Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 29

background image
: ९२ : आत्मधर्म : वैशाख : २०००
थया छे, आत्म स्वभावनी भावनाथी पर्याय (शरीर– वर्तमान अवस्था) मां रत नथी अने आत्म स्वभावमां
ज स्थिरता वधारे छे, जे जीव स्वाभाविक अनेकान्त द्रष्टिथी, एकांतद्रष्टिरूप परिग्रहने दूर करवावाळा छे,
मनुष्यादि गतिओमां शरीर संबंधी अहंकार–ममकार भावोथी रहित छे, जेम अनेक गृहोमां संचार करवावाळो
रत्ननो दीवो एक ज छे तेवी रीते एकरूप आत्माने प्राप्त थयेल छे, अचलित चैतन्य विलासरूप आत्मव्यवहारने
करे छे, ते अनेकांतद्रष्टि छे. अयोग्य क्रियानुं मूळकारण–मनुष्य व्यवहार तेने ते अंगीकार करतो नथी.
अनेकान्त द्रष्टि अने एकान्त द्रष्टि अने तेमना निश्चयना व्यवहारना उपर कह्या तेमांथी नीकळता
सिद्धांतो:–
अनेकान्त द्रष्टि संबंधी १
१– संसारनुं मूळ अविद्या (मिथ्यादर्शन) छे अने तेनुं फळ शरीरनी प्राप्ति छे.
२–मनुष्य शरीरने पोतानुं माने, हुं मनुष्य छुं तेम माने शरीर ते हुं छुं अने शरीर मारुं एम माने
एटले के शरीरनुं कांई कार्य करी शके एम माने, ते आत्मा अने अनंत रजकणोने एकरूप मानतो होवाथी
[अनंतना मेलापने एक मानतो होवाथी एकान्त द्रष्टि छे, ते निश्चय कुनय छे.
३–एकान्त द्रष्टिनो व्यवहार हुं मनुष्य छुं एवो भाव करवो ते मिथ्या द्रष्टिनो व्यवहार छे–ते व्यवहार
कुनय छे.
४–उपर कही ते एकान्त द्रष्टिने भगवान परिग्रह कहे छे.
अनेकान्त द्रष्टि संबंधी
शुद्धि
चैत्र अंक प नी शुद्धि:– पानुं–१४ कोलम बीजुं. पेली लीटी
“जो के हुं मिथ्यात्व मुक्त छुं तो पण...” तेने बदले “जो के हुं मिथ्यात्व युक्त (सहित)
छुं तो पण...” ए प्रमाणे वांचवुं.
१–समस्त साची विद्यानुं मूळरूप भगवान आत्माना स्वभावने प्राप्त थवुं, आत्म स्वभावनी भावना
(अभ्यास) मां जोडावुं अने आत्म स्वभावमां स्थिरता वधारवी तेनुं नाम अनेकान्त द्रष्टि छे.
२–जीवनो स्वभाव अनेकान्त द्रष्टि छे. हुं अने शरीर जुदा छे, शरीरनुं हुं कांई करी शकुं नहीं; शरीरनुं हुं
कांई करी शकुं एम मानवुं ते एकान्त द्रष्टिरूप परिग्रह छे, ते मान्यताने हुं दूर करनारो छुं एम मानतो होवाथी
ते अनेकान्त द्रष्टि छे; ते जीवने अने रागद्वेष तथा परवस्तुने अनेक (जुदी) गणे छे, तेथी ते अनेकांतद्रष्टि छे.
३–ते पोताना एकरूप (धु्रव स्वभावरूप) आत्मानो आश्रय करे छे, ते तेनो निश्चयनय छे.
४–अचलित चैतन्य विलासरूप आत्मव्यवहारने ते अंगीकार करे छे ते तेनो व्यवहार नय छे.
ज्ञेयनां जाुदा जाुदा पडखानुं ज्ञान (नय)
दरेक वस्तुमां त्रिकाळ टकी रहेवापणानी साथे समये समये समर्थ अवस्थांतर थवानो स्वभाव छे. वळी
एक वस्तु पोताथी होवारूप छे. परथी नहीं होवारूप छे; तेमज दरेक वस्तुमां अनंत गुणो अने ते गुणोनी समये
समये एकेक अवस्था होवाथी समये समये बधा गुणोनी (अवस्था) साथे लेतां अनंत अवस्था थाय छे. ए
रीते जाणवा योग्य पदार्थोमां घणा विभागो (पडखां) पडे छे. एक विभाग (पडखां) नो विचार अपूर्ण जीव
ज्यारे करे छे त्यारे ते बीजा विभागो होवां छतां तेनो विचार एकी साथे करी शक्तो नहीं होवाथी जे पडखुं
ज्ञानमां लीधुं तेणे ते विभागनुं ज्ञान कर्युं कहेवाय, ते ज्ञान अंशिक
[एक भागनुं] छे. हवे जो ते वखते बीजा
पण पडखां छे एम तेने ज्ञानमां गौणपणे होय तो जे विभागने ज्ञानमां प्रधान कर्यो ते आखा ज्ञाननो अंश
होवाथी तेने ‘नय’ कहेवाय छे.
सप्त भंगीनुं स्वरूप
दरेक वस्तुने समजवा माटे तेनुं सात प्रकारे ज्ञान थई शके छे, तेथी तेने ‘सप्त भंगी’ कहेवामां आवे छे.
तेना बे पेटा भेद. प्रमाण सप्तभंगी अने नयसप्तभंगी एवा भगवाने जणाव्या छे. तेमां प्रथमना बे भंग
‘अस्ति–नास्ति’ छे, ते मुमुक्षुए