भगवाने रचना करी; पण भगवान तो वीतराग छे, तेने रचना करवानुं होय ज शुं?
भगवाने केवळज्ञानमां दरेक वस्तुनुं स्वरूप अनेकांत (अनेक धर्ममय) छे एम दीठुं अने तेथी अनेकान्त
स्वरूप दिव्यध्वनिमां आव्युं.
अनेकान्तनो अर्थ जेम जेने फावे तेम करे छे, तेथी जे खरुं स्वरूप छे ते अहीं आपवामां आवे छे:–
भगवान अमृतचंद्र आचार्य अनेकान्तनुं स्वरूप घणी सुंदर रीते नीचेना शब्दोमां कहे छे:–
“एक वस्तुमां वस्तुपणानी नीपजावनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकान्त छे.”
अनेकान्तना बे प्रकार छे. (१) सम्यक् अनेकान्त (२) मिथ्या अनेकान्त; त्यां एक वस्तुमां, पोत
पोताना प्रतिपक्षी सहित अनेक धर्मोनुं युक्ति आगमथी विरोध रहित निरुपण करे ते सम्यक् अनेकान्त छे;
अने तत् अतत् स्वभावनी शून्य कल्पना करे ते मिथ्या अनेकान्त छे. पोतानुं प्रयोजनभूत तत् स्वरूप जे प्रकारे
छे ते प्रकारे, अने अतत् स्वरूप जे प्रकारे छे ते प्रकारे ते जाणे नहीं अने खोटी अनेक कल्पनाओ कर्या करे ते
मिथ्या अनेकान्त छे.
एकान्त पण बे प्रकारना छे– (१) सम्यक् एकान्त (२) मिथ्या एकान्त; तेमां हेतु विशेषना सामर्थ्यनी
अपेक्षाए प्रमाणथी परुपणा करेला पदार्थना एक देश (भाग) ने कहेवो ते सम्यक् एकान्त छे, अने एक ज
गुण छे एम निश्चय करी बीजा अन्य समस्त गुणोने न मानवा ते मिथ्या एकान्त छे.
सम्यक एकान्त संबंधे श्री समयसारजीमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे:–
“आत्मानो, कर्म जेनुं निमित्त छे एवा मोह साथे संयुक्तपणारूप अवस्थाथी अनुभव करतां संयुक्तपणुं
भूतार्थ छे–सत्यार्थ छे, तो पण पोते एकांत बोध बीजरूप स्वभाव छे तेनी [चैतन्य भावनी] समीप जईने
अनुभव करतां सयुक्तपणुं अभूतार्थ छे–असत्यार्थ छे.” (गुजराती समयसार पानुं ३३)
वैशाख मासमां पाळवानी तीथीओ
सुद २ सोम ता. २४ एप्रील वद २ बुध ता. १० मे
,, ५ गुरु ,, २७ ,, ,, ५ शनि ,, १३ ,,
,, ८ रवि ,, ३० ,, ,, ८ सोम ,, १५ ,,
,, ११ बुध ,, ३ मे ,, ११ गुरु ,, १८ ,,
,, १४ रवि ,, ७ ,, ,, १४ रवि ,, २१ ,,
,, १५ सोम ,, ८ ,, ,, ०)) सोम ,, २२ ,,
“सिध्ध भगवानने एकांत सुख छे.” एम कहेवामां आवे छे ते सम्यक एकान्त छे, केमके तेमां सम्यक्
अनेकान्त नीचे प्रमाणे आवे छे:–
‘सिध्ध भगवानने एकान्त सुख छे एटले के भगवानने सुख अस्तिरूपे छे, संसारी सुख–दुःख नथी
एटले के नास्तिरूपे छे; ए रीते अस्ति–नास्ति, परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं सिध्ध भगवानने खरुं
सुखपणुं निपजावे छे.’
श्री प्रवचनसारमां ‘एकांत द्रष्टि’ अने ‘अनेकांत द्रष्टि’ ना नीचे प्रमाणे अर्थ कर्या छे:–
एकांत द्रष्टिनुं स्वरूप अने तेनो व्यवहार
जे जीव सर्व अविद्यानुं मूळकारण जीव–पुद्गल स्वरूप असमान जातिवाळा द्रव्यनी पर्यायने पोतानी
माने छे अने आत्म स्वभावनी भावनामां नपुंसक समान अशक्ति (निर्बळपणुं) धारण करे छे ते खरेखर
निरर्गल एकान्त द्रष्टि ज छे.
हुं मनुष्य छुं. आ मारुं शरीर छे, ए प्रकारना जुदाजुदा प्रकारना अहंकार अने ममकारथी विपरीत,
ज्ञानी थई अविचलित आत्म व्यवहारने धारण करवाने बदले समस्त निंद्य क्रिया समूहने अंगीकार करवाथी
पुत्र, स्त्री, मित्रादि मनुष्य व्यवहारनो आश्रय करी रागद्वेषी थाय छे अने परद्रव्य–कर्मोनी संगते परसमय
(विकारभाव) मां रत थाय छे.
अनेकांत द्रष्टि अने तेनो व्यवहार
जे जीव पोताना द्रव्य, गुण, पर्यायोनी अभिन्नताथी स्थिर छे, समस्त विद्याओना मूळभूत भगवान
आत्माना स्वभावने प्राप्त