Atmadharma magazine - Ank 006
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २००० आत्मधर्म : ९३ :
समजवानी खास जरूर छे. पोते होवा रूप कई रीते छे अने पोते कई रीते नथी एम बे भंग यथार्थपणे जीव
जाणे तो तेना ख्यालमां आवे के हुं स्वपणे छुं अने परपणे नथी. हुं स्वपणे– मारा पोताना द्रव्ये, क्षेत्रे, काळे
अने भावे छुं एटले हुं परने लाभ–नुकसान करी शकुं नहीं के पर मने करी शके नहीं. हुं पोते ज मारा भला–
भूंडानो करनार छुं; मने दोष माराथी थाय छे छतां परनो दोष काढवो ते ऊंधाई छे माटे दरेक जीवे ते स्वरूप
समजी ऊंधाई टाळवी जोईए; एवो उपदेश आ भंगोद्वारा भगवाने आप्यो छे.
भगवाने परूपेली अहिंसा
अहिंसा ते चारित्रनुं अंग छे अने सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन वगर होई शके नहीं, तेथी मिथ्याद्रष्टिने
खरी अहिंसा होती नथी.
लौकिक मान्यता एवी छे के–पर जीवोनी हिंसा न करवी एवो धर्म भगवाने उपदेश्यो छे; पण ए
मान्यता भूलवाळी छे. ‘कोई जीवने मारवो नहीं, दुःख देवुं नहीं.’ एवो उपदेश दरेक घरमां लोको आपे छे.
शाळाओमां पण ते उपदेश ओछे के वधारे अंशे मळे छे; हवे जो तेने भगवाने धर्म कह्यो होय तो भगवानने
लौकिक पुरुष गणवा जोईए; पण भगवानने तेमनुं अनंत वीर्य प्रगट्या पछी जे दिव्यध्वनि प्रगट थाय छे
तेमां तो एवो उपदेश होय छे के, आ लौकिक मान्यता खोटी छे; कोई कोईनी हिंसा करी शके नहीं, पण हिंसाना
विकारी भाव जीव करी शके अने ते रीते जीव पोतानी हिंसा अनादिथी करी रह्यो छे. भगवाने अहिंसानुं स्वरूप
नीचे जणाव्या मुजब कह्युं छे:–
ता. ४ थी मे १९४४ गुरुवारथी एक मास माटे जैन दर्शनना अभ्यास माटे एक वर्ग खोलवानो
छे, वर्ष १४ थी उपरनी उंमरना उमेदवारोने दाखल करवामां आवशे. भोजन तथा रहेवानी सगवड
समिति तरफथी थशे. उमेदवारे नीचेना सरनामे लखवुं.
श्री जैन अतिथि सेवा–समिति
सोनगढ (काठियावाड)
जीवमां मोह (मिथ्यादर्शन) अने राग–द्वेषनुं उत्पन्न थवुं ते हिंसा छे, अने ते पेदा न थतां आत्म
स्वरूपमां स्थित रहेवुं ते अहिंसा छे; ए अहिंसा ज खरो धर्म छे. द्रव्यप्राणोनो घात पण भावहिंसा विना
कहेवातो नथी. जे जीवो उक्त अहिंसानुं सर्वथा पालन करी शके ते जेटले अंशे ते साची अहिंसाने पाळी शके
तेटले ज अंशे अहिंसक छे अने शेष अंशे हिंसाना भागी छे. ए ध्यान राखवानी वात छे के “ (जेटले अंशे)
वीतराग भाव छे ते ज अहिंसा छे, अने शुभराग पण हिंसा छे.” आ अहिंसा ते महावीरे परूपेल छे.
भगवान अलौकिक आत्मा हता तेथी तेमणे बतावेली अहिंसा पण अलौकिक होय ते ज न्यायसर छे.
पोतानुं स्वरूप यथार्थपणे समजीने मिथ्यादर्शन टाळ्‌या सिवाय कोईपण जीव अहिंसक, सत्यरूप,
अचौर्यरूप, ब्रह्मचर्यरूप के अपरिग्रहरूप अंशे के पूर्णताए थई शके नहीं; स्पष्टपणे दिव्य ध्वनिथी ज्यारे ते
जगजाहेर थतुं हतुं, त्यारे शासनना भक्त देवो दुदुंभिना नादथी तेने वधावी लेता हता.
त्त् प्र .
भगवाननो आ उपदेश सांभळी घणा भव्य जीवो धर्म पाम्या–एटले के सम्यग्द्रष्टि थया;
सम्यक्दर्शनपूर्वक सम्यक्चारित्रीनी थया; तेओ ज्यारे शुद्धभावमां न रही शकता त्यारे अशुभ भाव टाळी
शुभमां रहेता; कोई जीवनी हिंसा करवानो भाव ते पापभाव होवाथी तेवा भावो तेमणे टाळ्‌या. जेओ स्वरूप
न समज्या पण स्वरूप समजवानी रुचिवाळा थया तेओए पण हिंसाना तीव्र अशुभ भावने टाळ्‌या. जेओने
स्वरूप समजवा तरफ वलण न थयुं तेओ मंदकषाय तरफ प्रेराया अने तेथी तेओए पण अशुभ भाव केटलेक
अंशे छोडया. व्यवहारी (अज्ञानी) लोकोनी भाषामां–परजीवोनी हिंसा ते कारणे अटकी ते कार्यने अहिंसा
वधी–जीवो बच्या–एम कहेवानो रूढ प्रसिध्ध व्यवहार छे; तेथी ‘भगवानना उपदेशथी पर जीवोनी हिंसा
अटकी’ एम लौकिक रीते कही शकाय, पण शब्द प्रमाणे कोई तेनो अर्थ करे तो भगवान परना कर्ता ठरे–के जे
असत्य छे.